नीतीश कुमार के नए कैबिनेट गठन में जाति, क्षेत्र, सहयोगी दलों की मांग और वोट बैंक का कैसे बनेगा संतुलन?
बिहार में NDA की बड़ी जीत के बाद अब नीतीश कुमार के नए कैबिनेट गठन पर सभी की नजरें टिकी हैं. जातीय समीकरण, क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व, सहयोगी दलों का दबाव, वोट बैंक के इनाम और आने वाले चुनावों की रणनीति—इन पांचों बड़े फैक्टर पर इस बार मंत्रिमंडल तैयार होगा. रिपोर्ट के अनुसार सवर्ण, OBC, EBC, दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय की हिस्सेदारी से लेकर उत्तर–दक्षिण बिहार के बैलेंस तक, हर पहलू पर खास ध्यान दिया जाएगा. 20 नवंबर को होने वाले शपथ ग्रहण से पहले पढ़ें पूरा विश्लेषण.;
बिहार में एनडीए की ऐतिहासिक जीत के बाद अब फोकस इस बात पर टिक गया है कि नीतीश कुमार किस तरह एक नई राजनीतिक संरचना खड़ी करते हैं. यह सिर्फ मंत्रियों की सूची बनाने की औपचारिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि सत्ता, सामाजिक समीकरण, और आने वाले चुनावों के लिए मजबूत नींव रखने की रणनीतिक कवायद भी है. 20 नवंबर को 10वीं बार शपथ लेने वाले नीतीश के सामने इस बार चुनौतियाँ भी बड़ी हैं और उम्मीदें भी.
क्योंकि बिहार जैसे सामाजिक रूप से जटिल राज्य में कैबिनेट गठन का मतलब केवल पद बाँटना नहीं होता, बल्कि हर जाति, क्षेत्र, वर्ग और सहयोगी दल को वह संदेश देना होता है जिसकी राजनीतिक जरूरत आने वाले वर्षों में सबसे ज्यादा रहेगी. यही कारण है कि इस बार का मंत्रिमंडल विस्तार सिर्फ सरकार का ढाँचा तय नहीं करेगा, बल्कि NDA की राजनीति की दिशा भी तय करेगा.
जातीय समीकरण का असली टेस्ट
बिहार की राजनीति में जाति का प्रभाव किसी से छुपा नहीं है. इसलिए कैबिनेट में वही जातीय प्रतिनिधित्व देना नीतीश के लिए मजबूरी भी है और रणनीति भी. राज्य की जनसंख्या के अनुपात से सवर्ण, यादव, ओबीसी, EBC, दलित, मुस्लिम और आदिवासी समूहों को हिस्सेदारी देने का दबाव रहेगा. हालांकि एनडीए के पास केवल एक मुस्लिम विधायक है, ऐसे में मुस्लिम प्रतिनिधित्व का सवाल इस बार सबसे पेचीदा मोड़ पर है.
NDA विधायकों का जातीय गणित
कैबिनेट गठन केवल जनसंख्या के अनुपात से नहीं चलेगा, बल्कि इस बात से भी तय होगा कि एनडीए के टिकट पर कौन-सी जाति के कितने विधायक जीते हैं. सवर्ण 36%, गैर यादव ओबीसी 21%, EBC 19% और दलित-आदिवासी 17% विधायक होने के कारण इन समूहों की आवाज़ ज्यादा बुलंद होगी. यादव और मुस्लिम प्रतिनिधित्व लगभग नाममात्र है, जिससे संतुलन बनाना और भी कठिन हो जाएगा.
वोट देने वालों को ‘पुरस्कार’ देने का फॉर्मूला
इस बार मंत्रिमंडल केवल सामाजिक समीकरण नहीं, बल्कि राजनीतिक आभार प्रकट करने का माध्यम भी होगा. VoteVibe के एग्जिट पोल ने साफ किया कि सवर्ण, दलित-आदिवासी, गैर-यादव ओबीसी और EBC समूहों ने NDA को भारी समर्थन दिया. स्वाभाविक है कि इन समुदायों को कैबिनेट में अधिक जगह देकर 2027 और 2029 के लिए संदेश दिया जाएगा कि “जो हमारे साथ खड़ा रहा, हम भी उसके साथ हैं.”
हर ज़ोन की आवाज़ ज़रूरी
बिहार का राजनीतिक भूगोल जातीय राजनीति जितना ही संवेदनशील है. नॉर्थ बिहार, साउथ बिहार, सीमांचल, तिरहुत, दरभंगा, मगध, कोसी—हर क्षेत्र अपनी उपस्थिति चाहता है. चूंकि NDA के 56% विधायक नॉर्थ बिहार से हैं, इसलिए वहाँ से ज्यादा चेहरों के आने की संभावना है, लेकिन साउथ बिहार की अनदेखी असंतोष पैदा कर सकती है. इस बैलेंस को बनाए रखना नीतीश कैबिनेट की बड़ी परीक्षा होगी.
सबको साथ रखना चुनौती
इस बार मंत्रिमंडल में बीजेपी, जेडीयू और LJP (रामविलास) के बीच सीट शेयरिंग सबसे बड़ा मुद्दा बनेगा. खासकर डिप्टी सीएम के पद पर LJP का दावा समीकरण और जटिल कर रहा है. एक तरफ सहयोगियों की अपेक्षाएं हैं, दूसरी तरफ कुल 36 मंत्रियों की सीमा—यह दबाव नीतीश की राजनीतिक कुशलता की असली परीक्षा लेगा.
महिलाओं और पिछड़े जिलों की हिस्सेदारी
भले ही राजनीतिक दल 50% महिला भागीदारी की बात करते हों, लेकिन NDA के पास केवल 12% महिला विधायक हैं. ऐसे में कैबिनेट में महिला प्रतिनिधित्व बढ़ाने की कसौटी आसान नहीं. इसी तरह, जो जिले और प्रशासनिक जोन विकास में पिछड़े माने जाते हैं, उनके लिए बराबर प्रतिनिधित्व का दबाव बढ़ रहा है.
कैबिनेट बनेगा राजनीतिक हथियार
यह मंत्रिमंडल सिर्फ 2025 की सरकार के लिए नहीं, बल्कि BJP और NDA की राष्ट्रीय रणनीति का हिस्सा भी माना जा रहा है. उत्तर प्रदेश चुनाव 2027 और लोकसभा 2029 के मद्देनज़र कुछ वोट बैंक ग्रूम करने की कोशिश इस टीम के माध्यम से साफ दिखाई देगी.
नीतीश की सबसे जटिल टीम?
कुल मिलाकर, नीतीश कुमार का नया कैबिनेट सामाजिक संतुलन, राजनीतिक दबाव, सहयोगियों की मांग, क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व और भविष्य की राजनीति इन पांचों तत्वों का एक मिला-जुला मॉडल होगा. यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या नीतीश सभी फॉर्मूलों को एक साथ साध पाएंगे या कुछ पद आगे चलकर राजनीतिक एडजस्टमेंट के लिए खाली छोड़ेंगे.