बैटल ऑफ द बेगम्स- 4 दशक, 2 ताकतवर महिलाएं और 1 देश! कहानी खून, विश्वासघात और विरासत से जन्मी दुश्मनी की

चार दशकों तक बांग्लादेश की राजनीति दो ताकतवर महिलाओं - शेख हसीना और खालिदा जिया - की निजी और वैचारिक दुश्मनी के इर्द-गिर्द घूमती रही. इंडिया टुडे की रिपोर्ट के अनुसार 971 के बाद हुए सैन्य तख्तापलट, हत्याओं और सत्ता संघर्षों से जन्मी यह लड़ाई चुनावी मुकाबले से आगे बढ़कर राज्य संस्थानों, सड़कों और लोकतांत्रिक प्रक्रिया तक फैल गई.;

Edited By :  प्रवीण सिंह
Updated On : 30 Dec 2025 11:35 AM IST

चार दशकों से ज्यादा समय तक बांग्लादेश की राजनीति किसी नीति, विचारधारा या विकास मॉडल से नहीं, बल्कि दो महिलाओं की कट्टर निजी दुश्मनी से संचालित होती रही - शेख हसीना और खालिदा जिया. इस टकराव को दुनिया ने ‘बैटल ऑफ द बेगम्स’ के नाम से जाना, लेकिन यह सिर्फ चुनावी प्रतिद्वंद्विता नहीं थी. यह लड़ाई सत्ता की थी, बदले की थी, और उस इतिहास की थी जिसने बांग्लादेश को आज जैसा बना दिया.

स्‍टेट मिरर अब WhatsApp पर भी, सब्‍सक्राइब करने के लिए क्लिक करें

मंगलवार को 80 वर्ष की उम्र में खालिदा जिया के निधन के साथ ही बांग्लादेश के एक युग का अंत हो गया. एक ऐसा युग, जिसमें लोकतंत्र अक्सर बंधक बना, संसद ठप रही, सड़कें रणभूमि बनीं और शासन व्यवस्था व्यक्तिगत दुश्मनी की भेंट चढ़ती रही.

खून, विश्वासघात और सत्ता की विरासत से जन्मी दुश्मनी

इस ऐतिहासिक टकराव की जड़ें 1971 में बने बांग्लादेश के शुरुआती, बेहद हिंसक वर्षों में हैं. शेख हसीना, बांग्लादेश के संस्थापक और पहले राष्ट्रपति शेख मुजीबुर रहमान की बेटी हैं. 1971 में पाकिस्तान से आज़ादी दिलाने वाले मुजीब राष्ट्रपिता बने, लेकिन 1975 में एक सैन्य तख्तापलट में उनकी और उनके परिवार के ज्यादातर सदस्यों की निर्मम हत्या कर दी गई. हसीना उस वक्त देश से बाहर थीं, और वही उनकी जान बचने की वजह बनी. इसके बाद उन्होंने लंबा निर्वासन झेला.

दूसरी तरफ, खालिदा जिया की राजनीतिक पहचान भी एक हत्या से ही बनी. उनके पति जियाउर रहमान, सेना के जनरल थे, जिन्होंने 1975 के बाद की अराजकता में सत्ता हासिल की और राष्ट्रपति बने. जिया ने बांग्लादेशी राष्ट्रवाद को एक अलग दिशा दी - जहां इस्लामिक पहचान को प्रमुखता दी गई और मुजीब के धर्मनिरपेक्ष विचारों से दूरी बनाई गई.

1981 में जियाउर रहमान की भी एक असफल सैन्य बगावत में हत्या कर दी गई, और यहीं से खालिदा जिया राजनीति में उतरीं-अपने पति की विरासत की संरक्षक और बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) की नेता के रूप में.

80 के दशक में एक दुर्लभ एकता

इतिहास का सबसे बड़ा विरोधाभास यह रहा कि कट्टर दुश्मनी के बावजूद, 1980 के दशक में दोनों बेगमों को एक ही मंच पर आना पड़ा. उस वक्त बांग्लादेश पर सैन्य शासक हुसैन मोहम्मद इरशाद का कब्जा था, जिन्होंने 1982 में तख्तापलट कर सत्ता संभाली थी. मार्शल लॉ, नियंत्रित चुनाव और दमनकारी शासन के खिलाफ देश उबल रहा था. शेख हसीना की अवामी लीग और खालिदा जिया की BNP अलग-अलग आंदोलनों के जरिए सड़कों पर थीं. हड़तालें, बंद, छात्र आंदोलन और हिंसक झड़पें आम हो चुकी थीं. इरशाद की सख्ती के बावजूद जनता का गुस्सा बढ़ता गया. आखिरकार 1989-90 में दोनों नेताओं को समझ आया कि इरशाद को हटाने के लिए एकजुट होना जरूरी है. निजी दुश्मनी को किनारे रखकर दोनों एक साझा मोर्चे में आईं. 1990 में जनांदोलन अपने चरम पर पहुंचा और 6 दिसंबर 1990 को इरशाद को इस्तीफा देना पड़ा. यही वह मोड़ था जिसने सैन्य शासन खत्म किया और केयरटेकर सरकार के तहत चुनाव का रास्ता खोला.

लोकतंत्र से निजी बदले तक

1990 के बाद जो आया, वह लोकतंत्र कम और व्यक्तिगत प्रतिशोध की राजनीति ज्यादा थी. 90 और 2000 के दशक में चुनाव जीवन-मरण की लड़ाई बन गए. संसद बार-बार ठप होती रही, विपक्ष बहिष्कार करता रहा और सड़कें हिंसा से भरती रहीं. जब खालिदा सत्ता में होतीं, तो हसीना पर भ्रष्टाचार, गिरफ्तारी और दबाव. जब हसीना सत्ता में होतीं, तो वही हथियार खालिदा के खिलाफ. राजनीति का मतलब नीतियों पर बहस नहीं, विरोधी को खत्म करना बन गया. नतीजा—लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर पड़ीं, चुनावों पर भरोसा टूटा और असहिष्णुता स्थायी हो गई.

केयरटेकर सिस्टम: लोकतंत्र की ढाल या युद्ध का मैदान

इस टकराव का सबसे बड़ा संस्थागत केंद्र बना केयरटेकर सरकार सिस्टम. इस व्यवस्था के तहत चुनाव से पहले सत्ता एक तटस्थ अंतरिम सरकार को सौंपी जाती थी. खालिदा जिया इसे निष्पक्ष चुनाव की गारंटी मानती रहीं. लेकिन सत्ता मजबूत करने के बाद शेख हसीना ने इसे असंवैधानिक बताते हुए 2011 में खत्म कर दिया. BNP ने इसे लोकतंत्र से विश्वासघात करार दिया. इसके बाद 2014 और 2018 के चुनाव - बहिष्कार, धांधली के आरोप और अंतरराष्ट्रीय आलोचना से घिरे रहे. राजनीतिक स्पेस और सिकुड़ता चला गया.

2007 की आपातकालीन गिरफ्तारी

2007 में सेना समर्थित केयरटेकर सरकार ने आपातकाल लगाकर दोनों बेगमों को गिरफ्तार कर लिया. भ्रष्टाचार और उगाही के आरोप लगे. एक साल बाद राजनीतिक दबाव में रिहाई हुई, लेकिन यह साफ हो गया कि सत्ता तंत्र अब दोनों के खिलाफ भी इस्तेमाल हो सकता है.

एकतरफा सत्ता का दौर

2010 के बाद लड़ाई असमान हो गई. शेख हसीना बांग्लादेश की सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री बनीं. आर्थिक विकास, मेगा इंफ्रास्ट्रक्चर और स्थिरता आई, लेकिन आलोचकों ने सत्ता केंद्रीकरण, न्यायपालिका की कमजोरी, मीडिया पर दबाव और विपक्ष के दमन के आरोप लगाए. खालिदा जिया भ्रष्टाचार मामलों में जेल और फिर नजरबंदी में चली गईं. BNP नेतृत्वविहीन होती चली गई. 2018 में उनकी सबसे लंबी कैद ने उन्हें लगभग राजनीति से बाहर कर दिया.

Full View

2024: नाटकीय उलटफेर

अगस्त 2024 में शेख हसीना सरकार के पतन के बाद राजनीति ने एक और पलटी खाई. राष्ट्रपति के आदेश पर खालिदा जिया को तुरंत रिहा किया गया. एक-एक कर सारे मामलों में उन्हें राहत मिली. 2025 की शुरुआत तक सुप्रीम कोर्ट ने आखिरी भ्रष्टाचार केस से भी बरी कर दिया. BNP फिर से मुख्य विपक्षी शक्ति बनी. लंदन से इलाज के बाद खालिदा की वापसी और बेटे तारीक रहमान की राजनीतिक एंट्री को ‘पॉलिटिक्स ऑफ रिटर्न’ कहा गया.

एक युग का अंत

80 वर्ष की उम्र में खालिदा जिया का निधन ऐसे वक्त हुआ है, जब देश चुनाव की ओर बढ़ रहा है. उनकी मौत सिर्फ एक नेता का जाना नहीं, बल्कि उस राजनीति का अंत है जिसने बांग्लादेश को दशकों तक दो हिस्सों में बांट दिया. अब सवाल यह है कि क्या बांग्लादेश बेगमों की छाया से बाहर निकल पाएगा, या इतिहास किसी नए रूप में खुद को दोहराएगा?

Similar News