थप्पड़ ने जगाई बगावत और मुसलमान को बना दिया देश का सपूत; पढ़ें आजादी को मजहब मानने वाले अशफाक उल्ला खां की कहानी
जब ‘वंदे मातरम्’ कहने पर एक छात्र को थप्पड़ पड़ा, तब मेरे भीतर एक आग जगी. यही वो क्षण था जिसने मेरी जिंदगी की दिशा तय कर दी. मैं सिर्फ एक मुसलमान नहीं था, एक हिन्दुस्तानी था. काकोरी कांड के बाद मुझे फांसी दी गई. आप पढ़ रहे हैं 'आजादी के मुस्लिम परवाने' सीरीज की चौथी पेशकश, जिसमें मुझे यानी अशफाक उल्ला खां को जानने का मौका मिलेगा.

शाहजहांपुर के सरकारी स्कूल में उस दिन मौसम बिल्कुल सामान्य था, लेकिन अशफाक उल्ला खां के भीतर एक तूफान उठने वाला था. स्कूल की प्रार्थना सभा में एक हिंदू छात्र ने जोश में आकर ‘वंदे मातरम्’ कह दिया. तभी एक अंग्रेज अफसर आया और सबके सामने उस छात्र को थप्पड़ मार दिया. पूरा स्कूल खामोश था, लेकिन अशफाक का खून खौल उठा. उस दिन उन्होंने पहली बार महसूस किया कि यह सिर्फ एक छात्र की बेइज्जती नहीं थी, यह पूरे देश की आत्मा पर पड़ा तमाचा था. उस एक घटना ने उन्हें पूरी तरह बदल दिया. वह दिन था जब एक साधारण पठान युवक ने तय कर लिया कि अब वह कलम और किताब से नहीं, हथियार और हौसले से लड़ाई लड़ेगा.
अशफाक घर लौटे तो बदले हुए थे. उनके भीतर अब सिर्फ पढ़ाई की लगन नहीं थी, बल्कि आज़ादी की भूख थी. वह रात भर जागकर बंगाल के क्रांतिकारियों की कहानियाँ पढ़ते, खुद से सवाल करते, और अपने भीतर किसी अदृश्य आग को महसूस करते. ‘अनुशीलन समिति’ और ‘युगांतर’ के वीरों की जीवनियाँ उनकी आत्मा को झकझोरतीं. उन्होंने खुद से वादा किया – "अब मेरी जिंदगी का मकसद सिर्फ एक है – हिंदुस्तान को गुलामी की बेड़ियों से आज़ाद कराना." यही वह मोड़ था जहां से अशफाक की जिंदगी एक आम नौजवान से एक असाधारण क्रांतिकारी की ओर मुड़ गई. यही आग उन्हें काकोरी तक और फिर फांसी के फंदे तक ले गई, लेकिन बिना थमे, बिना झुके. आइए पढ़ते हैं अशफाक उल्ला खां की कहानी उनकी ही जुबानी...
मैंने बहुत से मोड़ देखे अपनी ज़िंदगी में, लेकिन मेरी ज़िंदगी की असल करवट तब आई जब मेरी मुलाकात रामप्रसाद बिस्मिल से हुई. पहली बार जब उनसे मिला तो उनकी आंखों में मेरे लिए एक संशय था, बस इसलिए कि मैं मुसलमान था. मगर मैं जानता था कि मेरा मज़हब वतन से बड़ा नहीं. मैंने उन्हें अपने कर्मों से दिखा दिया कि मेरे दिल में भी भारत माता बसती है. धीरे-धीरे वह संशय दोस्ती में बदला, और फिर ऐसा रिश्ता बना जिसे लोग ‘राम और रहीम’ की जोड़ी कहने लगे. हम दोनों का एक ही सपना था- हिंदुस्तान को आज़ाद देखना. बिस्मिल भाई 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' के अगुआ थे और उन्होंने मुझे भी इस संगठन में शामिल किया. यही वो मोड़ था जिसने मेरे जीवन की दिशा तय कर दी.
मगर मैं सिर्फ हथियार उठाने वाला सिपाही नहीं था. मेरी आत्मा भी स्याही से भीगती थी. शायरी मेरा शौक था, और 'हज़रत' तख़ल्लुस से मैं अपनी कविताएं लिखा करता था. मेरी कलम भी बगावत करती थी, जैसे मेरी बंदूक. मैंने लिखा, "कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जहां हमारा." जेल में मैंने कई कविताएं लिखीं, जिनमें आज़ादी की आग धधकती थी. मेरे अशआर अब भी नौजवानों में वही जोश भरते हैं, जो मैं खुद महसूस करता था.
फिर वो दिन आया 9 अगस्त 1925. लखनऊ के पास काकोरी स्टेशन. हमने पूरी प्लानिंग के साथ ट्रेन को रोका और अंग्रेज सरकार का खजाना लूट लिया. लोग कहते हैं डकैती थी, पर मैं कहता हूं यह एक चेतावनी थी ब्रिटिश साम्राज्य को, "अब हम डरते नहीं." इस मिशन की हर रेखा मेरे दिल-दिमाग में उभरी थी. यह मेरा नहीं, हम सबका सपना था हथियारों से नहीं, हौसले से लड़ना.
काकोरी के बाद हड़कंप मच गया. अंग्रेजों ने हमें तलाशना शुरू कर दिया. मैंने अफगानिस्तान भागने की कोशिश की लेकिन एक साथी ने धोखा दे दिया. गिरफ्त में आया तो पुलिस ने कहा- बिस्मिल के खिलाफ गवाही दो, ज़िंदा रहोगे. मैंने कहा, "जिस मिट्टी में बिस्मिल पैदा हुए हैं, उसमें गद्दारी का बीज नहीं उगता." अदालत में जब जज ने सवाल किए, मैंने बिना झुके कहा, "हमने वो खजाना लूटा जो हमारा ही था. अंग्रेजों ने हमें लूटा, हमने बस अपना हिस्सा लिया."
मुझे फांसी की सज़ा सुनाई गई. तारीख तय हुई- 19 दिसंबर 1927. फैज़ाबाद जेल में आखिरी रात थी. मैंने कुरान की आयतें पढ़ीं. मां को एक खत लिखा, "अम्मी, मुझे फख्र है कि मैं वतन पर कुर्बान हो रहा हूं. दुआ कीजिए कि हर बेटा इस मिट्टी के लिए कुर्बान हो." फांसी से पहले मां के लिए एक रुमाल कढ़ाई किया. मैंने कहा, "मां के हाथ की रोटी नहीं खा सका, यह रुमाल शायद उसकी याद दिलाता रहे."
फैसला सुनाया गया कि हमें फांसी दी जाएगी. मैंने अपने वकील से कहा, "अगर किसी की फांसी टल सकती है, तो बिस्मिल की टालो. मेरी फांसी से फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन बिस्मिल जैसे नेता देश को अभी बहुत कुछ दे सकते हैं." मेरी वफ़ादारी मेरे वतन से थी, और उससे भी बढ़कर अपने साथियों से.
जेल में मेरे पास कुरान शरीफ थी और रामचरितमानस भी. एक दिन जेलर ने पूछा, “तुम मुसलमान होकर रामायण क्यों पढ़ते हो?” मैंने कहा, "जिस धरती पर मैंने जन्म लिया, उसके हर धर्म को जानना मेरा फर्ज है. बिस्मिल भाई गीता पढ़ते हैं, मैं रामायण भी पढ़ूंगा." मेरे लिए धर्म कोई दीवार नहीं थी, एक पुल था जो दिलों को जोड़ता था.
बचपन में स्कूल में एक बार अंग्रेज़ी के पेपर में सभी बच्चे नकल कर रहे थे. अध्यापक ने भी छूट दे दी. मगर मैंने कागज़ खाली छोड़ा. जब पूछा गया क्यों नहीं लिखा, तो मैंने कहा, "मुझे परीक्षा में सच्चाई चाहिए, सफलता नहीं." यही मेरे जीवन का सिद्धांत रहा.
एक बार मुझे पुलिस ने घेर लिया था. बंदूक मेरे पास थी, लेकिन मैंने गोली नहीं चलाई. मैंने कहा, "मैं आज़ादी के लिए लड़ रहा हूं, खून की भूख नहीं है. ये सिपाही मेरी तरह मजबूर है, दुश्मन नहीं." मैंने दुश्मनी सिर्फ ज़ालिमों से की, इंसानियत से नहीं.
एक रोज़ संगठन की मीटिंग चल रही थी. उसी समय नमाज़ का वक्त हो गया. किसी ने कहा, "चलिए नमाज़ अदा कर लीजिए." मैंने जवाब दिया, "जब वतन गुलाम है, तब सबसे बड़ी इबादत उसे आज़ाद कराना है. नमाज़ तो हर दिन है, वतन सिर्फ एक है." मेरे लिए देश सबसे बड़ा धर्म था.
मैं जानता हूं मैं अब इस दुनिया में नहीं हूं. लेकिन मेरी कहानी आज भी ज़िंदा है. मैं सिर्फ एक मुसलमान क्रांतिकारी नहीं था. मैं इस देश की मिट्टी का बेटा था, जो हर मज़हब में अपनी माँ की तस्वीर देखता था. आज अगर कोई पूछे कि मेरा धर्म क्या था, तो मैं कहूंगा, "मेरा धर्म था हिंदुस्तान."
- अशफाक उल्ला खां