इंक़लाब के शायर, कृष्ण के भक्त... जन्माष्टमी पर भाग जाते थे मथुरा, आर्टिकल 370 का किया था विरोध; पढ़ें हसरत मोहानी की कहानी
मौलाना हसरत मोहानी- वो शख़्स जिन्होंने ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ का नारा दिया, पूर्ण स्वराज की मांग में सबसे आगे रहे, जेल को यूनिवर्सिटी माना और कृष्ण भक्ति में मथुरा की गलियों में रमे. एक साथ क्रांतिकारी, शायर और प्रेमी, उनकी कहानी आज़ादी, न्याय और इंसानियत का बेमिसाल संगम है. आप पढ़ रहे हैं 'आजादी के मुस्लिम परवाने' सीरीज की छठी पेशकश, जिसमें मुझे यानी मौलाना हसरत मोहानी को जानने का मौका मिलेगा.;
1919 का वो साल था जब पूरे देश में असहयोग आंदोलन की लहर दौड़ रही थी. हर तरफ़ अंग्रेज़ों के खिलाफ़ आवाज़ें उठ रही थीं, लेकिन कुछ लोगों की हिम्मत ऐसी थी कि वे सज़ा और क़ैद से भी नहीं घबराए. उस साल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्र रहे मौलाना हसरत मोहानी ने न सिर्फ आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, बल्कि ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ का नारा दिया, जो बाद में देश के कोने-कोने में गूंजने लगा. एक बार जब पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने आई, तो मोहानी ने हिम्मत दिखाते हुए कहा, "जेल मेरे लिए खौफ का नहीं, बलिदान का घर है." यही जज़्बा था जिसने अंग्रेज़ों को भी हिला कर रख दिया.
उनका ये नारा और हौसला आज़ादी की लड़ाई का प्रतीक बन गया. उनका संघर्ष केवल व्यक्तिगत नहीं था, बल्कि पूरे भारत की आज़ादी की आवाज़ था. यह कहानी उस दौर के उस अनगिनत युवा की है, जिसने खुद को पूरी तरह देश के लिए समर्पित कर दिया और हर बार अंग्रेज़ों के जुल्म के आगे नतमस्तक होने से मना कर दिया. आइए पढ़ते हैं मौलाना हसरत मोहानी की कहानी उनकी ही जुबानी...
मेरा नाम सैयद फज़ल-उल-हसन है, लेकिन मुझे लोग मौलाना हसरत मोहानी के नाम से जानते हैं. मेरा जन्म 1 जनवरी 1875 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के मोहान कस्बे में हुआ. मैं जमींदार परिवार से ताल्लुक रखता था. मेरे पिता सैयद अज़हर हुसैन को उनकी दादी से पैतृक संपत्ति के रूप में खजवाहा तहसील के तीन गांव विरासत में मिले थे. बचपन से ही मैं अपने सवालों और अपने सोच को लेकर बड़ा जिज्ञासु था. मैं देखता था कि हमारे देश में लोग क्यों गुलामी के जीवन को स्वीकार कर रहे हैं. मेरे मन में एक आग जल उठी कि मैं अपने वतन को आज़ाद करूंगा. जब मैंने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई पूरी की और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दाखिला लिया, तो वहां के माहौल ने मेरे विचारों को और भी दिशा दी.
अंग्रेज़ हुकूमत के खिलाफ़ लड़ाई के जज़्बे ने मेरी रगों में ऐसा उबाल ला दिया कि मैं हर आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगा. कॉलेज में रहते हुए मैंने एक पत्रकार के रूप में लिखना शुरू किया और उर्दू मासिक उर्दू-ए-मुअल्ला के संपादक बना. इसके बाद मैंने एक उर्दू अखबार मुस्तक़िल की शुरुआत की. मेरा पहला बड़ा संघर्ष तब हुआ जब 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद पूरे देश में गुस्सा और रोष फैल रहा था. मैंने इस घटना के खिलाफ़ विरोध स्वरूप भाषण दिए और लोगों को एकजुट किया. इस कारण अंग्रेज़ों ने मुझे पहली बार गिरफ्तार किया. जेल जाना मेरे लिए किसी सजा से कम नहीं था, लेकिन मैंने उसे अपनी ताकत बनाया.
मैंने जेल में बिताए कई महीने ऐसे बिताए जहां दिन-रात केवल देश की आज़ादी के ख्याल आते. एक बार जेल में जब मुझे अकेले एक छोटे से कमरे में बंद किया गया, तो मैंने अपनी दीवारों पर उंगलियों से शेर लिखे. ज़ख्म भले गहरे थे, पर मेरी उम्मीदें गहरी थीं. एक साथी कैदी ने मुझसे कहा, "इतनी बार जेल जाना कितना मुश्किल होता होगा?" मैं मुस्कुराया और बोला, "जेल मेरे लिए डर की जगह नहीं, बल्कि मेरी सोच की महफ़िल है. यही वो जगह है जहां मैं अपने विचारों को और पनपाता हूं."
1920 के दशक में जब देश भर में क्रांति की लहर उठ रही थी, मैंने ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ का नारा दिया. मुझे याद है कि एक सार्वजनिक सभा में मैंने यह नारा दिया और हजारों लोगों ने इसे अपनाया. यह नारा सिर्फ शब्द नहीं था, बल्कि हमारी पूरी क्रांति की आत्मा थी. इस नारे ने युवाओं को जंग के लिए प्रेरित किया, और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों ने इसे अपनी जान से भी बढ़कर अपनाया.
1921 की सर्दियों में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अहमदाबाद में अधिवेशन हो रहा था, मैं भी वहां मौजूद था. मेरे साथ उस वक्त भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के नेता स्वामी कुमारानंद थे. माहौल कुछ ऐसा था कि ज्यादातर बड़े नेता ब्रिटिश हुकूमत से केवल “डोमिनियन स्टेटस” की मांग कर रहे थे- मतलब, आधी-अधूरी आज़ादी. लेकिन मेरे दिल में एक ही बात थी, “हमें आधी नहीं, पूरी आज़ादी चाहिए.” मैंने सभा में खड़े होकर कहा, "जब तक हम पूर्ण स्वतंत्रता की मांग नहीं करेंगे, तब तक यह लड़ाई अधूरी रहेगी."
मेरे इस प्रस्ताव ने कई लोगों को चौंका दिया. वहां मौजूद प्रसिद्ध क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकउल्ला खान ने मेरी बात पर हामी भरी. यह मेरे लिए गर्व का पल था, क्योंकि मैं जानता था कि मेरे जैसे विचार अब और भी लोगों के दिल में जगह बना रहे हैं. यही नहीं, कुछ साल बाद 25 दिसम्बर 1925 को जब पहला भारतीय कम्युनिस्ट सम्मेलन हुआ, तो मुझे इसकी स्वागत समिति का अध्यक्ष बनाया गया. यह मेरे लिए सम्मान की बात थी, क्योंकि मैं हमेशा मानता था कि मजदूर और किसान की आवाज़ को सबसे ऊंचा मंच मिलना चाहिए.
गांधीजी के स्वदेशी आंदोलन ने मुझे और ज्यादा प्रेरित किया. मैंने अपने घर में खद्दर पहनना शुरू किया और लोगों को विदेशी वस्त्र छोड़ने की बात कही. मेरा एक सपना था कि हम आत्मनिर्भर बनें. इसलिए मैंने 'खद्दर भंडार' खोला, जहां मैं और मेरे साथी स्वदेशी कपड़े बेचते थे. इस छोटे से प्रयास ने कई लोगों को स्वदेशी अपनाने की प्रेरणा दी. मुझे याद है, कई बार अंग्रेज़ एजेंटों ने इस दुकान को तोड़ने की कोशिश की, लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी.
मेरी ज़िंदगी सिर्फ़ राजनीति तक सीमित नहीं थी. मैंने अपनी शायरी से भी लोगों के दिलों में आज़ादी की अलख जगाई। मेरे शेरों में दर्द था, जज़्बा था और सबसे ऊपर मोहब्बत थी- मोहब्बत अपने देश से. मैंने उर्दू साहित्य की कई पत्रिकाएं निकाली, जिनमें अदब और राजनीति दोनों का संगम था. मेरी ग़ज़लें अक्सर अंग्रेज़ हुकूमत की नीतियों पर चोट करती थीं. कई बार मेरी इस वजह से पत्रिकाएं बंद कर दी गईं और मुझे जेल जाना पड़ा, लेकिन मेरा कलम कभी थमा नहीं.
मेरी ज़िंदगी का एक पहलू ऐसा भी था, जिसे लोग अक्सर हैरानी से सुनते हैं- मेरी कृष्ण भक्ति. हान, मैं एक मुसलमान था, मगर मेरे दिल में भगवान श्रीकृष्ण के प्रति गहरा प्रेम और भक्ति थी. मैं उन्हें केवल एक देवता के रूप में नहीं, बल्कि प्रेम, त्याग और सच्चाई के प्रतीक के रूप में देखता था. हर साल जब कृष्ण जन्माष्टमी आती, मैं मथुरा जाता और वहां उस रात की भव्यता और भक्ति में खो जाता. मंदिर की घंटियों की ध्वनि, भजन की लय और भक्तों का उत्साह यह सब मुझे अपने अंदर गहरे तक छू जाता था. कई बार लोग मुझसे पूछते, "मौलाना साहब, आप यहां क्यों आते हैं?" तो मैं बस मुस्कुराकर कहता, "मेरा दिल यहां शांति पाता है और भक्ति का कोई मज़हब नहीं होता."
मैंने श्रीकृष्ण पर कई गीत लिखे- कुछ उर्दू में, तो कुछ अवधी में. इन गीतों में प्रेम और भक्ति का वही रंग था, जो मथुरा की गलियों में बहता है. मेरी एक मशहूर पंक्ति थी- "छुप छुप कर वह मुझे देखे, पर उसका मन न जाने क्या सोचे." और एक अवधी पंक्ति जो मैंने अपने मन की गहराई से लिखी, "बरसाने की राधा प्यारी, मोहन मन में बास." ये पंक्तियां सिर्फ़ कविता नहीं थीं, बल्कि मेरे दिल का इज़हार थीं. कृष्ण के प्रति मेरा यह प्रेम और सम्मान, लोगों को यह सिखाने के लिए था कि इंसान का दिल अगर साफ़ है, तो वह हर रूप में ईश्वर को पहचान सकता है. मेरी एक कविता है...
मन तोसे प्रीत लगाई कन्हाई
काहू और किसुरती अब काहे को आई
गोकुला ढूंढ बृंदाबन ढूंढो
बरसाने लग घूम के आई
तन मन धन सब वार के ‘हसरत’
मथुरा नगर चली धूनी रमाए
1947 के दौर में जब देश को दो हिस्सों में बांटने की बात चली, मैंने इसका कड़ा विरोध किया. मज़हब के नाम पर देश को बांटना मेरे लिए अस्वीकार्य था. मैंने पाकिस्तान जाने की पेशकश ठुकरा दी, क्योंकि मेरा दिल भारत में धड़कता था. मेरे कई करीबी मुस्लिम भाई पाकिस्तान चले गए, लेकिन मैंने अपनी जड़ों से जुड़ी मिट्टी को नहीं छोड़ा. मेरा मानना था कि हिंदुस्तान की ताकत उसकी विविधता और सहिष्णुता में है.
1946 में जब मुझे संविधान सभा का सदस्य बनाया गया, तो मैंने सबसे पहले आम जनता के अधिकारों की बात उठाई. मैं चाहता था कि नया भारत सभी के लिए न्याय और बराबरी का पैगाम लेकर आए. किसानों, मजदूरों और गरीबों के हक़ की रक्षा करना मेरी प्राथमिकता थी. संविधान में मैंने हर आवाज़ को सुनने की कोशिश की, ताकि हमारा भारत हर नागरिक का घर बन सके.
17 अक्टूबर 1949 का दिन मैं आज भी नहीं भूल सकता. संविधान सभा में कश्मीर को लेकर बहस हो रही थी. मसौदे में अनुच्छेद 306A के तहत कश्मीर को विशेष प्रावधान देने की बात थी, जो बाद में अनुच्छेद 370 बना. मेरे दोस्त शेख अब्दुल्ला उस वक्त वहां खास शख्सियत थे और मैं उनकी इज़्ज़त करता था, लेकिन इस मामले में मेरा रुख साफ था, "जब देश के बाकी हिस्सों को एक जैसा अधिकार है, तो कश्मीर को अलग क्यों?" मैंने सभा में सीधा सवाल किया, "26 अक्टूबर 1947 को कश्मीर भारत में विलय कर चुका है, फिर यह भेदभाव क्यों?"
इस पर एन. गोपालस्वामी अयंगर ने जवाब दिया, "कश्मीर की विशेष परिस्थितियों के कारण, राज्य अभी इस तरह के एकीकरण के लिए तैयार नहीं है." लेकिन मैं अपनी बात पर डटा रहा. मैंने तर्क दिया, "जब आप कश्मीर के लिए ये रियायतें दे सकते हैं, तो आपने बड़ौदा राज्य को बॉम्बे में विलय करने के लिए मजबूर क्यों किया? यह दोहरा मापदंड क्यों?" मेरे इस रुख पर कई लोग असहमत थे, लेकिन मैंने वही कहा जो मेरे विवेक ने सही समझा. मैं हमेशा मानता था कि न्याय का पैमाना सबके लिए एक होना चाहिए- चाहे वह कश्मीर हो, बड़ौदा हो या कोई और राज्य.
13 मई 1951 को मेरी सांसें थमीं, लेकिन मेरी सोच और जज़्बा उन लोगों के दिलों में जिन्दा है जो आज़ादी की इस जंग को याद रखते हैं. मैंने कभी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया, चाहे हालत कैसी भी रही हो. जेल में बिताए दिनों से लेकर सार्वजनिक सभाओं तक, मेरा मकसद एक था- आजादी और इंसाफ़. मेरा सपना और मेरा संघर्ष आज भी लोगों के दिलों में जिंदा है.
- मौलाना हसरत मोहानी