लालू की बड़ी आशंका साबित हुई सच! 2001 का पंचायत चुनाव कराना आरजेडी के लिए क्यों बना सियासी संकट?
बिहार में 23 साल बाद 2001 में हुए पंचायत चुनाव से आरजेडी के शासन में पहली बार गांव-गांव तक सत्ता का विकेंद्रीकरण हुआ. दलित-पिछड़े वर्गों के साथ महिलाओं को भी आरक्षण मिला. लेकिन यही चुनाव लालू की पकड़ कमजोर करने वाले साबित हुए.लालू प्रसाद यादव की सबसे बड़ी राजनीतिक चिंता को सच साबित कर दिया. इस चुनाव ने 2005 में आरजेडी को सत्ता से बेदखल करने की पृष्ठभूमि तैयार की.

बिहार का पंचायत चुनाव 2001 केवल स्थानीय निकाय का चुनाव नहीं था, बल्कि यह उस दौर का सबसे बड़ा राजनीतिक 'टर्निंग प्वॉइंट' भी साबित हुआ. 23 साल बाद जब गांव-गांव में लोकतंत्र की नई बयार बही, तो इसने लालू प्रसाद यादव की राजनीति की नींव हिला दी. लालू सत्ता से बेदखल हो गए. लालू को इस चुनाव से जो डर था वो 2005 में सच साबित हुई. उसके बाद जो आरजेडी को जातीय कुनबा बिखरा, वो अभी तक एकजुट नहीं हो पाया.
24 साल पहले हुए पंचायत चुनाव का इतिहास
पुस्तक 'ब्रोकन प्रॉमिसेज' के लेखक मृत्युंजय सिंह लिखा है, 'बिहार में 1978 में हुए चुनाव के 23 साल बाद पहली बार 2001 पंचायत चुनाव कराए गए थे. उस समय लालू यादव की पत्नी राबड़ी देवी बिहार की सीएम थीं. लालू यादव पहले की तरह पंचायत चुनाव नहीं कराना चाहते थे, लेकिन पटना हाईकोर्ट और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा सख्त रुख अख्तियार करने के बाद उन्हें चुनाव कराना पड़ा था.
लालू चुनाव कराने के लिए क्यों हुए विवश?
लालू यादव पंचायत चुनाव कराने के लिए इसलिए विवश होना पड़ा कि 1993 में 73वां संविधान संशोधन लागू हुआ था, जिसने पंचायतों को संवैधानिक दर्जा दिया और महिलाओं, दलितों, पिछड़ों को आरक्षण दिया. लालू सरकार ने 1990 के बाद कई बार पंचायत चुनाव टाल दिए, कारण था जातीय समीकरण और सत्ता के बिखराव का डर. आखिरकार पटना हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद 2001 में पंचायत चुनाव कराना पड़ा.
आरजेडी प्रमुख की आशंका क्या थी?
पंचायत चुनाव कराने से जातीय राजनीति कमजोर होगी.आरक्षण व्यवस्था से गांव-गांव में दलित, महादलित, पिछड़े और महिलाएं नेतृत्व में आएंगे, जिससे पारंपरिक यादव-केंद्रित सत्ता समीकरण टूटेगा. बिहार के गांवों में सत्ता का विकेंद्रीकरण होगा. स्थानीय स्तर पर नेताओं का उदय होगा. फिर वही लोग भविष्य में विधानसभा और संसद के लिए चुनौती बन सकते हैं. लालू यादव यह भी जानते थे कि पंचायत चुनाव जातीय और आपराधिक हिंसा को जन्म देंगे, जिससे उनकी सरकार की "जंगलराज" छवि और गहरी होगी.
2001 पंचायत चुनाव में क्या हुआ?
यह चुनाव 10 चरणों में हुआ और भारी हिंसा, बूथ कैप्चरिंग और खून-खराबे से गुजरकर सम्पन्न हुआ. हजारों गांवों में निचली जातियों और महिलाओं ने पहली बार सत्ता में हिस्सेदारी ली. यादव, भूमिहार, राजपूत जैसी प्रभुत्वशाली जातियों का वर्चस्व टूटा. चुनाव में 50% महिलाएं और हजारों दलित चुनाव जीतकर स्थानीय स्तर पर जनप्रतिनिधि बने.
पंचायत चुनाव के बाद बिगड़ा जातीय गोलबंदी
साल 2001 में चुनाव में बाद वहां का जातीय समीकरण बिगड़ गया. लालू की MY (मुस्लिम-यादव) सोशल इंजीनियरिंग कमजोर पड़ गया और उन्हें चुनौती देने लगे. 23 बाद हुए पंचायत चुनाव से कई स्थानीय नेता उभरकर सामने आए. वहीं नेता बाद में विधानसभा और लोकसभा में लालू-राबड़ी की सत्ता को चुनौती देने लगे. दलित और महादलित धीरे-धीरे रामविलास पासवान और बाद में नीतीश कुमार की ओर झुक गए.
लालू के राज का नाम पड़ गया 'जंगलराज'
बिहार पंचायत चुनाव के दौरान बड़े पैमाने पर हिंसक घटनाएं और 129 लोगों की मौत हुई थी. सैकड़ों लोग घायल हुए. कुल पंचायतों की संख्या 8,500 से अधिक पर चुनाव हुए. ग्राम पंचायतों में मुखिया, पंच, सदस्य पंचायत समिति, जिला परिषद को मिलाकर कुल लगभग 2.62 लाख प्रतिनितध चुने गए थे. इनमें 50% सीटें महिलाओं, पिछड़ों, अति पिछड़ों और अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए आरक्षित थीं. यह उस दौर का देश का सबसे बड़ा पंचायत चुनाव माना गया था. हिंसा और अराजकता के बीच हुए चुनाव और हिंसा की खबरों ने बिहार की 'जंगलराज' छवि को और मजबूत किया, जिससे जनता बदलाव चाहने लगी. लालू यादव परेशान हो उठे. उन्होंने जातीय समीकरण को साधने की कोशिश की पर उसमें सफल नहीं रहे.
सत्ता परिवर्तन की बयार
साल 2001 पंचायत चुनाव ने ही नीतीश कुमार के लिए जमीन तैयार कर दी थी. लालू की आशंका के मुताबिक ग्रामीण सत्ता में हुए बदलाव ने 2005 के विधानसभा चुनाव में असर दिखाया. जनता दल यूनाइटेड और बीजेपी गठबंधन को जनता ने मौका दिया. लालू-राबड़ी का 15 साल का राज खत्म हुआ. और नीतीश कुमार बीजेपी के सहयोग से सीएम बन गए. उसके बाद से पिछले दो दशक के दौरान लालू यादव वापसी के लिए कई तरह के जतन किए, लेकिन वो सत्ता पर काबिज नहीं हो सके.
बिहार की राजनीति का 'टर्निंग प्वॉइंट'
इस लिहाज से देखें तो 2001 का पंचायत चुनाव केवल स्थानीय लोकतंत्र की बहाली नहीं था बल्कि यह लालू प्रसाद यादव की राजनीति के पतन की शुरुआत भी साबित हुआ. जिस आशंका से लालू इन चुनावों को टालते रहे, वह सच हुई. गांव-गांव में उभरे नए चेहरे, आरक्षण से बदला समीकरण और जातीय सत्ता का बिखराव ने बिहार की राजनीति का 'टर्निंग प्वाइंट' साबित हुआ और जंगलराज का अंत भी.