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20 साल से बिहार में नीतीश, पर सरकार क्यों बनी रही अस्थिर? इस बार बदलेगी सियासी हवा!

बिहार की राजनीति पिछले दो दशकों से नीतीश कुमार के इर्द-गिर्द घूमती आई है, लेकिन लगातार 20 साल तक मुख्यमंत्री रहने के बावजूद बिहार में राजनीतिक स्थिरता कभी नहीं दिखाई दी. सत्ता समीकरण बार-बार बदले, गठबंधन टूटे, नए बने और नीतीश ने कई बार पासा पलटकर सियासी हवा बदल दी. इस बार विधानसभा चुनाव से पहले सवाल उठ रहा है कि क्या नीतीश फिर से वही पुराने खेल को दोहराएंगे या वाकई बिहार की सियासत को स्थिरता मिलेगी?

20 साल से बिहार में नीतीश, पर सरकार क्यों बनी रही अस्थिर? इस बार बदलेगी सियासी हवा!
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बिहार की राजनीति पर चर्चा हो और सीएम नीतीश कुमार का जिक्र न हो, ऐसा कैसे हो सकता है. पिछले 20 साल से वो बिहार की सत्ता के केंद्र में हैं. कभी बीजेपी संग, कभी लालू के साथ, तो कभी तीसरे मोर्चा बनाने की उनकी पहचान है. सवाल ये है कि अगर एक चेहरा दो दशक से बिहार जैसे प्रदेश का मुख्यमंत्री है, तो सरकार इतनी अस्थिर क्यों रही? आखिर, क्यों हर कुछ सालों में समीकरण बदल जाते हैं?

दरअसल, बिहार की सियासत का दूसरा नाम ही है 'उलटफेर' है. यह कोई नई बात नहीं है. 1952 से 1962 के दौर को छोड़ दें तो बिहार में हमेशा अस्थिर सीएम का दौर रहा है. पिछले 35 वर्षों में बिहार में सीएम तो स्थिति है, लेकिन ऐसा होने की स्थिति में प्रदेश में जो विकास होना चाहिए थे वो नहीं हुआ. सीएम बदलने की राजनीतिक खेल के सबसे बड़े खिलाड़ी बने नीतीश कुमार. इसलिए, तेजस्वी यादव ने 2017 में महागठबंधन ने नाता तोड़ एनडीए से हाथ सरकार बनाने पर, जेडीयू प्रमुख नीतीश कुमार को 'पलटूराम' नाम दिया, जो और दुनिया में काफी लोकप्रिय हो गया. इतना ही नहीं, 'पलटूराम' शब्द देश की राजनीति का एक अभिन्न हिस्सा बन गया.

सरकार को अस्थिर बने रहने की वजह क्या है?

जनता दल यूनाइटेड के प्रमुख नीतीश कुमार द्वारा बार-बार गठबंधन बदलने और बिहार को सियासी पेंडुलम (कभी इधर, कभी उधर, अस्थिर सियासी गठबंधन और सरकार की स्थिति) में डालने की भी वजह है. नीतीश कुमार का 20 साल से बिहार में सीएम बने रहना जातीय समीकरणों की देन है. फिर, उनकी पार्टी को कभी खुद के दम पर सरकार बनाने का मौका प्रदेश की जनता नहीं दिया. यही वजह है कि वो बीजेपी नेतृत्व वाली एनडीए और आरजेडी नेतृत्व वाले महागठबंधन में सियासी हैसियत के मुताबिक इधर-उधर होते रहे और सीएम की कुर्सी पर विराजमान रहे.

इसका मतलब यह नहीं है कि नतीश सरकार के कार्यकाल में बिहार में कुछ हुआ. सच तो यही है कि बिहार में जो कुछ विकास हुआ वो पिछले 20 सालों में ही हुआ. अगर कांग्रेस की सरकार के 1952 से 1969 तक का दौर छोड़ दें तो. उसके बाद की कांग्रेस की सरकार या लालू प्रसाद यादव या फिर राबड़ी देवी की सरकार कार्यकाल में अविकास की राजनीति का दौर रहा. नीतीश के लिए सौभाग्य की बात यह है कि केंद्र में स्थिर सरकार है- बिहार के सियासी समीकरणों की वजह से, न चाहते हुए भी उनका साथ उन्हें मिल रहा है.

कब-कब नीतीश ने बदला पासा?

1. 2000 - पहली बार सीएम बने, लेकिन बहुमत न होने पर सिर्फ 7 दिन में इस्तीफा देना पड़ा.

2. 2005 - RJD को सत्ता से हटाकर NDA के साथ मिलकर सत्ता में आए.

3. 2013 - बीजेपी से अलग होकर कांग्रेस और RJD के साथ गए.

4. 2015 - महागठबंधन के साथ चुनाव जीता, आरजेडी, कांग्रेस वाली महागठबंधन के साथ मिलकर सरकार बनाई.

5. 2017 में पासा पलटा और बीजेपी से फिर हाथ मिला लिया.

6. 2022 - बीजेपी से किनारा करके एक बार फिर RJD-कांग्रेस वाले महागठबंधन में शामिल हुए.

7. 2024 - लोकसभा चुनाव से पहले एक बार फिर पाला बदलकर NDA में वापसी.

असली विजेता कौन?

पिछले दशक के दौरान बिहार के सियासी समीकरण और उसके उतार-चढ़ाव को देखें तो सभी सियासी दलों में से असली विजेता भाजपा रही है. हालांकि, हिंदी पट्टी में बिहार एकमात्र ऐसा राज्य रहा है जहां भाजपा कभी भी अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं कर पाई है. जबकि उत्तर प्रदेश, जो कई स्तरों पर बिहार जैसा ही लगता है, में भाजपा लगातार चुनावों में निर्णायक जनादेश हासिल करने में सफल रही है.

जहां, उत्तर प्रदेश में हिंदू एकीकरण जो अच्छी तरह से काम करता नजर आ रहा है, वही बिहार में जातिगत विचारों के आगे झुकता हुआ प्रतीत होता है. नीतीश के भविष्य को लेकर मौजूदा अनिश्चितता भी उसी का परिणाम है. यही समीकरण चुनाव के बाद बिहार को नया आकार देंगे. नीतीश सीएम रहेंगे या नहीं, ये भी उसी से तय होगा.

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