Never से Together तक... 2014 लोकसभा चुनाव में हार के बाद 'नरभसा' गए थे लालू, नीतीश को कह दिया - 'हूं, कभी नहीं'

Kisse Netaon Ke: बिहार की राजनीति हमेशा से उतार-चढ़ाव, जोड़-तोड़ और पल-पल बदलते समीकरणों की प्रयोगशाला रही है. यहां की सियासत में कब कौन किसका साथ छोड़ दे और कब किसके साथ गले मिल जाए, इसकी भविष्यवाणी करना आसान नहीं. और जब बात लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की हो, तो यह कहानी और भी दिलचस्प हो जाती है. लालू अपने अंदाज-ए-बयां और चुटीली टिप्पणियों के लिए मशहूर रहे हैं, वहीं नीतीश को ‘साइलेंट इंजीनियर’ कहा जाता है, जो सही समय पर सही मोड़ लेकर खुद को सत्ता की गाड़ी से जोड़ देते हैं.;

( Image Source:  ANI )
By :  धीरेंद्र कुमार मिश्रा
Updated On : 3 Oct 2025 5:48 PM IST

बात 11 साल पहले की है. उस समय लोकसभा चुनाव 2014 में बिहार की 40 सीटों पर नीतीश कुमार और लालू यादव की पार्टी को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा था. आरजेडी और जेडीयू खेमे में सन्नाटा छाया हुआ था. दोनों की पार्टियों के दफ्तर में विरानी छाई हुई थी. ऐसा होना भी स्वभाविक था, क्योंकि पहली बार ऐसा हुआ था जब किसी बाहरी नेता ने अपने चेहरे पर चुनाव लड़कर बिहार की दो प्रमुख सियासी पार्टियों को राजनीतिक पटखनी दी हो. आपस में एक-दूसरे को हरा देते, तो उसे समझा जा सकता था, लेकिन तत्कालीन गुजरात के सीएम वहां पहुंचे और आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस तीनों का सूपड़ा साफ हो गया. इस हार को लालू सरीखे नेता नहीं भूल सकते.

ऐसे गमगीन माहौल में किसी तरह दिल्ली से नेशनल मीडिया की एक टीम ने लालू यादव को मनाकर साक्षात्कार के लिए राजी कर लिया. इंटरव्यू का आयोजन ऐतिहासिक गांधी मैदान के सामने और बिहार के सबसे अच्छे होटल मौर्या में किया गया. तय समय पर होटल में लालू यादव पहुंचे. मीडिया की टीम पर पहले से सतर्क थी. इस दौरान होटल के सभागार में पटना के प्रभावी बुद्धिजीवि और पत्रकार भी मौजूद थे. आरजेडी प्रमुख का इंटरव्यू शुरू हुआ. सब कुछ ठीक चल रहा था. अचानक लालू जी से सवाल पूछ रहे पत्रकार ने ऐसा सवाल पूछ लिया, जिससे लालू यादव सिर खुजलाने लगे. उनकी तिरछी नजरें देख पत्रकार महोदय सकपका गए. फिर जो हुआ वो एक सियासी किस्सा बन गया, जिसे लोग आज भी याद करते हैं. आइए, उसी घटना के बारे में डिटेल में जानते हैं स​ब कुछ.

दरअसल, लालू अपनी हाजिरजवाबी और तुनक मिजाजी के लिए मशहूर हैंजबकि नीतीश ठहरे - शांत, चुपचाप और वक्त देखकर चाल चलने वाले खिलाड़ी. दोनों की कहानी किसी जोड़ी की नहीं, बल्कि विरोधियों की रही. कभी एक-दूसरे के खिलाफ जहरीले बयान, तो कभी गले लगाकर सत्ता की गद्दी साझा करना. और यही उतार-चढ़ाव उन्हें भारतीय राजनीति का सबसे रोचक अध्याय बना देता है.

लेकिन क्‍या आपको याद है कि आज से करीब 10 साल पहले एक दूसरे को फूटी आंख नहीं देखने वाले लालू यादव और नीतीश आखिर क्‍यों साथ आ गए थे. क्‍या केवल नरेंद्र मोदी की आंधी से बचने की मंशा थी या कुछ और? पानी पी-पीकर एक दूसरे को कोसने वाले दो राजनीतिक धुरंधरों का इस तरह साथ आ जाना तब भी किसी को हजम नहीं हुआ था और आज भी राजनीति के जानकार उसे सियासी दुर्घटना ही मानकर चलते हैं. हालांकि कहा तो यह जाता है कि सियासत में कोई किसी का स्‍थायी दोस्‍त या दुश्‍मन नहीं होता, लेकिन लालू और नीतीश के मामले में यह बिल्‍कुल अलग है. जो नीतीश, लालू के जंगलराज की आलोचना कर ही सत्ता में आए हों वह उसी लालू से हाथ मिला लिया. 

...जब लालू ने पिया जहर का घूंट

ये बात आज से करीब 11 साल पहले की है, एक टीवी इंटरव्यू में लालू यादव ने नीतीश के साथ हाथ मिलाने की संभावना पर पत्रकार पर तंज कसा था. कहा था - हुं... कभी नहीं!” लेकिन कुछ ही महीने बाद वही लालू, उसी नीतीश को नेता मान बैठे और मंच से एलान कर दिया कि मोदी नामक सांप का सिर कुचलने के लिए वे सबकुछ कुर्बान कर देंगे, यहां तक कि अगर नंबर दो भी बनना पड़े तो. एक धुर-विरोधी को स्वीकार कर लेना आसान नहीं था, लेकिन नरेंद्र मोदी की लहर को रोकने के लिए यह ‘सियासी जहर का प्याला’ लालू ने पिया. नतीजा यह हुआ कि चुनाव में महागठबंधन ने बीजेपी को पटकनी दे दी और नीतीश मुख्यमंत्री बने, जबकि लालू के बेटे पहली बार सत्ता में पहुंचे.

दरअसल, 'बंधु बिहारी: कहानी लालू यादव व नीतीश कुमार की', के लेखक संकर्षण ठाकुर अपनी पुस्तक में लालू यादव की राजनीति से जुड़े ऐसी ही घटना का जिक्र करते हैं. संकर्षण ठाकुर ने लिखा है, 'यह घटना उस समय की है जब लोकसभा चुनाव 2014 में लालू यादव और नीतीश कुमार, को करारी शिकस्त मिली थी. उस समय चुनाव प्रचार के दौरान नीतीश कुमार के साथ आने की किसी भी संभावना को लालू सिरे से खारिज कर दिया करते थे. परिणाम यह निकला कि नरेंद्र मोदी की शुरुआती सियासी लहर के दौर में बिहार की 40 सीटों में से एनडीए गठबंधन 31 सीटें जीतने में कामयाब हुई थी. जेडीयू दो सीटों पर और लालू की पार्टी सिर्फ 4 सीटों पर जीत हासिल कर पाई थी. 2014 का लोकसभा चुनाव परिणाम लालू और नीतीश के सियासी अरमानों पर पानी फेरने वाला साबित हुआ था. इसके बाद आरजेडी अभी एक बार भी लोकसभा चुनाव में बेहतर परफॉर्म नहीं कर पाई.

'नीतीश से हाथ मिलाएंगे? 'हुं' कभी नहीं'

पटना के मौर्या होटल के ऊपरी तल पर बने अस्थायी स्टूडियो में पुस्तक के लेखक को भी इसमें शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया था. पुस्तक के मुताबिक साक्षात्कार शुरू होने के बाद लालू जी से पूछा गया कि क्या नरेंद्र मोदी जैसे बड़े खतरे को रोकने के लिए क्या वे नीतीश कुमार से हाथ मिलाएंगे? इसके जवाब में पहले तो लालू यादव ने प्रश्न पूछने वाले पत्रकार की ओर ऐसे देखा, जैसे उन्होंने अविश्वसनीय सा प्रश्न कर दिया हो. फिर बोले, "मुझे लगता है, ठाकुरजी, आप बिहार को जानते हो, जो आदमी इतने सालों से भाजपा के गोद में बैठा रहा, मुझे सत्ता से हटाया, जो भाजपा का पालतू है. आप उससे हाथ मिलाने के बारे में हमसे पूछ भी कैसे सकते हो? क्या आप नहीं जानते हैं, बीजेपी को दूर रखने के लिए मैं, अपने स्वार्थ की भी अनदेखी करता हूं. हम नीतीश से हाथ मिलाएंगे? हुं. कभी नहीं, नेवर."

'सांप' का सिर कुचलने के लिए नंबर दो भी बनूंगा

लेकिन ये क्या? एक साल बाद यानी बिहार विधानसभा चुनाव 2015 से कुछ माह पहले उन्होंने (लालू प्रसाद यादव) ने 'सियासी जहर का प्याला पीकर' घोषणा की, "नीतीश कुमार उनके न केवल बिछड़े सहयोगी हैं बल्कि उनके नेता भी हैं." आरजेडी प्रमुख ने अपनी बात को जारी रखते हुए आगे कहा, "नरेंद्र मोदी को बिहार नहीं लेने दिया जाएगा और सांप्रदायिक 'सांप' का सिर कुचलने के लिए सब कुछ करूंगा. यहां तक कि बिहार में अपने धुर विरोधी के नंबर दो भी बनूंगा."

मोदी को रोकने के लिए बेमेल गठबंधन भी स्वीकार

उनके इस बयान को सुनकर इंटरव्यू ले रहे पत्रकार भी अचंभित थे. अचंभित इसलिए कि अपने धुर विरोधी नीतीश के लिए वो सब कुछ क्यों कुर्बान करना चाहते हैं? इसका जवाब ये है कि लालू और नीतीश ने युवावस्था में समाजवादी साथी के रूप में राजनीति शुरू की थी. बाद में दोनों में तीव्र मतभेद हो गए, दोनों के बीच सर्वाधिक चर्चित लड़ाइयां हुईं. दोनों ने एक-दूसरे के लिए कटु से कटु शब्दों का इस्तेमाल किया और दोनों एक-दूसरे के साथ गले मिलकर राज करने लगे. यही वजह है कि दोनों नरेंद्र मोदी के हौवा (सियासी लहर) को बिहार में दोबारा आता देख और हमेशा के लिए सत्ता छिनती देख, अपनी नैया बचाने के लिए फिर साथ आ गए. प्रधानमंत्री मोदी के मजबूत सेना से निपटने के लिए बेमेल लेकिन एंटरटेनिंग गठबंधन भी किया. लालू और नीतीश अब बिहारी-खेल के माहिर नहीं लग रहे थे, जैसा कि वे पहले हुआ करते थे.

इसलिए लालू हो गए सत्ता से बेदखल

यहां पर इस बात का भी जिक्र कर दें कि अक्टूबर 2013 में लालू यादव को 'चारा घोटाले में सजा सुनाई गई और वे चुनावी राजनीति से बाहर हो गए. तब तक के लिए जब तक की शीर्ष अदालत उनकी सजा रद्द न कर दे. तब तक (2024 तक) न तो वे चुनाव लड़ सकते हैं और न ही कोई सरकारी लाभ उठा सकते थे. उनके परिवार से केवल उनकी बड़ी बेटी मीसा 2014 के लोकसभा चुनाव में खड़ी हुई, लेकिन लालू के पूर्व सहयोगी रामकृपाल यादव से हार गई. उनके दोनों बेटे तेजस्वी और तेजप्रताप भी अपने पिता के छीने गए ताज का उत्तराधिकार संभालने के उतने ही इच्छुक हैं, लेकिन उस समय दोनों में से किसी की भी उम्र चुनाव लड़ने लायक नहीं हुई थी, और न ही दोनों ने ऐसा कोई संकेत दिया था कि राजनीति करने लायक उनके पास पिता के समान बुद्धि है. उनकी पार्टी सिमटती जा रही थी और उनके परिवार की मांग बढ़ती जा रही थीं. इस बीच नीतीश ने अपने परिवार को राजनीति से दूर रखा था, लेकिन वे अपने ही खोदे गड्ढे में फंस चुके थे.

घबराए नीतीश ने छोड़ दी सीएम की कुर्सी

दूसरी तरफ नीतीश कुमार साल 2013 में मोदी के मामले पर भाजपा से हुई तकरार के बाद मुख्यमंत्री के रूप में वे अपने कामकाज पर ध्यान नहीं दे पाए. वह मोदी लहर से इतने घबरा गए कि अचानक उनकी चिंता शासन नहीं, बल्कि सत्ता बचाने की हो गई थी. करीब दो दशक के साथी (एनडीए) के हमले के कारण उन्हें रक्षात्मक होना पड़ गया. प्रशासन का कार्य पीछे छूट गया और उनका ध्यान सियासी जोड़-तोड़ में लग गया. फिर 2014 लोकसभा चुनाव में मोदी से मिली करारी हार ने नीतीश और लालू दोनों को हिलाकर रख दिया था. उन्होंने मुख्यमंत्री का पद छोड़ दिया और अपनी मंडली से दलित जीतनराम मांझी को निकालकर मुख्यमंत्री बना दिया. वह जनता की निगाह से हट गए. खामोश रहकर वे अपनी चोट सहलाने लगे. जब वे पार्टी के लोगों को चापलूसी के जरिए मुख्यमंत्री के रूप में लौटे तो उन्हें मांझी साहब से मुकाबला करना पड़ा, जिनके अंदर तब तक सता की भूख जाग चुकी थी और तब तक एक और लड़ाई सिर पर आ चुकी थी.

आठ साल तक आसानी से सरकार चलाने और बिहारियों के मन में बदलाव की उम्मीद जगाने वाले गठबंधन को तोड़कर क्या उन्होंने कोई गलती की थी? क्या नीतीश ने नरेंद्र मोदी से अपनी निजी खुन्नस के चलते बिहार के हितों की बलि चढ़ा दी थी? क्या उन्होंने अपना राजनीतिक भविष्य खतरे में डाल दिया था? भाजपा से गठबंधन तोड़कर नीतीश ने नुकसान उठाया, लेकिन ऐसा नहीं लगा, जब उन्होंने यह कदम उठाया तो वे इसके परिणाम से बेखबर थे. वे नरेंद्र मोदी के हाव-भाव और राजनीति देख रहे थे, जो कि उनकी अपनी शैली से एकदम विपरीत थी, और दोनों में से कुछ भी समान नहीं था.

लालू विरोधी नीतीश, उन्हीं करीब बने रहे, कैसे?

नीतीश कुमार के हिसाब से मोदी ऐसे विभाजनकारी और सांप्रदायिक नेता थे, जिनके सिद्धांत समभाव वाले भारत के खिलाफ थे. वहीं, मोदी लालू यादव के एकदम विपरीत थे और यही कारण रहा कि नीतीश अपने अधिकतर समय जिनसे लड़ते रहे, जिनकी राजनीति और शासन की पहचान लालू विरोध की रही, वही, लालू अब उनके लिए अधिक स्वीकार्य हो चुके थे.

फिर, क्या था? परदे के पीछे से दोनों के बीच बातचीत का दौर चला, बिहार विधानसभा चुनाव में दोनों एक-दूसरे के हो गए. महागठबंधन के तहत जेडीयू, राजद, कांग्रेस, सभी वामपंथी पार्टियां व अन्य दल एक साथ चुनाव लड़े. इस बीच 'बिहार का डीएनए खराब है' वाले बयान पर सियासी बवाल मचा और महागठबंधन खासकर लालू यादव ने उनके इस बयान को लपक लिया. परिणाम भी वही आया, जो तय था. महागठबंधन की जीत हुई. जो लालू यादव, नीतीश को कहा करते वो बीजेपी का पालतू है, उसी को सीएम मान लिया. नीतीश कुमार 2015 सीएम बने. लालू ने तेजस्वी यादव को पहली बार डिप्टी सीएम बना दिया. साथ ही तेजप्रताप को भी मंत्री का दर्जा मिला. बीजेपी से नीतीश अलग हो गए और लालू सत्ता में आ गए.

फिर लालू परिवार के निशाने पर बीजेपी

एक बार फिर बिहार विधानसभा का चुनाव एक महीने बाद होना है. इस बार भी माहौल वही है. नीतीश बीजेपी के साथ हैं, पर उसी से सशंकित भी हैं. दूसरी तरफ लालू यादव इस बार भी चुनाव नहीं लड़ सकते. तेजस्वी यादव अब बिहार के नेता स्थापित हो चुके हैं, लेकिन चुनाव कौन जीतेगा यह अभी तय नहीं है. लालू परिवार के सदस्यों के बीच मतभेद घर की चारदीवारी से सड़क पर आ चुका है. बीजेपी के नेता भी इसी उधेड़बुन में हैं कि कहीं चुनाव बाद नीतीश फिर लालू साथ गठबंधन न कर लें. लालू और तेजस्वी यादव भी इस संभावना को देखते हुए अपने घर का सियासी दरवाजा खोले हुए हैं. ऐसा इसलिए कि तेजस्वी यादव ने हाल ही में महागठबंधन दलों की बैठक में कहा था कि नीतीश कुमार पर कोई सीधा हमला नहीं बोलेगा. हमारे निशाने पर बीजेपी होना चाहिए.

फिलहाल, सभी की निगाहें इस पर है कि इस बार बिहार में क्या खेला होगा? नीतीश एनडीए के साथ रहेंगे, या फिर पहले की तरह चुनाव बाद सुरक्षित राह की तलाश में लालू यादव का हाथ थाम लेंगे. यहां सवाल फिर वही है, लालू भी पहले की तरह गिला शिकवा भुलाकर मोदी विरोध के चलते, उन्हें स्वीकार कर लेंगे? इसका पता तो विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद ही चलेगा.

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