'एहि है कलिजुग… ग्वार का बच्चा बैरिस्टर बनी', जमींदार से लालू को मिले ताने ने लिखा राजनीति का नया अध्याय, बदल दिया बिहार

Kisse Netaon Ke: गांव फुलवरिया के जमींदार ने हंसी उड़ाई कि ग्वार का बच्चा बैरिस्टर बनी. वही, अपमानजनक ताना लालू यादव की जिंदगी की असली ताकत बन गया, जो आगे चलकर प्रदेश के लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ. लालू के चाचा यदुनंदन राय इस तंज से इतना तिलमिलाए कि भतीजे को लेकर सीधे पटना पहुंचे और स्कूल में दाखिला करा दिया. उसके बाद क्या था, लालू यादव छात्र राजनीति और जेपी आंदोलन के रास्ते सीधे बिहार की सत्ता तक जा पहुंचे. यानी लालू ने जमींदार के कमेंट को अपनी पहचान का हिस्सा बनाया और 1990 में 'बिहार के बेताज बादशाह' बन गए.;

( Image Source:  @kaliyuga_surfer )
By :  धीरेंद्र कुमार मिश्रा
Updated On : 4 Oct 2025 7:00 PM IST

Lalu Yadav Politics: साल था 1954, बिहार के गोपालगंज का फुलवरिया गांव, पाठशाला चल रही है और बच्‍चे अपने काम में लगे हैं. तभी वहां से जमींदार साहब गुजरते हैं और 'स्लेट' पर छोटे लालू को चित्र बनाते देखकर तंज करते हैं, 'ओहो देखा हो, एही है कलिजुग… अब ग्वार का बच्चा बैरिस्टर बनी!” उस समय किसी ने नहीं सोचा था कि यही बच्चा एक दिन बिहार की राजनीति की धुरी बनेगा.

कहते हैं ना, "राजनीति भाग्य और संघर्ष दोनों का खेल होता है", लालू यादव के जीवन में भी कुछ ऐसा हुआ. जमींदार का एक 'ताना' देकर जातिवादी भेद का जहर उगला था, लेकिन इसका असर उनके ​सियासी 'बीजारोपण और भाग्योदय' का कारण बना. यानी जमींदार का ताना जानलेवा नहीं चमत्कारी साबित हुआ. लालू पूर्ण गुमनामी से उठकर वह 41 साल बाद बिहार का बादशाह बन गए. इस मुकाम तक पहुंचाने के तिनके का सहारा बने उनके चाचा यदुनंदन राय, जो अपने भतीजे को पटना पशु चिकित्सा महाविद्यालय लाकर, उसे स्कूल में दाखिल कराया.

लेकिन लालू ने अपने चाचा के इस फैसले को उन बुलंदियों तक पहुंचाया जिसे ऐतिहासिक निर्णय कह सकते हैं. हालांकि, उनके चाचा को इस बात का इल्म नहीं था कि लालू एक दिन बिहार का सीएम बनेगा. लालू वहीं से एक शासक के रूप में उभरकर सामने आए और 1 अणे मार्ग -सीएम आवास- से उन्होंने बिहार पर लगातार 15 साल ​तक राज किया. ऐसा उदाहरण बिहार की क्या, देश की राजनीति में अब तक कहीं और देखने को नहीं मिला. आइए, जानते हैं 'नेताओं के किस्से' के तहत लालू यादव की जिंदगी से जुड़ी सबसे अहम कहानी.

'एहि है कलिजुग…' से शुरू हुई...

बात 1960 के दशक की है. जब लालू का परिवार अति गरीब था और उन्होंने स्कूल जाना ही शुरू किया था. उस समय लालू यादव अपने गांव फुलवारिया में रहते थे. वे कुंदन राय और मछरिया देवी के आठ संतानों में छठे थे. उस समय कुंदन राय का परिवार ग्रामीण बिहार में सामंती व्यवस्था के निचले सिरे का प्रतीक था. सामाजिक रूप से प्रतिबंधित और आर्थिक रूप से असहाय. उसी परिवेश में लालू पास के सरकारी स्कूल पहुंच कर अ-आ... लिखना सीख ही रहे थे कि गांव के जमींदार ने जाति सूचक ताने देकर उनके दिमाग और दिल में कुछ कर गुजरने का अलख (जोत) जगा दिया.

जमींदार का तंज, चाचा का अटल संकल्प

'पुस्तक बंधु बिहारी: कहानी लालू यादव व नीतीश कुमार की' के लेखक संकर्षण ठाकुर के मुताबिक, "गांव के जमींदार का यह तंज लालू के घरवालों को चुभ गया. चाचा यदुनंदन राय ने ठान लिया - “अब इसे पढ़ाना ही है, पटना भेजना ही है.” इसी संकल्प ने लालू की जिंदगी की दिशा बदल दी. चाचा पटना वेटरिनरी कॉलेज में काम करते थे, सो उन्होंने वहीं रहने-खाने का इंतजाम किया और लालू को पढ़ने के लिए स्कूल भेजना शुरू कर दिया.

लालू के बड़े भाई मंगरू राय के अनुसार, एक दिन सुबह के समय छोटे लालू अपने घर के छोटे से आंगन में एक ईंट के टुकड़े से अपनी स्लेट पर कुछ चित्रकारी कर रहे थे, तभी वहां से फुलवरिया के एक जमींदार गुजरे. उन्होंने लागू को देख कहा, 'ओहो, देखा हो', उन्होंने चलते चलते टिप्पणी की, 'देखा, एही है कलजुग. अब ई ग्वार का बच्चा भी पढ़ाई लिखाई करी. बैरिस्टर बनाबे के बा का.'

लालू के चाचा यदुनंद राय, जो उस समय पटना से घर आए थे, जमींदार की बात सुनकर इतने तिलमिला गए कि उन्होंने अपने भतीजे को तुरंत पटना ले जाकर उसकी शिक्षा का प्रबंध करने का निर्णय ले लिया. यदुनंद राय पटना पशु चिकित्सा महाविद्यालय में काम करते थे. जिससे उनको प्रतिदिन कुछ आने की कमाई हो जाती थी. उनके पास महाविद्यालय परिसर में रहने की जगह थी. वह लालू को अगले ही दिन अपने साथ लेकर पटना पहुंच गए.

लालू कैसे पहुंचे पटना

दरअसल, बिहार में नीची जातियों के लोगों द्वारा अपने बच्चे को शिक्षित करने की कोशिश को या अन्य विशेषाधिकारों को, जिन्हें वे अपनी संपत्ति समझते हैं, नीची नजर से देखते थे, बल्कि जहां तक संभव होता है, अब भी देखते हैं. जिस तरह की टिप्पणी का मंगरू उदाहरण देते हैं, वह बिल्कुल ठेठ भाषा में है. इसी में इस कहानी का मूल भाव निहित है. यह बिल्कुल ठेठ लगती है, समय के अनुसार बिल्कुल सच्ची. ऐसा किसी के भी साथ हो सकता था, शयद नन्हे लालू यादव के साथ भी यही हुआ. पुस्तक के लेखक के मुताबिक मंगरू राय की कहानी आम को खास बनाकर प्रस्तुत करने जैसा लगता है. वह ऊँची जाति की छोटी सोच का बोझ लालू पर डाल देती है.

लालू यादव पटना कैसे पहुंचे, इस मसले पर महावीर राय का बयान अधिक विश्वसनीय है. महावीर राय और मुकुंद राय लालू यादव के बड़े भाई थे, जो उनसे पहले पटना पशु चिकित्सा महाविद्यालय आ चुके थे. उस बड़े शहर में शरण ले चुके थे. दोनों ही अनपढ़ थे, इसलिए दोनों ने ग्वाले का काम करना शुरू कर दिया, लेकिन अपने चाचा यदुनंद राय की तरह उन्हें भी महाविद्यालय के परिसर में सिर छुपाने को जगह मिल गई थी. महावीर राय कहते हैं, फुलवरिया में रहना हमारे लिए मुश्किल होता जा रहा था. हमारा परिवार बहुत बड़ा था. सबका पेट भरना संभव नहीं हो पा रहा था. हमारे चचाजी को पुश चिकित्सा महाविद्यालय में नौकरी मिल गई थी, इसलिए हम भी अपनी किस्मत आजमाने वहीं पहुंच गए. हमें कुछ महीने इंतजार करना पड़ा, लेकिन चाचा जी ने हम लोगों की बहुत मदद की और हमें नौकरी मिल गई. जब हम महाविद्यालय में ठीक ठाक तरीके से जम गए तो हमने सोचा, लालू को गांव से लाकर स्कूल में भरती करा दें.

BMP और मिलर स्कूल के प्रोडक्ट हैं 'लालू'

पटना पहुंचने के बाद पहले लालू बिहार मिलिट्री पुलिस कैंप जेल स्कूल में जाते थे, लेकिन जल्दी ही उनके भाइयों ने उन्हें मिलर हाई स्कूल में भर्ती करा दिया, जो पाव में ही स्थित एक सरकार द्वारा संचालित संस्थान था. वहां से स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद लालू यादव पटना विश्वविद्यालय गए.

Patna की गलियों में ऐसे किया संघर्ष 

पटना पहुंचे लालू ने साधारण छात्र की तरह पढ़ाई शुरू की. B.N. कॉलेज से ग्रेजुएशन, फिर लॉ कॉलेज से LLB किया. जेब में पैसे कम थे, तो उन्होंने कभी-कभी छोटे-मोटे काम भी किए. कभी कॉलेज हॉस्टल और यूनिवर्सिटी कैंपस के संघर्षों में हिस्सा लिया.

यहीं से लालू का दूसरा चेहरा यानी छात्र नेता रूप उभरकर सामने आया. वह पटना यूनिवर्सिटी छात्र संघ के जनरल सेक्रेटरी बने, फिर अध्यक्ष भी बने. कैंपस में उनकी आवाज सीधी, तेज और गांव की मिट्टी से जुड़ी थी. यही उन्हें बाकी छात्र नेताओं से अलग बनाती थी.

JP आंदोलन में मिली राष्ट्रीय पहचान

फिर 1974 का दौर आया. इंदिरा जी ने देश में इमरजेंसी लगा दी. इसके विरोध में जयप्रकाश नारायण के समग्र आंदोलन का केंद्र पटना का अशोक राजपथ बना. इस राजपथ पर पटना विश्वविद्यालय है. बिहार के साथ पूरे देश इंदिरा सरकार के खिलाफ आंदोलन की आग भड़क रही थी. जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर अशोक राजपथ पर देश भर रे उमर आए थे. पुलिस के लाठीचार्ज और गोलीबारी से अशोक राजपथ लाल हो गया था. हजारों छात्र सड़कों पर थे. लालू उनमें सबसे आगे थे. उनका अंदाज देसी था, लेकिन आवाज दमदार. यही आंदोलन लालू को राष्ट्रीय मंच पर ले आया और कांग्रेस से उनकी दूरी पक्की कर गया.

इमरजेंसी के बाद 29 की उम्र में बन गए सांसद

इमरजेंसी के बाद लोकसभा चुनाव हुआ. जेपी आंदोलन के बाद बनी जनता पार्टी ने लालू को मौका दिया. 1977 में छपरा से चुनाव लड़े और मात्र 29 साल की उम्र में लोकसभा पहुंच गए. गांव का ‘गंवार बच्चा’ अब संसद का पटना से सांसद था.

1989 में बने विधानसभा में विपक्ष के नेता

1980 के दशक में बिहार की राजनीति में उन्होंने लगातार पैठ बनाई. 1985 में विधानसभा पहुंचे और 1989 में विपक्ष के नेता बने. बिहार की राजनीति में लालू की शैली आक्रामक थी. गांव की बोली में सीधी चोट देने में माहिर थे लालू. यही स्टाइल जनता को भा गया.

 लालू को किस्मत ने दिलाई CM की कुर्सी

लालू प्रसाद यादव बिहार के राजनेता हैं, जिनका राजनीतिक सफर जनता दल और बाद में राजद (RJD) के माध्यम से हुआ. वे पहली बार 1980 के दशक में राजनीति में उभरे और धीरे-धीरे राज्य की राजनीति में मजबूत हुए और छा गए.

लालू यादव सीएम कैसे और क्यों बने?

लालू यादव पहली बार 1990 में मुख्यमंत्री बने. उनके मुख्यमंत्री बनने की वजह थी जनता दल (JD) की अंदरूनी राजनीतिक और मुख्यमंत्री पद के लिए सत्ता समीकरण. 1989-1990 के दशक में बिहार की राजनीति में जनता दल (JD) का प्रभाव था. जब जनता दल में मुख्यमंत्री चुनने का समय आया, तो राजनीतिक दांव-पेंच और जातीय समीकरण को देखते हुए लालू यादव को मुख्यमंत्री पद के लिए केंद्रीय नेताओं का समर्थन मिला.

उनके पक्ष में राजनीति और पार्टी नेतृत्व का समर्थन था. खासकर कुछ वरिष्ठ नेताओं ने उन्हें आगे बढ़ाया, उन्हीं के खिलाफ वे सत्ता में गठबंधन के लिए सुरक्षित और संतुलित विकल्प माने गए. 1990 में जब जनता दल की सरकार बनी तो मुख्यमंत्री पद के कई दावेदार थे. आखिर में समझौते के नाम पर विधायकों ने लालू को चुन लिया, लेकिन यह ‘समझौता’ जल्दी ही जनता के भरोसे में बदल गया. 1990 में लालू यादव मुख्यमंत्री बने और बिहार की राजनीति ने करवट ले ली.

1980 के आसपास बिहार में कांग्रेस पार्टी (राजनीतिक रूप से लोकसभा/राज्य स्तर पर) की कमजोर स्थिति थी। तत्कालीन दौर में राम सुंदर दास और रघुनाथ झा को मुख्यमंत्री बनने के लिए उपयुक्त उम्मीदवार माना गया था, लेकिन उनमें राजनीतिक और सामाजिक संतुलन बनाए रखने की क्षमता कम थी. लालू यादव को एक तरह से 'समाजवादी और पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधि' माना गया, जो कि बिहार की सामाजिक संरचना में संतुलन लाने में मदद कर सकता था. पार्टी नेतृत्व ने महसूस किया कि लालू यादव की लोकप्रियता, खासकर युवाओं और पिछड़ों के बीच सबसे ज्यादा थी. 1988–1989 के आसपास राज्य स्तर पर गठबंधन और जातीय समीकरण ने तय किया कि मुख्यमंत्री के रूप में लालू ही सबसे उपयुक्त व्यक्ति होंगे.

पूर्व पीएम चंद्रशेखर उस समय केंद्रीय राजनीति में सक्रिय थे. उन्होंने बिहार में गठबंधन और मुख्यमंत्री चयन में ‘मध्यस्थ’ की भूमिका निभाई. उनका फोकस था कि किसी भी चयन से जातीय और राजनीतिक संतुलन बिगड़े नहीं.

मांडू के राजा वी. पी. सिंह जो बाद में प्रधानमंत्री बने, बिहार की राजनीति में अपने समर्थकों के जरिए यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहे थे कि पिछड़ों और दलितों का प्रतिनिधित्व हो. उन्होंने लालू यादव के मुख्यमंत्री बनने में अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन दिया.

देश के पूर्व डिप्टी पीएम हरियाणा के पूर्व सीएम देवीलाल का हस्तक्षेप ज्यादा व्यक्तिगत नहीं था, लेकिन उन्होंने 'जाट और पिछड़े वर्ग के नेताओं को प्रोत्साहित' करने की नीति अपनाई, जो लालू के पक्ष में गया.

शरद यादव और मुलायम सिंह जो समाजवादी धड़े के नेता थे, ने लालू यादव के पक्ष में राजनीतिक समर्थन दिया. खासकर शरद यादव ने राज्य और केंद्र के बीच संतुलन बनाने में मदद की. मुलायम सिंह यादव ने राजनीतिक रणनीति और गठबंधन निर्माण में सहयोग किया, ताकि लालू की सियासी स्वीकार्यता बढ़े. यानी सियासी जोड़-घटाव में लालू फिट बैठ गए और बन गए बिहार के सीएम. वह दो बार सीएम बने. फिर चारा घोटाले के आरोप में चले गए. जेल जाने से पहले उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी को सीएम बनाया और बिहार पर लगातार 15 साल तक एक छत्र राज किया. ये बात अलग है कि बाद में उनके शासन को जंगलराज कहा गया. दूसरी तरफ बिहार की राजनीति की हकीकत यह है कि ग्वार के बेटे की आज भी उपस्थिति मात्र से बिहार की राजनीति का समीकरण बदल जाता है. यही वजह है कि नीतीश कुमार बार पलटी मारकर नौ बार सीएम बन गए. उन्हें इतनी बार सीएम बनने देने में लालू यादव की भी भूमिका अहम है.

कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि गांव का वो ताना आज भी बिहार की राजनीति की लोककथाओं में दर्ज है. फुलवरिया के आंगन से निकला एक गरीब का बेटा, पटना की गलियों में संघर्ष करता छात्र और जेपी आंदोलन की आग में तपकर निकला नेता लालू प्रसाद यादव है. शायद इसीलिए कहते हैं कि कभी-कभी एक 'ताना' ही इतिहास लिख देता है.

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