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15 साल तक सत्ता पर काबिज रहे लालू को नीतीश ने कैसे किया बेदखल? फिर RJD के जनाधार को ऐसे किया काबू

Nitish Kumar Vs Lalu Yadav: लालू यादव 1990 से लेकर 2005 तक बिहार में न केवल सबसे ताकतवर नेता बने रहे बल्कि वहां की सत्ता पर भी काबिज रहे. अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने भूरा बाल साफ करो" (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लाला) नारे के सहारे सामाजिक और सियासी समीकरण मजबूत किया. आजादी के बाद पहली बार प्रदेश की राजनीति में सवर्णों के वर्चस्व को समाप्त कर दिया. इस दौरान कुछ ऐसी घटनाएं घटी और घोटाले सामने आए, जिसका लाभ उठाकर नीतीश कुमार ने उन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया.

15 साल तक सत्ता पर काबिज रहे लालू को नीतीश ने कैसे किया बेदखल? फिर RJD के जनाधार को ऐसे किया काबू
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Nitish Kumar Politics: बिहार में लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी करीब 15 साल तक सत्ता पर काबिज रहीं. 2005 आते-आते तस्वीर बदल गई. प्रदेश की जनता में लालू की अति जातिवादी और विकास विरोधी की छवि बनी. उनकी इस कमजोरी को धार देते हुए नीतीश कुमार ने न केवल लालू को जातिवादी सत्ता की राजनीति से बेदखल किया बल्कि धीरे-धीरे उनके कोर वोट बैंक पर भी दो दशक के दौरान कब्जा जमा लिया. तेजस्वी यादव ने लालू की पहचान को साइडलाइन कर बहुत हद तक अपने पिता की छवि से बाहर निकलने की कोशिश की, इस प्रयास में वह बहुत हद तक सफल रहे, लेकिन लालू यादव का जेल से बाहर आते ही आरजेडी ने फिर एमवाई (मुस्लिम-यादव) की राजनीति का एलान कर दिया. जबकि बिहारी जनमानस का नैरेटिव बहुत हद तक बदल गया है, जिसे चरवाहा विद्यालय के नायक समझ नहीं पा रहे हैं. आइए, जानते हैं सुशासन और विकास विरोधी राजनीति के इस दौर में लालू और नीतीश में किसका पलड़ा भारी है.

दरअसल, लालू यादव ने 1990 में मंडल कमीशन की राजनीति और "MY समीकरण" (मुस्लिम-यादव), भ्रष्टाचार और क्राइम के दम पर सत्ता पर कब्जा जमाया था. यादव, मुसलमान और दलितों का मजबूत वोट बैंक उनके लिए आधार बना. यही वजह है कि 2005 तक बिहार में लालू और राबड़ी देवी के नेतृत्व में आरजेडी सत्ता में रही.

जाति विशेष का नेता नहीं बने नीतीश

मृत्युंजय शर्मा की पुस्तक 'ब्रोकन प्रोमिसेज' के मुताबिक, 'नीतीश कुमार जेपी आंदोलन से लेकर लालू सरकार में मंत्री रहकर इस बात को जानते थे कि 'सीएम' बने रहना है तो कुर्मी जाति के साथ उन्हें अन्य जाति और समुदायों के लोगों को अपने साथ जोड़ना होगा. यानी वे किसी एक विशेष समुदाय या जाति के नेता के रूप में पहचान नहीं बनाना चाहते थे. हालांकि, नीतीश के सत्ता में आने के साथ कुर्मियों ने लालू राज के मुसलमान और यादवों की तरह उत्पात मचाना शुरू किया था, लेकिन नीतीश कुमार ने इस ट्रेंड को शुरुआती चरण में ही कुचल दिया था.'

इसका उदाहरण उस समय देखने को मिला जब मार्च 2006 में होली से ठीक एक दिन पहले पांच रुपये के विवाद में एक कुर्मी व्यक्ति ने एक मुस्लिम विक्रेता को गोली मार दी. यह घटना नालंदा में हुई, जो कुर्मियों का गढ़ और नीतीश का गृह जिला है. यह नीतीश सरकार के लिए एक अग्निपरीक्षा थी. नीतीश ने हिम्मत दिखाते हुए अपनी ही जाति के आरोपियों के खिलाफ तुरंत कार्रवाई की. अपराधी को पकड़ लिया और छह महीने के भीतर उसे दोषी करार दे दिया.

बिहार में कानून व्यवस्था ठीक करने का दूसरा उदाहरण उस समय सामने आया जब नालंदा के चंडी गांव में नाई जाति का शख्स मुखिया चुन लिया गया. इस घटना को कुर्मी जाति के प्रभावी लोग हजम नहीं कर पाए. शिक्षा समिति (ग्राम शिक्षा परिषद) की बैठक में मुखिया कुर्सी पर बैठ गए. कुर्सी एक होने के कारण अन्य सदस्यों को नीचे बैठना पड़ा. इसके कुछ दिनों बाद ही मुखिया की हत्या हो गई. नीतीश सरकार ने इस मामले में भी बड़े दिल का परिचय देते हुए हत्या के तीन महीने के भीतर आरोपियों को आजीवन कारावास की सजा दिलाने का हर संभव प्रयास किया. इन घटनाओं ने नीतीश की विश्वसनीयता को बढ़ाने में मदद की. इसके अलावा, जेडीयू प्रमुख धार्मिक विवादों से खुद को हमेशा दूर बनाए रखा.

मृत्युंजय शर्मा अपनी पुस्तक में लिखते हैं, 'नीतीश कुमार ने लालू द्वारा तैयार किए गए मुस्लिम, यादव और दलित के जातीय गठजोड़ को तोड़ने के लिए आरक्षण के ओबीसी श्रेणी में से कमजोर तबकों की अति पिछड़े वर्ग की पहचान की. इसके लिए आयोग का गठन किया. आयोग ने सरकारी लाभों के बेहतर लक्ष्यीकरण के लिए ओबीसी और अनुसूचित जाति वर्ग में आगे वर्गीकरण की सिफारिश की. इस पर अमल करते हुए अति पिछड़ों को आरक्षण का लाभ दिलाने का काम किया.

मुसलमानों के 80 फीसदी वोट पर ऐसे किया कब्जा

बिहार के मुसलमान नीतीश कुमार को धर्मनिरपेक्ष नेता मानने लगे थे. भाजपा के साथ गठबंधन को मुस्लिम केवल एक प्रशासनिक गठबंधन मानते हैं, न कि एक वैचारिक गठबंधन. अल्पसंख्यक वोट बैंक को साधने के लिए उन्होंने सचिव के रूप में अमानुल्लाह की नियुक्ति की. इससे मुसलमानों में बड़ा संदेश गया, जिसका लाभ जेडीयू को मिला. इसी तरह उन्होंने भागलपुर हिंसा मामले में नागरिक आयोग का गठन कर सभी आरोपियों को सजा दिलाने का काम किया. जबकि लालू प्रसाद के प्रशासन में यह मामला इतने लंबे समय तक लटका रहा. नीतीश ने संसद में दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिए जाने का मुद्दा भी उठाया, जिससे उन्हें पसमांदा मुसलमानों का विश्वास हासिल हुआ. पसमांदा मुसलमान बिहार में मुस्लिम वोटों का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा हैं.

बिहारी गौरव पर जोर

जिस बिहारी अस्मिता की बात एलजेपीआर चिराग पासवान अब करते हैं, उस मुद्दे को नीतीश नीतीश पहले उठा चुके थे. लोगों को बिहारी होने का गर्व कराने के लिए और बिहारी पहचान का जश्न मनाने के लिए 2010 में बिहार दिवस का आयोजन शुरू किया. उन्होंने 'सुशासन बाबू' की छवि गढ़ी और 'जंगलराज' के खिलाफ जनता को अपने पक्ष में खड़ा कर कई कदम उठाए.

महादलित कार्ड

एससी श्रेणी में आरक्षण में सबसे कमजोर और गरीब जातियों को दिलाने के लिए नीतीश सरकार ने महादलित आयोग का गठन 2006 में किया. अनुसूचित जाति वर्ग में मौजूदा 22 उप-जातियों में से नाई, धोबी, मल्लाह, कुर्मी, कुशवाहा, तेली, कहार सहित 21 की पहचान महादलित के रूप में की. इससे नाई, धोबी, मल्लाह, कुर्मी, कुशवाहा, तेली, कहार जैसी जातियां सीधे JDU की तरफ झुक गईं.

महिला वोट बैंक का निर्माण

पंचायत चुनाव में 50% महिला आरक्षण लागू कर दिया. इससे गांव-गांव में महिला नेत्रियों की नई फौज तैयार हुई. साथ ही, स्कूलों में साइकिल योजना, पोशाक योजना, और कन्या उत्थान योजना ने महिला व युवा वोटरों को RJD से खींच लिया. शराबबंदी लागू करना इस दिशा में नीतीश कुमार का सबसे बड़ा कदम माना जाता है. इस फैसले ने नीतीश के लिए न केवल नए वोट बैंक खड़े किए बल्कि लालू के परंपरागत वोटरों को भी अपनी ओर मोड़ लिया.

पसमांदा मुसलमानों पर फोकस

लालू का मुस्लिम वोट बैंक ज्यादातर अशराफ और सामान्य मुसलमानों पर टिका था. नीतीश ने पसमांदा (गरीब और पिछड़े मुसलमान) तबकों को साधने के लिए विशेष योजनाएं शुरू की. जैसे छात्रवृत्ति, नौकरी में प्राथमिकता और कौशल विकास योजनाएं. इस रणनीति से मुस्लिम वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा धीरे-धीरे RJD से छिटककर JDU की ओर आया. मुस्लिम वोटों का खिसकना

जनाधार पर कब्जे की बड़ी योजनाएं

इसके अलावा, जनाधार को मजबूत करने के लिए सड़क, बिजली, कानून व्यवस्था के क्षेत्र में सुधार कार्यक्रमों को लागू कर लालू के 'जंगलराज' बनाम नीतीश के 'सुशासन बाबू' की छवि बनाई. कुल मिलाकर सुशासन बाबू ने एक के बाद एक योजनाओं पर काम कर सवर्ण और पिछड़ा, हिंदू-मुसलमान, अमीर-गरीब, पिछड़ा-अति पिछड़ा और अशरफ-पसमांदा के बीच तालमेल बनाते हुए खुद की राजनीति को धार दिया. नतीजा यह हुआ कि 2005 से नीतीश ने सत्ता की कमान अपने हाथ में ले ली और RJD का पारंपरिक वोट बैंक धीरे-धीरे बिखर गया. 2005 के बाद से बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार का ग्राफ लगातार बढ़ता गया और लालू की पकड़ ढीली पड़ती चली गई. यही वजह है कि स्वास्थ्य समस्या और ज्यादा उम्र होने के बावजूद बिहार के मतदाताओं में उनके प्रति सहानुभूति अब भी उनके प्रति बरकरार है.

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