जबरन संबंध के दौरान बहने लगा खून...गवाही में नहीं जिक्र तो SC ने खारिज कर दी दलील
सुप्रीम कोर्ट ने बाल तस्करी को देश की सबसे भयावह सामाजिक सच्चाइयों में से एक बताते हुए इसे आधुनिक गुलामी करार दिया है. बेंगलुरु में नाबालिग के संगठित यौन शोषण मामले में कोर्ट ने आरोपियों की सजा बरकरार रखते हुए कहा कि संगठित गिरोह कानूनों के बावजूद सक्रिय हैं. अदालत ने स्पष्ट किया कि नाबालिग पीड़िता की गवाही को संवेदनशीलता और मानवीय दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट ने बाल तस्करी को लेकर गहरी चिंता जताते हुए कहा है कि यह देश की सबसे भयावह और चिंताजनक सामाजिक हकीकतों में से एक है. शीर्ष अदालत ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि बाल तस्करी आधुनिक गुलामी का ऐसा रूप है, जो संविधान, समाज और मानव गरिमा- तीनों पर सीधा हमला करता है.
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बेंगलुरु में नाबालिग लड़की के संगठित यौन शोषण से जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ आरोपियों की सजा को बरकरार रखा, बल्कि बाल तस्करी के मामलों में अदालतों के लिए अहम दिशा-निर्देश भी तय किए. कोर्ट ने माना कि सख्त कानूनों के बावजूद संगठित गिरोह बच्चों के यौन शोषण को अंजाम दे रहे हैं, जो बेहद गंभीर चिंता का विषय है.
संगठित अपराध नेटवर्क की बहुस्तरीय संरचना पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस जॉयमाल्य बागची की पीठ ने कहा कि बाल तस्करी संगठित अपराध नेटवर्क का परिणाम है, जिसकी संरचना बेहद जटिल और बहुस्तरीय होती है. यह नेटवर्क नाबालिगों की भर्ती, परिवहन, ठहराव और अंततः उनके शोषण के अलग-अलग स्तरों पर काम करता है. पीठ ने कहा कि यह अपराध बच्चों की गरिमा, शारीरिक अखंडता और उन्हें शोषण से बचाने के राज्य के संवैधानिक वादे की बुनियाद को ही कमजोर करता है.
बचाव पक्ष की दलीलें क्यों नहीं मानी गईं
Law Trend में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, अपीलकर्ता के वकील ने पीड़िता की गवाही और अभियोजन के मामले पर कई सवाल उठाए, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया. बचाव पक्ष का कहना था कि पीड़िता ने अदालत में दावा किया कि जबरन यौन संबंध से उसे चोटें आईं और खून बहा, जबकि मजिस्ट्रेट के समक्ष दिए गए पहले बयान में इसका उल्लेख नहीं था. यह भी तर्क दिया गया कि पीड़िता ने घटनास्थल पर दो कमरों की बात कही, जबकि अन्य गवाहों के अनुसार वहां एक बड़ा हॉल था.
प्रक्रियात्मक उल्लंघन का दावा- बचाव पक्ष ने ITPA की धारा 15(2) के उल्लंघन का मुद्दा उठाया, जिसके तहत तलाशी के दौरान इलाके के कम से कम दो सम्मानित निवासियों (जिनमें एक महिला अनिवार्य हो) की मौजूदगी जरूरी है. पीठ ने इन सभी दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि नाबालिग यौन तस्करी पीड़ितों की गवाही को “संवेदनशीलता और यथार्थवाद” के साथ देखा जाना चाहिए. जस्टिस बागची ने फैसले में लिखा कि ऐसी पीड़िताएं भय, दबाव और मानसिक आघात के कारण हर बात को बिल्कुल सटीक ढंग से बयान करने की स्थिति में नहीं होतीं. कोर्ट ने साफ किया कि गवाही में मामूली विरोधाभासों के आधार पर पीड़िता की विश्वसनीयता पर संदेह नहीं किया जा सकता.
‘पीड़िता अपराध की सहभागी नहीं, बल्कि घायल गवाह’
सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा कि नाबालिग यौन तस्करी पीड़िता को किसी भी परिस्थिति में अपराध की सहभागी नहीं माना जा सकता. वह एक घायल गवाह की तरह होती है, जिसकी गवाही अपने आप में एक अहम साक्ष्य है. पीठ ने कहा कि बाल तस्करी समाज और संविधान दोनों की बुनियाद पर सीधा हमला है और इसे हल्के में लेना न्याय व्यवस्था के लिए घातक होगा.
सामाजिक और आर्थिक कमजोरियों को ध्यान में रखने की जरूरत
कोर्ट ने निर्देश दिया कि नाबालिग पीड़िताओं के बयान का मूल्यांकन करते समय उनकी सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को जरूर ध्यान में रखा जाए. खासकर तब, जब पीड़िता किसी हाशिये पर खड़े या सामाजिक रूप से पिछड़े समुदाय से आती हो. पीठ ने कहा कि यह अपेक्षा करना कि पीड़िता हर तथ्य को क्रमबद्ध और बिल्कुल सटीक ढंग से बताएगी, व्यवहारिक नहीं है.
‘द्वितीयक पीड़ितकरण’ पर सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यौन शोषण की भयावह यादों को दोबारा बयान करना अपने आप में एक और पीड़ा है, जिसे “द्वितीयक पीड़ितकरण” कहा जाता है. यह पीड़ा तब और बढ़ जाती है, जब पीड़िता नाबालिग हो और उसे धमकी, बदले का डर, सामाजिक बदनामी और पुनर्वास की अनिश्चितता झेलनी पड़े. अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में मानवीय और संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाना न्याय का मूल तत्व है.
सिर्फ पीड़िता की गवाही पर भी सजा संभव: सुप्रीम कोर्ट
स्टेट ऑफ पंजाब बनाम गुरमीत सिंह (1996) के फैसले का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि यदि पीड़िता की गवाही विश्वसनीय है, तो केवल उसी के आधार पर भी दोषसिद्धि की जा सकती है. पीठ ने पाया कि इस मामले में पीड़िता की गवाही पूरी तरह भरोसेमंद है, जिसकी पुष्टि एनजीओ कार्यकर्ता, डिकॉय गवाह और स्वतंत्र गवाहों ने भी की है.
2010 का मामला, 2024 में अंतिम फैसला
यह मामला वर्ष 2010 का है, जो केपी किरणकुमार @ किरण बनाम स्टेट बाय पीन्या पुलिस से जुड़ा है. 19 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट और कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसलों को सही ठहराते हुए आरोपी की अपील खारिज कर दी और अनैतिक व्यापार (रोकथाम) अधिनियम सहित अन्य धाराओं में दी गई सजा को बरकरार रखा.





