4 चुनावी नारे जिसने पहली बार बिहार की सत्ता से कांग्रेस को किया बेदखल, किसने दिए थे नारे, क्या हुआ असर?
बिहार की राजनीति में 1967 का विधानसभा चुनाव ऐतिहासिक पड़ाव था. इस चुनाव में विरोधी दलों के नेताओं के चार नारे इतने लोकप्रिय हुए कि पहली बार कांग्रेस को सत्ता से बाहर होना पड़ा था. उसके बाद कई राज्यों में कांग्रेस को चुनावी हार का सामना करना पड़ा था. उस दौर में लोहिया, कर्पूरी ठाकुर और महामाया प्रसाद सहाय जैसे नेताओं के नारों ने जनता में आग लगा दी थी. ये नारे सिर्फ चुनावी जुमले नहीं थे बल्कि सामाजिक चेतना और बदलाव की पुकार भी थे.

बिहार में विधानसभा या लोकसभा का चुनाव 1967 में हुए चुनाव का जिक्र के बगैर अधूरी मानी जाती है. यह वो दौर था जब कांग्रेस पतन की ओर बढ़ने लगी थी. सत्ता के गलियारों में पहली बार कांग्रेस की बादशाहत डगमगाती नजर आई. इसकी वजह सिर्फ राजनीति नहीं बल्कि नारे भी थे. वे नारे, जो जनता की ज़ुबान बने, जो भूख, जात और इंसाफ की लड़ाई को आवाज दे गए. बिहार की राजनीति में कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने वाले ये तीन नारे आज भी गूंजते हैं.
वो 4 नारे कांग्रेस को दी सियासी मात
1. 'संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ'
आजादी के बाद पहली बार बिहार में सियासी परिवर्तन की जमीन 1964 से ही तैयार होने लगी थी. प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी के विलय के बाद संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ था. संसोपा को बरगद चुनाव चिन्ह मिला था. संसोपा ने कांग्रेस को पटखनी देने के लिए पिछड़ी, अति पिछड़ी और अनुसूचित जातियों की गोलबंदी की थी. इस कोशिश समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने नारा दिया - 'संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ.' लोहिया का ये नारा चुनाव प्रचार के दौरान समाजवादी आंदोलन का आधार बन गया. उन्होंने पिछड़े वर्गों को सत्ता और समाज में 60 प्रतिशत हिस्सेदारी दिलाने का सीधा संदेश दिया था. कांग्रेस के खिलाफ समाज में गुस्से को एक राजनीतिक दिशा दी थी.
2. 'अंग्रेजी में काम न होगा, देश फिर गुलाम न होगा'
साल 1967 के चुनाव में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) की जीत में अंग्रेजी विरोधी भावना ने भी गहरा प्रभाव छोड़ा था. उस समय गरीब तबके के अधिकांश लोग मैट्रिक में अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण पढ़ाई में पिछड़ रहे थे. वे मैट्रिक पास नहीं कर पा रहे थे. संसोपा ने वादा किया था कि अगर सरकार बनी तो ‘कंपल्सरी इंग्लिश’ खत्म कर देंगे. चुनावी जीत के बाद संसोपा ने अपना वादा निभाया भी.
साल 1967 में महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में संविद सरकार बनी तो कर्पूरी ठाकुर उप मुख्यमंत्री बने थे. शिक्षा विभाग भी उन्ही के पास था. उन्होंने मैट्रिक परीक्षा में अंग्रेजी पास की अनिवार्यता समाप्त कर दी.
3. 'पढ़ाई में बराबरी, नौकरी में हिस्सेदारी'
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और सामाजिक न्याय के पुरोधा कर्पूरी ठाकुर ने 'पढ़ाई में बराबरी, नौकरी में हिस्सेदारी' का नारा दिया था. गरीब, दलित और पिछड़े तबके के लिए कर्पूरी ठाकुर ने इसे अपनी राजनीति की आत्मा बना दिया. शिक्षा और रोजगार के मुद्दे पर कांग्रेस को कटघरे में खड़ा कर दिया. यही सोच आगे चलकर आरक्षण आंदोलन की बुनियाद बनी.
4. 'गली गली में शोर है केबी सहाय चोर हैं'
बिहार विधानसभा चुनाव 1967 के समय पंडित नेहरू का निधन के साथ ही कांग्रेस का ग्राफ तेजी से गिरने लगा था. बिहार कांग्रेस पहले सीएम श्रीकृष्ण सिंह का भी 1961 में देहांत हो चुका था. श्रीकृष्ण सिंह के बाद बिहार कांग्रेस के शीर्ष नेताओं में ऐसी गुटबाजी चरम पर पहुंच गई थी. स्वतंत्रता आंदोलन की पार्टी जनता में अपना जनाधार और विश्वास खोने लगी थी. सीएम पद की कुर्सी के लिए विनोदानंद झा, केबी सहाय, महेश प्रसाद सिन्हा और अनुग्रह नारायण सिंह जैसे शीर्ष नेता आपस में ही लड़ रहे थे. इससे जनता के बीच कांग्रेस की आये दिन किरकिरी होती रहती थी.
कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री केबी सहाय के खिलाफ 1965 तक असंतोष चरम पर पहुंच गया था. 1967 के चुनाव के पहले मुख्यमंत्री केबी सहाय पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगने लगे. उसी समय सड़क से लेकर गलियों में तक में नारा लगता था- 'गली गली में शोर है, केबी सहाय चोर हैं.' उसके बाद कांग्रेस के खिलाफ ऐसी हवा बही जो उसे सत्ता के गलियारों से बाहर उड़ा ले गई.
क्या हुआ इन नारों का असर?
इन नारों ने मिलकर बिहार में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार की नींव रख दी. साल 1967 में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई. पहली बार संयुक्त विधायक दल (SVD) की सरकार बनी. इस बदलाव को भारतीय राजनीति में उस दौर की सबसे बड़ी राजनीतिक क्रांति मानी गई. जातीय समीकरण, समाजवादी विचारधारा और व्यंग्यात्मक नारों ने कांग्रेस की सियासी एकाधिकार का अंत कर दिया.
आजादी की पार्टी कांग्रेस पिछले तीन चुनावों से बिहार में बहुमत हासिल करती आ रही थी, उस क्रम पर ब्रेक लग गया. 318 सीटों पर हुए चुनाव में से उसे केवल 128 सीटें ही मिली. वह बहुमत से बहुत पीछे रह गई. सत्ता उसके हाथ से फिसल गई. संसोपा 68 सीटें जीत कर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी. उसने जनक्रांति दल, प्रसोपा, जनसंघ और कम्युनिस्ट पार्टी के सहयोग से सरकार बनाई.
दरअसल, देश की आजादी के कांग्रेस और उसके कर्ताधर्ता गांधी एवं नेहरू से लोगों का भावनात्मक लगाव था. यही वजह था कि उस दौर में कांग्रेस की सरकार को हराना विपक्ष के लिए संभव नहीं हो पा रहा था. ऐसे में राम मनोहर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर ने 1967 में हुए विधानसभा चुनाव में ऐसे नारे दिए और वो लोगों को इतने पसंद आये कि बिहार ही नहीं देश भर में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी. इतना नहीं, उसके बाद कांग्रेस के हारने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वो आज भी जारी है. बशर्ते, अब तो और तेज हो गई है.