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किस्से नेताओं के : नीतीश का वो एहसान जिसे अब तक नहीं भूले लालू, ना ही भूल पाते हैं उनका बंदर की तरह…

Laloo Ke Kisse: नीतीश कुमार के एक एहसान को लालू यादव आज भी नहीं भूल पाए हैं. इसकी भी अपनी एक अजीब कहानी है. अगर इस हिस्से को छोड़ दें तो नीतीश कुमार का कोई वैचारिक आधार नहीं है. वह समाजवादी से वापमंथी बने और अब दक्षिणपंथियों के सागिर्द में रहकर सुशासन बाबू कहलाने का दंभ भरते हैं. जानिए, दोनों के बीच दोस्ती से दुश्मनी तक की पूरी कहानी.

किस्से नेताओं के : नीतीश का वो एहसान जिसे अब तक नहीं भूले लालू, ना ही भूल पाते हैं उनका बंदर की तरह…
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( Image Source:  ANI )

Laloo Kee Ankahee Kahanee: लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के बीच दोस्ती का यह किस्सा तब का है, जब नीतीश कुमार इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे. वह राजनीतिक गतिविधियों में रुचि लेने लगे थे. नलिन वर्मा की पुस्तक 'गोपालगंज से रायसीना - मेरी राजनीतिक यात्रा' में इसकी चर्चा डिटेल में है. पुस्तक के लेखक नलिन वर्मा ने लालू के हवाले से लिखा है, "नीतीश कुमार से पहली मुलाकात जेपी के आंदोलन के दिनों में हुई थी. समाजवादी सरोकार की लड़ाई में वह साथी कार्यकर्ता थे. उनसे हुई पहली मुलाकात मुझे बहुत याद नहीं है, क्योंकि वह तब इंजीनियरिंग कॉलेज में छात्र थे. जबकि मैं पूर्णकालिक राजनीतिक कार्यकर्ता बन चुका था."

पुस्तक के लेखक लालू यादव के हवाले से लिखा है कि, "जिस समय उनसे पहली बार मुलाकात हुई, उस समय, वह एक सामान्य और अनजान से व्यक्ति के रूप में नजर आए थे. जबकि मैं बिहार में समाजवादी आंदोलन का अग्रणी युवा चेहरा था, लेकिन मैं उनका इस मामले में ऋणी हूं कि जब कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद बिहार विधानसभा में, मैंने विपक्ष के नेता के रूप में अपना दावा पेश किया, तो उन्होंने मेरा समर्थन किया था. बाद में वह समय के साथ बदल गए. वैचारिक रूप से ढुलमुल हो गए."

बतौर लालू, पहले वह मेरे साथ थे, फिर मुझसे अलग हो गए. इसके बाद वह जॉर्ज फर्नांडीस के खेमे में चले गए. इसके बाद खबरें आई कि उनका अपने गुरु यानी जॉर्ज साहब के साथ भी रिश्ता अच्छा नहीं रहा. बाद में उन्होंने भाजपा से गठजोड़ कर लिया. कई साल तक साथ रहने के बाद उनसे भी किनारा कर लिया. उसके बाद उन्होंने हमारे साथ यानी आरजेडी के साथ गठबंधन कर लिया. कुछ समय बाद, उन्होंने इस गठबंधन को छोड़कर भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए में लौट गए.

भरोसेमंद न होने के शुरुआती संकेत

लालू यादव कहते हैं, 'नीतीश कुमार बंदर की तरह उछल कूद करते रहे. जनता दल से नाता तोड़ने के बाद जॉर्ज फर्नांडीस और नीतीश ने सबसे पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-एमएल से गठजोड़ किया, जो 1990-91 में खुले में आने से पहले तक भूमिगत रूप से काम करने वाला संगठन था. सीपीआई-एमएल के महासचिव विनोद मिश्रा समर्पित जन नेता थे. उन्होंने जमींदारों और सामंती ताकतों के खिलाफ गरीबों और दबे कुचले लोगों को संगठित किया था.

उस समय जॉर्ज और नीतीश ने वामपंथी राजनीति की ओर झुकाव दिखाया. 1995 में सीपीआईएमएल लिबरेशन के साथ गठजोड़ किया, लेकिन 1995 के चुनाव में समता पार्टी की हमारे हाथों बुरी तरह पराजित हुई. उसके बाद जॉर्ज और नीतीश ने नक्सल संगठनों से भी नाता तोड़ लिया और कार सेवकों द्वारा किए गए बाबरी मस्जिद के विध्वंस के महज तीन साल बाद ही भाजपा का दामन थाम लिया. नीतीश ने वामपंथ से दक्षिण पंथ की ओर पलटी मारते हुए, भाजपा के खेमे में चले गए. भाजपा के पास उस समय महाराष्ट्र की शिवसेना के अलावा कोई और सहयोगी नहीं था. यह नीतीश का राजनीतिक रूप से बिल्कुल भरोसेमंद न होने का शुरुआती संकेत था.

मोदी और आडवाणी से इसलिए बढ़ाई नजदीकी

नीतीश और जॉर्ज के लिए सिर्फ भाजपा का सहयोगी बनना ही पर्याप्त नहीं था. वह अपने राजनीतिक एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए पूरी तरह दक्षिणपंथी खेमे से जुड़ गए. उन दिनों आडवाणी भाजपा की अगुवाई कर रहे थे. जॉर्ज और नीतीश ने आडवाणी के साथ करीबी बढ़ाई. उसके बाद में नीतीश नरेंद्र मोदी के करीबी हो गए. जबकि मोदी आडवाणी के दाएं हाथ के रूप में उभर रहे थे और आडवाणी के ताकत थे. आडवाणी ने बाद में मोदी की मदद से गांधीनगर लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ा.

खबरें बताती हैं कि मोदी ने आडवाणी को गुजरात से लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए राजी किया था. मोदी ने गुजरात के सोमनाथ से निकाली गई राम मंदिर रथ यात्रा में आडवाणी के लिए केंद्रीय भूमिका निभाई थी. आडवाणी मोदी के काम से इतना प्रभावित हुए हुए कि उन्होंने राम रथ यात्रा के गुजरात में प्रवास करते हुए मोदी को भी अपने साथ ले लिया.

कई बार कर चुके हैं मोदी की तारीफ

कुछ समय बाद यानी 2002 के गोधरा दंगों के बाद जब मोदी पर गुजरात का मुख्यमंत्री पद छोड़ने का भारी दबाव था, तब आडवाणी ने ही मोदी को बचाया था. वाजपेयी चाहते थे कि मोदी को हिंसा की जानकारी मिलते ही सीएम पद छोड़ देना चाहिए था, लेकिन आडवाणी अड़े रहे. यह भी गौर करने लायक है कि धर्मनिरपेक्षता के अपने तमाम दावों के बावजूद नीतीश ने गुजरात में हुए दंगों के बारे में एक शब्द भी कुछ नहीं बोला. इसके बजाय, 2003 में नीतीश गुजरात गए और वहां उन्होंने मोदी के कामकाज की तारीफ की. यहां तक कि नीतीश कुमार ने मोदी से गुजरात से बाहर निकलने और देश की सेवा करने का आग्रह किया.

मेरा कद कम करना चाहते थे नीतीश

यह कोई छिपी बात नहीं है कि वाजपेयी सरकार में रेल मंत्री नीतीश, एनडीए खेमे में मुख्यमंत्री मोदी के सबसे बड़े प्रशंसक थे. यही वजह है कि नीतीश और मोदी अच्छे दोस्त बन गए. कुल मिलाकर मोदी की नजर में वह आडवाणी जैसे लोगों के साथ ही थे और यह सुनिश्चित किया कि वह मुख्यमंत्री बने रहें.

मैं, तो उनका मुख्य विरोधी था. नीतीश बिहार में मेरा कद कम करना चाहते थे. भले ही इसके लिए उन्हें सिद्धांत के मामले में भारी समझौते करने पड़े. ऐसे में, उनसे यह उम्मीद करना बेकार था कि वह गुजरात की हिंसा के बारे में कुछ बोलेंगे. इसके अलावा, 1999 में रेल मंत्री बनने के बाद नीतीश के भाजपा के कट्टरपंथियों से नाता जोड़ लिया था. उन्होंने अरुण जेटली से भी दोस्ती गांठ ली, जो कि आडवाणी खेमे के खास आदमी से और 2004-05 में भाजपा के बिहार प्रभारी थे. नीतीश और उनके समर्थकों ने जो वफादारी दिखाई थी.

आडवाणी ने घोषित किया था CM फेस

इसके एवज में आडवाणी ने 2005 के विधानसभा चुनाव से पहले उन्हें एनडीए का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया. वाजपेयी ने भी बिहार में भाजपा के लिए प्रचार किया. मगर, उन्होंने कभी नीतीश को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया. दरअसल, उदारवादी स्वभाव के नेता वाजपेयी को न तो नीतीश पसंद थे, न ही उनके मित्र नरेंद्र मोदी.

मोदी नीतीश की दोस्ती में खटास उस समय आ गई, जब मोदी ने संघ परिवार में अपनी स्थिति मजबूत की और उनमें प्रधानमंत्री बने की आकांक्षा जाग गई. हर चीज में फायदा देखने वाले और एक भी मौका न गंवाने वाले, नीतीश ने भाजपा के भीतर मोदी आडवाणी के संघर्ष का फायदा उठाना चाहा. उन्होंने पीएम बनने की अपनी महत्वाकांक्षा को इसलिए तराशना शुरू किया कि मोदी की उम्मीदवारी को रोकने के लिए आडवाणी उनका समर्थन करेंगे.

खुद को कहलवाया 'सुशासन बाबू'

कहा जा रहा था कि आडवाणी अपनी पार्टी में आरएसएस के पूरे समर्थन के साथ मोदी के पक्ष में अचानक उभरी लहर से परेशान हो गए थे. एक चर्चा थी कि आडवाणी खेमा मोदी के उभार को किसी भी तरह कसे रोकना चाहता है और बुजुर्ग नेता के आशीर्वाद से सहयोगी दलों में से किसी उम्मीदवार को प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन दे सकते हैं. इस बात को ध्यान में रखते हुए नीतीश कुमार ने खुद को विकास पुरुष कहलवाना शुरू कर दिया. ताकि जरूरत पड़ने पर प्रधानमंत्री बन जाएं. वैसे भी, नीतीश ने आरएसएस को बिहार में पूरी छूट देकर खुश कर रखा था. इस काम में आरएसएस ने उनका साथ भी दिया. भाजपा खेमे मे सुशील मोदी से उनके अच्छे संबंध थे और वो नंबर दो थे. लेकिन वो मोदी के खिलाफ वैचारिक आधार पर कभी दावा पेश ही नहीं कर कर पाए. इसके बावजूद मोदी से दोस्ती बनी रही.

2017 में दूसरी बार छोड़ दिया मेरा साथ

वह 2009 की रैली में एनडीए की चंडीगढ़ रैली में भी शामिल हुए. 2010 के बाद मोदी से उनकी दूरी तब बढ़ी जब उन्होंने मोदी के विज्ञापन को खुद के लिए चैलेंज मानते हुए दूरी बना ली. 2015 में भाजपा का साथ छोड़कर महागठबंधन के साथ चुनाव लड़ा और मैंने उन्हें सीएम बनाया, लेकिन अति महत्वाकांक्षा के चक्कर में उन्होंने 2017 में फिर मेरा साथ छोड़ दिया. 2020 में बीजेपी के सहयोग से सीएम बने. जब बीजेपी ने अपना सीएम बनाने की मांग की तो नीतीश ने फिर आरजेडी से दोस्ती गांठ ली. लोकसभा चुनाव से पहले फिर एनडीए में वापस चले गए. नीतीश की यही पहचान है. उनकी कोई वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है, इसलिए वह इधर से उधर हिलते डुलते रहते हैं.

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