Kisse Netaon Ke: अपने जन्म की तारीख को लेकर ‘अम्मा’ से नाराज हो गए थे लालू यादव, किस्सा उस अनसुलझे रहस्य का
Laloo Ke kisse: लालू प्रसाद यादव का जन्मदिन हमेशा से एक अनसुलझा रहस्य बना हुआ है. आज तक यह मसला सुलझा नहीं. कभी खुद उन्होंने अपनी मां से सवाल किया था, मेरा असली जन्मदिन कब है? जिद करने पर वह नाराज हो गईं. राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी लालू के इस किस्से के पीछे की कहानी भी उतनी ही दिलचस्प है, जितनी उनकी राजनीति. आइए जानते हैं पूरा किस्सा.
 
  Laloo kee Ankahee Kahanee: बात उस समय की है जब लालू यादव स्कूल जाने लगे थे. क्लासमेट के बीच जब जन्म दिन की चर्चा होती थी तो लालू यादव चुप हो जाते थे. ऐसा इसलिए कि उन्हें पता ही नहीं था कि जन्म की असली तारीख क्या है? इसको लेकर एक बार वह अपनी माई से पूछ बैठे, माई मेरा जन्मदिन कब है? उन्होंने जवाब दिया - "हमरा नाइखे याद, तू अन्हरिया (कृष्ण पक्ष) में जन्मला की अंजोरिया (शुक्ल पक्ष) में. तू तो खेत में खेलत-खेलत पैदा हो गइल!”
सही मायने कहूं तो बिहार और देश की राजनीति में लालू प्रसाद यादव सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि एक ‘फेनोमेना’ हैं. अपने हाजिरजवाबी, देसी अंदाज और बेबाक बयानों के लिए मशहूर लालू का जीवन किस्सों से भरा पड़ा है. क्या आप जानते हैं, एक समय ऐसा भी आया जब वे अपनी ‘अम्मा’ से इस बात पर नाराज हो गए थे कि आखिर उनका असली जन्मदिन कौन सा है? ऐसा इसलिए कि उनके बचपन का यह मसला उनके सरकारी दस्तावेजों में दर्ज ‘अलग-अलग तारीखों’ से जुड़ा है.
कहा जाता है कि लालू यादव के सरकारी दस्तावेजों में उनके जन्म की तारीखों को लेकर हमेशा भ्रम बना रहा. कभी किसी स्कूल रिकॉर्ड में अलग तारीख दर्ज थी, तो किसी सरकारी दस्तावेज में दूसरी. जब उन्होंने अपनी मां से इस बारे में पूछा, तो अम्मा ने भी कहा - “बबुआ, हमका कइसे याद रही? तू तो खेत में खेलत-खेलत पैदा हो गइल!”
जन्मदिन वही, जब जनता खुश हो जाए
लालू इस बात से नाराज भी हुए और हaसते हुए बोले थे - “अब बताओ, ई भी कोई बात भईल? नेता बनल बानी, लोग पूछता बर्थडे कब है, अम्मा कहती हैं खेत में पैदा भइले!” बाद में उन्होंने खुद कई मंचों पर इस बात का जिक्र मजाकिया अंदाज में किया. यही वजह है कि उनके समर्थक भी आज तक मजाक में कहते हैं, “लालू जी का जन्मदिन वही है, जब जनता खुश हो जाए.”
यह किस्सा बताता है कि लालू यादव का जीवन कितना सहज, आम लोगों से जुड़ा और हास्य से भरा है. राजनीति में विवाद और संघर्ष के बीच भी वे हमेशा अपने ‘हास्य के हथियार’ से हर मुश्किल को हल्के में लेने का हुनर रखते हैं.
पुस्तक 'गोपालगंज से रायसीना - मेरी राजनीतिक यात्रा' के लेखक नलिन वर्मा 'गरीबी से संघर्ष, भूत का सामना' चैप्टर में लिखा है कि लालू प्रसाद का जीवन बेहद मामूली ढंग से शुरू हुआ. उनका जीवन इतना साधारण था कि उससे साधारण और कुछ हो ही नहीं सकता.
जन्मदिन का पता नहीं, तो हैप्पी बर्थडे क्यों?
उनकी इस पुस्तक को पढ़ेंगे तो उसके पहले पेज पर ही एक रोचक प्रसंग उभरकर सामने आता है. इसे जानकर कर आपको ताज्जुब होगा कि भला जो शख्स बिहार को नई दिशा देने वाला रहा हो और देश की रजनीति में जिसने 'किंगमेकर' की भूमिका निभाई हो, उसका जन्मदिन कौन है, इस बात का आज भी किसी को पता नहीं. आपको यह जानकर तब और आश्चर्य होगा कि जब यह जानेंगे कि इसके बावजूद लालू यादव हर साल अपना जन्मदिन मनाते हैं. आपके मन में यह सवाल उठा सकता है कि जब जन्मदिन का ही पता नहीं, तो हैप्पी बर्थडे क्यों?
यह मसला नई पीढ़ी के युवाओं के लिए यह चौंकाने वाला है. आखिर, आज का युवा यह कैसे मान सकता है कि किसी को अपने जन्म दिन का पता न हो. यह तो कोई सोच ही न हीं सकता है कि माता और पिता को भी बेटे के जन्म दिन का पता न हो.
नलिन वर्मा की पुस्तक की मानें तो लालू प्रसाद का सच यही है. उनकी पुस्तक को पढ़कर ऐसा लगता है कि घर में किसी को यह भी पता नहीं था कि वो पैदा किस दिन हुए. लालू यादव खुद कहते हैं कि मुझे आज भी ये नहीं पता कि मेरा 'डीओबी' यानी जन्मदिन कब है?
11 जून को स्वीकार करते हैं जन्मदिन की बधाई
पुस्तक में लालू यादव के हवाले से कहा गया है कि मेरे स्कूल के प्रमाण पत्र में डीओबी 11 जून, 1948 दर्ज है, और मैं हर साल उसी दिन जन्मदिन की बधाई स्वीकार करता हूं. मुझे पता नहीं कि रिकॉर्ड में यह कैसे दर्ज हुआ. क्योंकि मेरी मां को इसकी सिर्फ धुंधली-सी याद भर थी.
हम छह भाई और हमारी एक बहन है. लालू यादव अपनी मां को 'माई' कहते थे. पुस्तक में इस बात का भी जिक्र है कि एक बार जब मैंने 'माई' से जोर देकर जानना चाहा कि आखिर मैं पैदा कब हुआ था. तो वह नाराज हो गईं. बेरुखी से उन्होंने कहा था कि इससे क्या फर्क पड़ता है? जब मैंने जिद की यह तब की बात है.
जब में हाई स्कूल में पढ़ने लगा और बार-बार यह सवाल पूछने लगा तो तो वह कुछ मायूस हो गईं. वह बोलीं, 'हमरा नाइखे याद, तू अन्हरिया (कृष्ण पक्ष) में जन्मला की अंजोरिया (शुक्ल पक्ष) में. अपनी पीढ़ी के दूसरे लोगों की तरह मेरी 'माई' भी महीनों को हिंदू कैलेंडर के हिसाब से याद रखती थीं. चैत, बैसाख, जेठ, असाद, सावन, भादो आदि. इसी तरह से अन्हरिया अंजोरिया (कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष).
'माई' से फिर कभी नहीं पूछा - जन्मदिन कब है?
इसके बाद मैंने फिर कभी यह जानने की कोशिश नहीं की, हालांकि, मैं यह मानता रहा कि यह तारीख गलत है. माई ने मुझे खुश करने के लिए धगरिन (दाई) को बुलवाया, जिसने मेरे पैदा होने के समय मदद की थी.
लालू यादव का जन्म जन्म दूरस्थ गांव फुलवरिया में हुआ और तब यह सारन जिले में था. सारन को अब उत्तर-पश्चिम विहार तीन जिलों सारन सीवान और गोपालगंज में बांट दिया गया है. फुलवरिया गोपालगंज जिले में है. तब फुलवरिया में तकरीबन हर जाति और समुदाय के लोग रहते थे, जिनमें अहीर (यादव) नोनिया, कोइरी, कुर्मी, कहानिया जो पिछड़ी जातियां, ब्राह्मण, भूमिहार, कायस्थ, राजपूत जैसी उच्च जाति धोबी और अनुसूचित जातियों के दलित और मुस्लिम चूडीहार शामिल थे.
यादव मोहल्ला में है लालू का घर
गांव के अधिकांश लोग खेती-किसानी करते थे. लालू यादव का परिवार अहीर टोली (यादव मोहल्ला) में रहता था. उस समय यादवों के पास दूसरों से ज्यादा मवेशी होते थे. ऊंची जाति के ग्रामीणों के पास दूसरों की तुलना में ज्यादा जमीनें थीं. भूमिहीन पिछड़े और दलित भूस्वामी किसानों के खेतों में बटाईदारों के रूप में काम करते थे. हमारे गांव में एक लोहार परिवार भी रहता था. इसके पुरुष सदस्य अन्य खेतिहरों के लिए हथौड़ा, फावड़ा और हल बनाते थे.
बथुआ बाजार हमारे गांव के सबसे पास में स्थित बाजार था. अहीर टोली के निवासी मिट्टी के बर्तनों में दही लेकर बाजार जाते थे और सड़कों के किनारे कतारों में लगा देते थे. अहीर, दही और दूध बेचते थे, तो सब्जी उगाने वाले कोइरी इसी तरह कतारों में सब्जियां बेचते थे. ये सामान अनाज और कई बार नकदी यहां तक कि कुछ सिक्कों के बदले खरीदे जाते थे.
चिल्लम पीने वालों को पिताजी देते थे दूध और दही
गोपालगंज से रायसीना पुस्तक के अनुसार लालू यादव का गांव उत्तर में पकड़ी, दक्षिण में मनिपुर, पूर्व में पकौली और पश्चिम में छत्तौर से घिरा हुआ था. मनिपुर में ऊंची जाति के भूमिहारों और ब्राह्मणों की बहुतायत आबादी रहती थी. मनिपुर के अनेक युवा चिलम में गांजा भरकर पीते थे. चिलम पीने के बाद उनमें दही और मलाई खाने की तलब लगती थी. इसलिए वे दही और दूध के लिए मेरे घरों में आते थे. मेरे पिताजी उन्हें सिक्कों के बदले दूध और दही देते थे.
मिट्टी की दीवारों और घास-फूस से बने थे घर
अधिकांश दूसरे लोगों की तरह हमारे घर भी मिट्टी की दीवारों और घास-फूस से बने थे. हमारे दरवाजे के नजदीक ही एक कुआं था, जिससे मेरी मां घरेलू जरूरतों के लिए पानी निकालती थी. मारे घर के पास एक बड़ा-सा पीपल का पेड़ था. उसकी जड़ें हमारे आंगन तक फैली हुई थी.
लालू की कहानी फिल्मी और रुमानी
वहीं, बहुत-सी गौरैया, कौए, गिलहरियों, विल्ली और कुत्ते मिल-जुलकर रहते थे. हमारे घर में घोसले, दरारें और बिल थे. जिनमें बिच्छू और सीप रहते थे. भाई और घर के बड़े मुझे चिड़ियों और जानवरों के साथ तो खेलने देते थे, लेकिन बिच्छुओं और सांपों से मुझे बचाते भी थे.
यह सब रूमानी लग सकता है, लेकिन हम लगातार इसी भय में जीते थे कि कहीं हमारे सिर के ऊपर की छत कोई तूफान न उड़ा ले जाए या बरसात में उससे पानी न चूने लगे. बचपन में मैंनेआजादी का खूब आनंद उठाया, लेकिन आज पीछे मुड़कर देखता हूं तो मुझे एहसास होता है कि ऐसी चुनौतियों के बीच हमें पालना हमारे माता-पिता के लिए कितना मुश्किल रहा होगा. मुझे उन पर गर्व था, लेकिन साथ ही मुझे जल्दी ही समझ आ गया कि गरीबी में चमक-दमक नहीं होती.
पिताजी करते थे गाय-गोरू से बात
मेरे पिता कुंदन राय ग्वाला थे और उनकी मजबूत कद-काठी थी. उनके पास दो गंदे कपड़े थे, जिनमें से एक को वह नीचे की ओर लपेटते थे और दूसरे को कंधे में. वह हमेशा एक लाठी साथ में रखते थे. उनकी आवाज बेहद दमदार थी और जब वह चिल्लाते थे,तो उसे एक मील दूर तक सुना जा सकता था. उनके पास दो बीघा जमीन और कुछ मवेशी थे. उनकी दुनिया गाय-गोरू के बीच में सिमटी हुई थी. वह उनसे बात करते थे और वे भी उनकी बात समझते थे.







