अफगानिस्तान में बनाई थी भारत की पहली निर्वासित सरकार, ब्रिटिश ताज की हिला दी थी नींव; पढ़ें बरकतुल्लाह भोपाली की कहानी
मौलाना मोहम्मद बरकतुल्लाह भोपाली, भारत की पहली निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री थे. उन्होंने देश की आज़ादी के लिए विदेशों में रहकर कलम और विचारों से लड़ाई लड़ी. आज़ादी से पहले ही दुनिया से चले गए, पर उनकी क्रांतिकारी सोच आज भी ज़िंदा है. आप पढ़ रहे हैं 'आजादी के मुस्लिम परवाने' सीरीज की पांचवीं पेशकश, जिसमें मुझे यानी मोहम्मद बरकतुल्लाह को जानने का मौका मिलेगा.

1915 की बात है. अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल में एक ऐतिहासिक घटना घट रही थी. एक अफगान महल के अंदर कुछ भारतीय चेहरे एक बहुत बड़ा सपना बुन रहे थे एक आज़ाद भारत का सपना, जो ब्रिटिश ताज की पकड़ से बहुत दूर, पर उसकी नींव को हिलाने वाला था. इन्हीं चेहरों में एक चेहरा था मौलाना मोहम्मद बरकतुल्लाह भोपाली. एक भोपाली, जिसने देश से दूर रहकर उसकी आज़ादी की लड़ाई को अंतरराष्ट्रीय रंग दे दिया. लेकिन विडंबना देखिए, जिस भारत के लिए उन्होंने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया, उसी भारत में आज उनका नाम गुमनामी की धूल में दबा पड़ा है.
मौलाना बरकतुल्लाह की कहानी सिर्फ़ एक क्रांतिकारी की कहानी नहीं है. यह उस जज़्बे की दास्तान है जो हदों में नहीं बंधता, सरहदों से नहीं डरता और अपनी मिट्टी से बिछुड़कर भी उसी के लिए जलता है. यह कहानी एक ऐसे इंसान की है जिसने न तो किसी बड़ी रैली की, न जेलों में बंद हुआ, लेकिन उसके शब्द और विचार अंग्रेज़ों के कानों में बारूद बनकर गूंजते रहे. वो व्यक्ति जो आठ भाषाओं का ज्ञाता था, जिसने जापान से लेकर जर्मनी और अफगानिस्तान तक भारत की आज़ादी की लड़ाई को एक नया मोर्चा दिया. यह उस मौलाना की कहानी है, जो शरीर से विदेश में था, लेकिन आत्मा से हरदम भारत की धरती पर चलता रहा. आइए पढ़ते हैं मौलाना बरकतुल्लाह की कहानी उनकी ही जुबानी...
मेरा नाम मोहम्मद बरकतुल्लाह है. लोग मुझे अक्सर "भोपाली" कहते थे, क्योंकि मैं भोपाल शहर का बेटा हूं, जहां मैंने पहली बार आज़ाद हवा में सांस ली थी. 7 जुलाई 1854 को भोपाल के इतवारा मोहल्ले में मेरा जन्म हुआ. मेरे वालिद शुजाअत उल्लाह खान पुलिस में थे. बचपन में जब कभी अपने अब्बा को वर्दी में घर आते देखता, तो लगता था कि एक दिन मैं भी ऐसा बनूंगा, रियासत का कोई बड़ा अफसर. लेकिन जैसे-जैसे होश संभाला, समझ आया कि अफसरी से पहले आज़ादी ज़रूरी है.
मेरे स्कूल के दिन थे. भोपाल का सुलेमानिया स्कूल जहां मैंने अरबी, फारसी और उर्दू पढ़नी शुरू की. वहीं से मेरी तालीम की बुनियाद पड़ी और बाद में मैं इसी स्कूल में शिक्षक भी बना. पर अंग्रेज़ों की परछाई हर जगह थी- किताबों में, तालीम में, सोच में. एक दिन एक अंग्रेज़ अफसर स्कूल में आया और बच्चों ने सर झुकाकर सलाम किया. वो लम्हा मेरे लिए जैसे किसी चाकू की तरह था और वहीं तय कर लिया कि अब ये ग़ुलामी और नहीं देखी जाएगी.
बोझिल दिल के साथ मैंने स्कूल की नौकरी छोड़ी और मुंबई चला गया. मां ने घर से निकलते वक़्त एक बात कही थी, "बेटा, कहीं भी जा, पर ज़मीर मत बेचना." मां की ये बात मेरी सारी ज़िंदगी का उसूल बन गई. मुंबई में पढ़ाई जारी रखी, खास तौर पर अंग्रेज़ी सीखी क्योंकि अब मैं उसी ज़ुबान में उन्हें जवाब देना चाहता था. 1887 में मैं इंग्लैंड पहुँचा और वहाँ की यूनिवर्सिटी ऑफ लिवरपूल में ओरिएंटल भाषाएं पढ़ाने लगा- उर्दू, अरबी, फारसी. लेकिन असल शिक्षा वहाँ नहीं थी, असली शिक्षा तो इंडिया हाउस में चल रही थी. लाला हरदयाल, सावरकर, मदनलाल ढींगरा जैसे नौजवानों से मिला- सबके सीने में जलता था आज़ादी का शोला. हम वहां मिलते, बहसें करते, योजनाएं बनाते और सबसे बढ़कर- एक सपना देखते थे: आज़ाद भारत.
1903 में मैं अमेरिका गया और वहां ग़दर पार्टी की स्थापना में भाग लिया. पार्टी के अख़बार "ग़दर" का संपादक बना और मेरी कलम से निकले शब्द लंदन से लेकर लाहौर तक अंग्रेज़ी सत्ता को बेचैन कर देते. मैंने लिखा- “अब ताज को गिराने की बारी है.” इन लेखों की वजह से मुझ पर नज़रें तेज़ हो गईं. लेकिन मैंने लिखना बंद नहीं किया, बल्कि और धारदार लिखा. अमेरिका के बाद 1909 में मैं जापान पहुंचा. वहां टोक्यो यूनिवर्सिटी में अरबी पढ़ाने लगा, पर मकसद वही रहा- लोगों को भारत की हालत बताना और आज़ादी की लड़ाई में जागरूक करना.
1914 में जब जंग-ए-आज़ादी का माहौल गरमाया, मैं जर्मनी पहुंचा और वहीं से अफ़ग़ानिस्तान की ओर बढ़ा. 1 दिसंबर 1915 को मैंने अपने जीवन का सबसे ऐतिहासिक दिन देखा. अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल में हमने भारत की पहली निर्वासित सरकार का गठन किया. राजा महेंद्र प्रताप सिंह राष्ट्रपति बने और मुझे प्रधानमंत्री बनाया गया. हमारे गृह मंत्री थे मौलाना उबेदुल्लाह सिंधी. उस दिन दस्तावेज़ पर दस्तख़त करते हुए मेरा दिल कांप रहा था क्योंकि ये एक नई सुबह का एलान था. हमने इस सरकार को सिर्फ़ नाम के लिए नहीं बनाया था- रूस, तुर्की, जापान जैसे देशों से हमने समर्थन मांगा, यहां तक कि लेनिन से भी जाकर मिला. लेनिन से मेरी मुलाकात में मैंने साफ़ कहा, “भारत को तुम्हारी विचारधारा नहीं चाहिए, हमें सिर्फ़ आज़ादी चाहिए.”
लोग अक्सर मुझसे पूछते थे कि एक मुसलमान होकर आप हिन्दू राजा और सिख नेताओं के साथ कैसे इतना नज़दीक हो सकते हैं? मैं मुस्कराता और कहता, “जब बात मुल्क की हो, तब मज़हब की दीवारें खुद-ब-खुद गिर जानी चाहिए.” राजा महेंद्र प्रताप मेरे भाई जैसे थे. हमारी दोस्ती सिर्फ़ राजनीतिक नहीं थी, हम एक-दूसरे की भाषा, संस्कृति और सपनों को समझते थे. उबेदुल्लाह सिंधी से मैंने इस्लाम और इंकलाब- दोनों के मायने सीखे. मेरी सोच हमेशा यही रही कि आज़ादी की लड़ाई में हिंदू-मुस्लिम एकता ही असली ताक़त है.
मेरी ज़िंदगी एक देश से दूसरे देश भटकते बीती- इंग्लैंड, अमेरिका, जापान, जर्मनी, तुर्की, अफ़ग़ानिस्तान, रूस, फ्रांस और रोम. मेरी जेब में कभी पैसे नहीं थे, पर जेहन में एक ही दौलत थी- भारत की आज़ादी. मैंने अपनी तमाम भाषाओं की जानकारी इसी काम में लगाई- लोगों से संवाद करना, भारत की हालत बताना और अंग्रेज़ी हुकूमत की सच्चाई उजागर करना. मैं क्रांतिकारी था, पर बंदूक वाला नहीं- मेरी बंदूक मेरी कलम थी. मैं नारे नहीं लगाता था, मैं ऐसे शब्द लिखता था जो दिमाग हिला देते थे.
1927 में मैं सैन फ्रांसिस्को में था. बीमार था, कमज़ोर भी हो चुका था. मगर आंखें अब भी चमकती थीं- इस उम्मीद से कि कोई दिन ऐसा आएगा जब मैं आज़ाद भारत की मिट्टी में सांस लूंगा. मैंने अपने अंतिम समय में राजा महेंद्र प्रताप से कहा- "मैंने पूरी ईमानदारी से अपनी मातृभूमि के लिए संघर्ष किया है, पर अफ़सोस, मैं उसे आज़ाद होते नहीं देख सका. अब इस देश को उन नौजवानों के हवाले करता हूं जिनकी रगों में बग़ावत दौड़ रही है." उसी साल 20 सितंबर को मेरी सांसें रुक गईं. मुझे सैक्रामेंटो, कैलिफोर्निया के ओल्ड सिटी कब्रिस्तान में दफनाया गया. एक वादा था- "आजादी के बाद मुझे हिंदुस्तान की मिट्टी में दफनाया जाएगा." मगर वो वादा आज तक अधूरा है.
आज भोपाल में मेरे नाम पर बरकतुल्लाह यूनिवर्सिटी ज़रूर है, वो भी 1988 में जाकर बनी. मगर ना कोई सड़क, ना कोई पुल, ना कोई चौराहा मेरे नाम का है. मेरी जयंती पर ना तो सरकार कोई आयोजन करती है, ना मुझे श्रद्धांजलि देती है. जिन लोगों ने सिर्फ़ मंचों पर भाषण दिए, उनके नाम के पार्क हैं, स्मारक हैं, लेकिन जिसने विदेशी ज़मीन पर आज़ादी का बीज बोया- उसकी क़ब्र पर आज भी खामोशी पसरी हुई है. मैं आज़ाद भारत को अपनी आंखों से ना देख सका, मगर मुझे यकीन है- जो हवा वहां बह रही है, उसमें कहीं मेरी सांसें भी शामिल होंगी.
- मौलाना मोहम्मद बरकतुल्लाह भोपाली