'का हो, लालू राज का मजा चख लो...',जब RJD चीफ ने अपने मंत्रियों को खिलाई थी मेलोडी, कहा था-'हमरी भैंसिया के दूध से बना है'
Netaon Ke Kisse: बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव का नाम सिर्फ कड़क फैसलों और बड़े-बड़े बयानबाजी के लिए नहीं बल्कि अपनी चुलबुली और मजेदार आदतों के लिए भी जाना जाता है. अंदाज ऐसा कि उनकी छोटी-छोटी बातें भी लोगों के लिए यादगार बन जाती हैं. जानिए, कैसे लालू प्रसाद यादव ने अपने मंत्रियों को खिलाई थी मशहूर ‘मेलोडी’ और मजेदार अंदाज में कहा - 'हमरी भैंसिया के दूध से बना है.' पढ़ें, नेताओं के किस्से के तहत उनकी ये पूरी कहानी और लालू के राज और उनके अंदाज की अनोखी शैली.;
Lalu ke Kisse: एक बार लालू प्रसाद यादव विमान में सफर कर रहे थे. पायलट ने शायद मेहमाननवाज़ी के तौर पर उन्हें कैडबरी की मेलोडी का एक डब्बा भेंट किया. अब लालू जी ठहरे लालू - उन्होंने उसे यूं ही रख नहीं दिया.
विमान में बैठे अपने मंत्रियों की तरफ मुस्कुराते हुए बोले, “ए भाई सुनो, तुम सबके लिए कुछ खास लाए हैं हम!” और तभी डब्बा खोलते हुए बोले - “देखो, हमरी भैंसिया के दूध से बना मेलोडी है!” सारे मंत्री हंस पड़े. किसी ने कहा, “सर, ये तो कंपनी की होती है!” लालू ने तुरंत जवाब दिया - “अरे, कंपनी का क्या है, दूध तो हमरे ही गांव का जाता है!”
यही थे लालू प्रसाद यादव - जहां जाते थे, वहां सियासत भी हंसना सीख जाती थी. उनकी बातें चाहे राजनीतिक हों या व्यक्तिगत, हर लहजे में एक देसी सादगी और ठेठ ह्यूमर झलकता था. इसलिए आज भी जब लोग बिहार की राजनीति की बात करते हैं, तो लालू यादव के किस्से मुस्कुराहट के साथ ज़रूर सुनाए जाते हैं.
अपने हर अंदाज से उठाते थे आम आदमी का मुद्दा
इस बयान के पीछे लालू प्रसाद यादव का उद्देश्य यह था कि वे अपने मंत्रियों को यह एहसास दिलाना चाहते थे कि सत्ता में रहते हुए भी उन्हें अपनी जड़ों और गरीबों से जुड़े रहना चाहिए. उनका यह बयान उनके सवर्ण विरोधी और गरीब समर्थक छवि को भी प्रकट करता है. लालू प्रसाद यादव की यह शैली उनकी राजनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रही है, जिसमें उन्होंने हमेशा आम आदमी के मुद्दों को उठाया और सत्ता में रहते हुए भी अपनी जड़ों से जुड़े रहने की कोशिश की.
कभी कभार खुद भी बनते थे हंसी ठिठोली के पात्र
इस किस्से का जिक्र संकर्षण ठाकुर की पुस्तक 'बंधु बिहारी: कहानी लालू यादव व नीतीश कुमार की' में है. पुस्तक के लेखक का कहना है कि लालू यादव जिस मिजाज के राजनेता थे, उसे करीब से जानने वाला शख्स आज भी इस तरह की कहानियों को मसखरापन के अंदाज में चाव से सुना देते हैं. दरअसल, लालू यादव ऐसा कर हंसी ठिठोली का पात्र भी बनते हैं, जिसमें उन्हें आनंद आता है. यही वजह है, कि जब भी उन्हें मानसिक तौर पर हल्का होने का मौका मिलता है, वो अपने मूल स्वभाव में आ जाते हैं और मौके पर उपस्थित लोगों को हास्य और परिहास की मुद्रा में ऐसा करते हैं. ताकि लोगों से खुलकर बात भी हो सके और यादें भी हमेशा यादगार बन जाए.
इतने भर से PMCH के डॉक्टरों का ट्रांसफर कर दिया रद्द
दरअसल, ऐसे मौकों पर लालू यादव अपने आप में जश्न मना रहे होते हैं. उनके व्यक्तित्व की एक खासियत यह भी है कि कोई उनसे जो मांगता था उसे वो चीज संभव होने पर तुरंत मिल सकता था, उसमें जो वे दे सकते थे और जो वे हासिल कर सकते थे, जरूर करते थे. ऐसा ही एक वाक्या पटना से रवाना होने के कुछ ही देर पहले परोपकार के एक अतिरंजित प्रदर्शन में उन्होंने पीएमसीएच के डॉक्टरों द्वारा माफी मांगने पर डॉक्टरों के एक दल के स्थानांतरण आदेश को रद्द कर दिए थे, जो सिर झुकाए और हाथ पीठ के पीछे बांधे हवाई अड्डे पर उनसे मिलने आए थे. लालू प्रसाद के जिंदगी से जुड़े ऐसी कई घटनाएं हैं, जो लोगों को अपनेपन का अहसास कराने वाली हैं.
एक बार जब वह हवाई अड्डे से निकल रहे थे तो पक्की सड़क के एक किनारे वरिष्ठ अधिकारियों का एक दल भी पदोन्नतियों की फाइल पर उनके दस्तखत लेने के लिए जमा था, लेकिन लालू यादव की एक सरसरी निगाह के अलावा उन्हें कुछ नहीं मिला. बशर्ते उन्होंने कहा, "देखो मैंने कितना लंबा रास्ता तय कर लिया है. जैसे वे कह रहे हों और फिर उन्होंने शान से अपने कुरते की लंबी बाहों के नीचे से अपनी हथेली हिलाते हुए और चॉकलेटों की मांग की. 'बढ़ाओ, बढ़ाओ."
'मैं सिर्फ भैंसे चराने लायक हूं, या छोटा मोटा भांड भी हूं'
इसी तरह एक बार वह विमान सवाल होकर धरती का सर्वेक्षण किया, धान के खेतों के घटते जा रहे विस्तारों पर नजर डाली, जिनमें से प्रत्येक एक अलग तरह का हरा था और बिना किसी उकसावे के एक बार फिर अपनी राजनीति की जड़ों और मंशाओं पर अपने मन की लहर के साथ बहने लगे, और बोल पड़े, "उन्हें लगता था, मैं सिर्फ भैंसे चराने लायक हूं. मैं, नाचता और गाता था तो उन्हें लगता था, मैं छोटा मोटा भांड भी हूं, जो मैं था और अभी भी जब चाहूं बन सकता हूं.' फिर वह कहने लगे, 'मैं जानता हूं आप में से कुछ को मेरे जैसा को मुख्यमंत्री देखकर मजा आता है - देहाती, थोड़ा असभ्य, असंकोची, एक ऐसा आदमी, जो अधकचरी हिंदी बोलता है और अंग्रेजी के कुछ ही शब्द बोल पाता है. आप जानते हैं, मैं अच्छी खासी अंग्रेजी बोल सकता हूं, पर क्यों बोलूं? जब मेरी हिंदी-भोजपुरी की मिश्रित भाषा इतनी लोकप्रिय है, मैं अपनी अंग्रेजी का प्रदर्शन क्यों करना चाहूंगा? लोग इस विमान के अत्यधिक उपयोग के लिए मेरी आलोचना करते हैं. तो वे क्या अपेक्षा करते हैं कि मैं जिंदगी भर एक भैंस की सवारी करता रहूं. अच्छा मुद्दा है. आज मैं इस बारे में बात करूंगा. आप सार्वजनिक सभा में लोगों की प्रतिक्रिया देखिएगा, जब मैं इस बारे में बोलूंगा. बस उनकी प्रतिक्रिया देखिएगा."
'ये ही लड़ाई हमको-आपको लड़ना है.'
फिर सहरसा हवाई पट्टी पर उतरने पर उन्होंने देखा, हजारों चेहरे चीख चिल्ला रहे थे. छोटा सा विमान पूरी तरह रुकने के पहले ही समर्थकों की भंवर द्वारा निगल लिया गया. विमान के आसपास इतने लोग जमा हो गए थे कि सीढ़ी का निकलना मुश्किल हो गया था. और सीढ़ी के नीचे उतरते ही नारे तूफानी हवाओं की तरह गरजने बरसने लगे, 'लालू भैया जिंदाबाद! शेर ए बिहार जिंदाबाद! गरीबों का मसीहा जिंदाबाद! अकलियतों का मसीहा जिंदाबाद! ला-लू! ला-लू! ला-लू.'
एयरपोर्ट से निकलते ही उन्होंने अपनी पहली सभा का आरंभ उसी अंदाज में किया. वह गांव के एक छोटे से मैदान में रखी गई थी, जो लहराती भीड़ से ठसाठस भरा था और लालू यादव का मंच एक जीप की कैनवास की छत था, जैसा कि उन्होंने वादा किया था. उन्होंने लोगों से कहा, "हम हवाई जहाज से आए हैं. काहे नहीं आएंगे. ग्वाला लोग और गरीब लोग पूरा जिंदगी भैंसी पर ही चढ़ेगा का? यही है लड़ाई! गरीब लोगों को हवाई जहाज में चढ़ने का, ये ही लड़ाई हमको-आपको लड़ना है."
इस बीच तालियों की गड़गड़ाहट से आसमान गूंज उठा. लालू यादव ने अपने पहले के कुछ वाक्यों से ही मैदान मार लिया था. चुनाव, उनका युद्ध नहीं, बल्कि जनता का युद्ध था और जनता उसे लड़ने वाली थी - अपने लिए भी और लालू यादव के लिए भी.
सियासी रणनीति पर विचार करने के लिए इसलिए विवश हुए लालू
लेकिन जैसे-जैसे लालू यादव का कद और ताकत बढ़ते गए, धीरे-धीरे उनकी चुनौतियां भी बढ़ती गईं. अगले दो वर्षों में वर्ष 1992 और 1994 के बीच तीन ऐसी चीजें हुईं, उन्होंने बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री को उनकी सामाजिक राजनीतिक रणनीति पर पुनर्विचार करने के लिए विवश कर दिया.
पहली बात, कांशी राम की बहुजन समाज पार्टी पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में हरिजनों के बीच अचानक एक बड़ी ताकत के रूप में उभरकर आई. अब बसपा का बिहार में अपने आधार का विस्तार करना केवल समय की बात थी.
दूसरा बात, जिस प्रकार सत्ता के सभी लाभ, सबसे अधिक रोजगार, सबसे अच्छे ठेके यादवों के पास जा रहे थे, उसे लेकर लालू यादव के जनता दल में असंतोष बढ़ने लगा. यादववाद के खिलाफ मुहिम कुर्मियों द्वारा शुरू की गई थी, जो दूसरी सबसे प्रभावशाली और ऊपर उठती पिछड़ी जाति थी और जिसके नेता नीतीश कुमार थे. कुर्मी और कुमार कोइरी जैसे अन्य पिछड़े समुदायों का सामाजिक-राजनीतिक गठबंधन तोड़ दिया, कुर्मियों को जनता दल से बाहर ले आए और सन् 1994 में जॉर्ज फर्नांडीस के साथ मिलकर अपनी खुद की समता पार्टी का गठन कर लिया.
तीसरी बात, यह थी 1994 में ही लालू यादव को उत्तर बिहार की उनकी गृह भूमि में सवर्ण बलों के एक गठबंधन ने चुनौती दी. बिहार पीपुल्स पार्टी एक उग्रवादी सवर्ण समाज के लवली आनंद ने वैशाली से लोकसभा के उप चुनाव में जनता दल की किशोरी सिन्हा को पराजित कर दिया. लवली आनंद की जीत के अनिवार्य रूप से दो कारण थे. पहला उन्हें सभी 'ऊंची' जातियों का संयुक्त समर्थन प्राप्त था और उसने जनता दल प्रतिद्वंद्वी का निर्वाचन क्षेत्र विभाजित था. नीतीश कुमार के कुर्मियों ने पार्टी के लिए काम नहीं किया था.
नीतीश कुमार के अलावा और वैशाली की पराजय दोनों ही लालू यादव के लिए बड़े झटके थे, लेकिन दोनों ही घटनाओं ने उन्हें बहुत अधिक हैरान नहीं किया. उन्हें शायद, इसका अंदाजा हो गया था और उन्होंने एक जवाबी रणनीति तैयार कर ली थी. यही वजह है कि लालू अपने अंदाज में रमे रहे. पर अब वो बात कहां.