George Fernandes: कर्नाटक में जन्मे जॉर्ज-फर्नांडिस के जिंदगी भर बिहार न छोड़ने की अनकही-कहानी
जॉर्ज फर्नांडिस भारतीय राजनीति की वो अनोखी मिसाल थे, जिन्होंने न जाति देखी, न धर्म, बस हक की लड़ाई लड़ते रहे. मछुआरे परिवार में जन्मे, चर्च से निकले, ट्रेड यूनियन से उठे और फिर इंदिरा गांधी जैसी ताकतवर नेता को भी हिला डाला. बिना औपचारिक पढ़ाई के 15 भाषाएं बोलने वाले जॉर्ज, गरीबों के सच्चे नेता थे. बिहार की जातिवादी राजनीति में उन्होंने पांव जमा दिए, अपने दम पर. जॉर्ज, दोस्त कम और विरोधियों के लिए ‘जी का जंजाल’ ज्यादा थे.

जॉर्ज फ़र्नांडिस... हिंदुस्तान की राजनीति के पटल का वो सितारा, जो अपने घर-परिवार-कुनबा-कौम से दूर रहकर भी, बाकी तमाम कौम की लड़ाई लड़ने वाले नेताओं को हराता रहा. वह जॉर्ज फर्नांडिस जो किसी का दोस्त नहीं रहा. जिसका कोई दुश्मन नहीं रहा. वह जॉर्ज फर्नांडिस जो ईसाई होकर भी बिहार में कभी जात-पांत की और कभी अगड़े-पिछड़ों की सत्ता के गलियारों में धमाचौकड़ी मचाने-मचवाने की राजनीति करते रहे. वह जॉर्ज फर्नांडिस जिन्होंने स्कूल का मुंह नहीं देखा मगर बात करते थे देश-दुनिया की 15-16 भाषाओं में. वह जॉर्ज फर्नांडिस जिनका शुरुआती जीवन में, बिहार और दिल्ली की राजनीति से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था. वह तो मजदूरों-मजलूमों के हक की लड़ाई में ही मस्त थे.
कालांतर में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इन्हीं जॉर्ज फर्नांडिस के पीछे पड़ीं तो जॉर्ज ने न केवल इंदिरा गांधी की, बल्कि पूरी कांग्रेस पार्टी की ही नींद हराम कर दी. जिक्र जब एक जॉर्ज फर्नांडिस के भीतर मौजूद कई-कई कामयाब और निडर इंसानों के समाहित पाए जाने का हो. तब फिर बिहार की राजनीति में धमाके के साथ घुसते ही. बिहार की सत्ता का अंगद बनने की भी उनकी गजब की अनकही कहानी है. उस जमाने में बिहार में जात-पात, अगड़ा और पिछड़ा की राजनीति में जुझारू जॉर्ज फर्नांडिस तुरुप के पत्ते की मानिंद जाकर एकदम बिहार के फ्रेम में फिट बैठ गए. यह कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी.
ऐसी कोशिश भी बेईमानी लगेगी
ऐसे जॉर्ज फर्नांडिस को समझने की कोशिश करना भी बेईमानी लगेगा. क्योंकि जॉर्ज सिर्फ जुझारू इंसान भर नहीं थे. कालांतर में इन्हीं जॉर्ज का जज्बा और जिद भारत की राजनीति के अनगिनत धुरंधरों के लिए ‘जी का जंजाल’ बन गए थे. फिर चाहे वह चौधरी चरण सिंह, मोरारजी देसाई हों या फिर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, राजीव गांधी जैसी कोई बड़ी राजनीतिक हस्ती. जॉर्ज के सामने कौन खड़ा है, यह ज्यादा मायने नहीं रखता था. जॉर्ज किसके सामने खड़े हैं, यह ज्यादा अहमियत रखता था. कह सकते हैं कि जॉर्ज ने अपने जाति-धर्म-भाषा, सूबे से एकदम अलग हटकर, बिहार जैसे राजनीति के गढ़ की पॉलिटिक्स में सिक्का जमा दिया था. वह भी किसी की बैसाखियों पर नहीं, अपने दमखम-बलबूते पर, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी.’ बिहार की राजनीति पटना में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार मुकेश बालयोगी स्टेट मिरर हिंदी के साथ खास बातचीत में बताते हैं.
जॉर्ज फर्नांडिस से मुकेश बालयोगी का संबंध
यह वही मुकेश बालयोगी हैं जो किसी जमाने में ऐसे दुर्लभ और राजनीति के “हेड-मास्टर” जॉर्ज फर्नांडिस के साथ उनकी एक पत्रिका में सहयोगी के बतौर लंबे समय तक जुड़े रहे. दरअसल कुछ महीने बाद ही बिहार में विधानसभा चुनाव होना तय है. ऐसे में जब बिहार की राजनीति का जिक्र हो और उसमें, जॉर्ज फर्नांडिस जैसी विभूति-शख्शियत को शामिल न किया जाए, तो फिर कोई चर्चा पूरी ही कैसे मानी जा सकती है.
जॉर्ज के जंजाल से बचा ही कौन?
कई दशक पहले जॉर्ज के साथ गुजरे खूबसूरत यादगार वक्त के पीले पड़ते जा रहे पन्नों को पलटते हुए मुकेश बालयोगी बताते हैं, “जिन जॉर्ज फर्नंडिस ने 1970 के दशक में कांग्रेस हुकूमत को पानी पिला दिया हो. जोड़तोड़ की राजनीति की महारथी समझी जाने वाली तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी को भी, जिन जॉर्ज फर्नांडिस ने अपनी गजब की चतुर-चालों के जाल में हमेशा उलझाए रखा हो. वह जॉर्ज फर्नांडिस कभी नैतिक रूप से स्कूल-कालेज में तो पढ़ने गए ही नहीं.”
बिहार ने जॉर्ज को, जॉर्ज ने बिहार को समझा
स्कूल पढ़ने क्यों नहीं गए और कैसे देश प्रदेश की हुकूमतों को इसके बाद भी जॉर्ज अपने चाबुक से मर्जी के मुताबिक तमाम उम्र हांकते रहे? पूछने पर पत्रकार मुकेश बालयोगी कहते हैं, “जॉर्ज फर्नांडिस का राजनीति में होना संभावनाओं के परिदृष्य को व्यापक कर देता है. बिहार की राजनीति में जाति सिर्फ पॉलिटिकल एजेंडा भर नहीं है. एक व्यक्ति जब दूसरे से मिलता है. तो वह सबसे पहले सामने खड़े शख्स की जाति मालूम करने में ज्यादा इंट्रेस्टेड रहता है. क्योंकि सामने वाले से कैसा व्यवहार करना है या रखना है, यह उसकी जाति से ही बिहार में तय होता है. ऐसे बिहार में जहां सर्वोपरि जाति ही रही हो. यहां पादरी परिवार ईसाई समुदाय के जॉर्ज फर्नांडिस का आकर अंगद के पांव का सा स्थिर होकर जम जाना, सबसे बड़ी बात थी. उन जॉर्ज के लिए जिन्हें बिहार के क-ख-ग की भी जानकारी अपने मूल प्रदेश कर्नाटक से बाहर निकलने पर नहीं थी.”
नेता-जनता दोनों की कमजोर नस हाथ में थी
बिहार से दिल्ली तक जॉर्ज का जमाना इस बात की गारंटी माना जाता था कि, अगर कोई इंसान या नेता जनता के प्रति, जनता के मुद्दों-समस्याओं के प्रति ईमानदार-जागरूक होगा तो, जनमानस उसे हाथों-हाथ अपने सिर-माथे बैठा लेगी. इसमें किसी 'रॉकेट-साइंस' की जरूरत नहीं है. बिहार की राजनीति में फैले ‘जातिवाद’ और ‘अगड़ा-पिछड़ा’ के ऊपर जॉर्ज फर्नांडिस की इसी सोच ने जबरदस्त चोट की थी. जिसने जातिवाद और अगड़े-पिछड़े की राजनीति को एक ही बार में नेस्तनाबूद कर डाला था.
यूं ही कोई जॉर्ज नहीं बन जाता है
कर्नाटक के मंगलौर शहर में एक मछुआरा परिवार में ईसाई धर्म में जन्म लेने के बाद भी, मुंबई से वाया बिहार, दिल्ली तक की राजनीति के शिखर पर पहुंचने वाले, जॉर्ज फर्नांडिस को ‘नेता’ और ‘जनता’ दोनों की कमजोर नस मालूम थी. वे इन दोनों ही कमजोर नसों को अपने हिसाब से दबाने और छोड़ने के महारथी थे. यही चुनिंदा गुण, जॉर्ज को बिहार की राजनीति के क्षितिज-पटल पर किसी ‘सितारे’ की मानिंद लेकर बैठाने में मील का पत्थर साबित हुए. इसमें कोई दो राय नहीं है.
कई हस्तियों को इस बात में पछाड़ दिया था
स्टेट मिरर हिंदी के एडिटर क्राइम इनवेस्टीगेशन के साथ एक्सक्लूसिव बातचीत में छत्तीसगढ़, बिहार और झारखंड की राजनीति पर कई दशक से पैनी नजर रखने वाले अनुभवी पत्रकार मुकेश बालयोगी कहते हैं, “भले ही जॉर्ज साहब ने कभी स्कूल-कालेज का मुंह न देखा हो. मगर वह इस कदर के गुणी थे कि उन्हें पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहा राव और गोविंदाचार्य और श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद, देश में सबसे ज्यादा भाषाओं का जानकार नेता माना जाता था. कन्नड़ उनकी मातृ भाषा था. मुंबई में ट्रेड यूनियन की राजनीति करने पहुंचते हैं तो वहां वह, मराठी भाषा के ही मीत होकर रह जाते हैं. बिहार पहुंचे तो मैथिली-भोजपुरी धारा-प्रवाह बोलने लगे. इसी तरह अंग्रेजी भाषा पर उनकी पकड़ देखकर कोई नहीं समझ या कह सकता था कि वे कभी स्कूल में पढ़ने गए ही नहीं होंगे. इसके अलावा वे बांग्ला, तमिल-तेलुगू भी वैसे ही बोलते थे जैसे कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा दिल्ली में धारा-प्रवाह हिंदी बोली जाती है.”
जॉर्ज के जन्म का प्रेरणादायक अनकहा किस्सा
जॉर्ज फर्नांडिस के साथ किसी जमाने में उनकी पत्रिका में काम कर चुके मुकेश बालयोगी कहते हैं, “दरअसल जॉर्ज के माता-पिता की कोई संतान नहीं हो रही थी. उनकी मां ने चर्च में जाकर संतान होने की मन्नत मांगी. चर्च के पादरी ने कहा कि संतानें तो कई होंगी, बस उनमें से एक संतान को चर्च-धर्म के लिए दान करना होगा. इसके बाद जब जॉर्ज फर्नांडिस का जन्म हुआ तो, वायदे के मुताबिक कम उम्र में ही उनकी मां ने जॉर्ज फर्नांडिस को तिरुचिरापल्ली (तमिलनाडु) के एक चर्च में पादरी के हाथों में सौंप दिया.
छोटी उम्र में मछुआरा बने, चर्च में रहने लगे
ऐसी विलक्षण-प्रतिभा के धनी जॉर्ज के साथ काम करने का सौभाग्य पा चुके अनुभवी पत्रकार मुकेश बालयोगी बताते हैं, ''जॉर्ज फर्नांडिस का परिवार ईसाई था. इनका परिवार मछुआरा समुदाय से ताल्लुक रखता था. मंगलौर में समुद्र के किनारे ही जॉर्ज का परिवार रहता था. बचपन से ही घर की माली हालत के चलते जॉर्ज ने भी समुद्र में मछली पकड़ कर, खुले बाजार में बेचना शुरू कर दिया. उसके बाद जब जॉर्ज फर्नांडिस की उम्र करीब 7-8 साल हुई तो एक दिन, चर्च के वही पादरी आए और मां से जॉर्ज को वायदे के मुताबिक मांगकर चर्च ले गए. 11-12 साल की उम्र आते-आते जॉर्ज फर्नांडिस चर्च की जिंदगी से ऊबकर वहां से चले गए. हालांकि चर्च छोड़ने से पहले उन्हें पादरी बनने की शिक्षा-दीक्षा दी जा चुकी थी. हां मगर इस सबके बाद भी जॉर्ज फर्नांडिस के पास औपचारिक शिक्षा नहीं थी.”
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एक शख्स की सौ-सौ काबिलियतें
ऐसा नहीं है कि कभी स्कूल न जा पाने वाले जॉर्ज फर्नांडिस सिर्फ जोड़तोड़-जात-पांत, अगड़े-पिछड़े की राजनीति तक ही सिमट कर रह गए थे. 11-12 साल की बेहद छोटी उम्र में चर्च से जाने के बाद वह सीधे मुंबई पहुंचते हैं. वहां ईंट-भट्टे और समुद्र तट पर जाकर मजदूरी करते हैं. जॉर्ज फर्नांडिस की दिलेरी, जिंदादिली, गजब की सूझबूझ-समझ, किसी को भी एक जगह पर ही जमा लेने की कुव्वत रखने वाली भाषण कला, समाज के गरीब-पिछड़े तबके के लिए हद से पार जाकर कुछ कर गुजरने की जिद, ने ही तो उन्हें नेताओं की बाकी तमाम भीड़ में हमेशा अलग करके समाज में दिखाया. जॉर्ज फर्नांडिस की यही खूबियां, उनके विरोधियों के लिए ‘जंजाल’ और जॉर्ज के लिए ‘जुझारू’ बनाने के लिए प्रेरित करती रहीं.
गरीबी-भुखमरी ने बहादुर बना डाला
भले ही जॉर्ज ने किसी किसी स्कूल से शिक्षा ग्रहण न की हो. इसके बाद भी मगर उनकी वाकपटुता में वह काबिलियत कूट-कूट कर भरी थी जिसका लोहा उनके दोस्त और दुश्मन सब मानते थे. जॉर्ज दिमाग से साफ और जुबान के खरे थे. इसलिए भी उनके दोस्तों की संख्या नगण्य और दुश्मनों की भरमार थी. अगर यह कहूं कि जॉर्ज को जिस-जिसने समझने की कोशिश की. या जिसने भी जॉर्ज गिरहबान में झांककर देखना चाहा, उससे ही जॉर्ज हमेशा हमेशा के लिए दूर होते गए. जॉर्ज की जिंदगी ने सुख जितने कम देखे, दुख-संघर्ष-उपेक्षा उतने ही ज्यादा भोगे. यही कारण था कि जॉर्ज फर्नांडिस ने हमेशा गरीब की झोपड़ी में जमीन पर बैठकर भोजन करके, आराम करने के लिए वहीं दरी बिछाकर सो जाने को प्राथमिकता दी. वह गरीबों के हक की लडाई भी यही सोचकर जीवन-पर्यंत लड़ते रहे कि अमीर हर सुविधा को पैसे से खरीद सकता है. गरीब को तो दो जून की रोटी-नमक का जुगाड़ भी अपनी हड्डियां गलवाकर और पसीना बहाकर ही नसीब होगा. इसलिए जॉर्ज ने गरीबों की मलिन-पिछडी बस्तियों में ही तमाम उम्र अपना सुख तलाशा.
शरीर संसद में और आत्मा गरीब-गुरबों में
जुझारू-जिद्दी जॉर्ज फर्नांडिस को लेकर हो रही लंबी विशेष बातचीत के दौरान वरिष्ठ पत्रकार मुकेश बालयोगी जॉर्ज से जुड़ी यादों के और भी तमाम पन्नों को पलटते हुए, काफी कुछ सुनाते और पढ़वाते हैं. मसलन, भले ही जॉर्ज फर्नांडिस बड़े नेता बनने के बाद नई दिल्ली में मौजूद संसद की आलीशान वातानुकूलित इमारत में ही क्यों न बैठे हों. मगर उन्हें वहां भी याद अपने उन्हीं गरीब-गुरबे से जुड़े समर्थकों की ही आती थी, जिन्होंने कर्नाटक के कभी स्कूल न जाने वाले, घर से भागे हुए बालक को ‘जॉर्ज फर्नांडिस’ बनाया था.
जॉर्ज फर्नांडिस आज हमारे आपके बीच बेशक न हों मगर, गरीबों के हक की खातिर हर कानून, हर हद को तोड़ने की ताकत रखने वाले ऐसे जॉर्ज द्वारा किए गए काम आज भी मौजूद हैं. फिर चाहे वह मुंबई में जॉर्ज द्वारा खड़ी की गई ट्रेड यूनियन हो, तमाम विस्थापित तितर-बितर हो चुके दलों- जैसे कि कम्युनिस्ट और कांग्रेस से संबंधित यूनियन और उनके नेता हों. सबके बीच जॉर्ज द्वारा गाड़ा गया अपना झंडा आज भी बुलंदियों पर लहराता हर किसी को दिखाई दे रहा है.
कोलकता की सड़कों पर हाथों में हथकड़ियां
जॉर्ज कैसे हिंदुस्तान के बाकी नेताओं की भीड़ से अलग थे? पूछने पर मुकेश बालयोगी कहते हैं, “दरअसल जॉर्ज की नीयत राजनीति और नेताओं से कई गुना ज्यादा साफ-ईमानदार थी. यही वजह थी कि उन्होंने चाहे तो बाल ठाकरे रहे हों, इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, इंदिरा गांधी या फिर महाराष्ट्र में दत्ता सावंत. सबने जॉर्ज को साम-दाम-दणड-भेद से घुटनों पर लाने के भागीरथ प्रयास किए. मगर दाल किसी की नहीं गली. जॉर्ज को डराने-धमकाने-कमजोर करने के लिए ही, उन्हें एक चर्च के भीतर से गिरफ्तार करके, कोलकता की सड़कों पर हाथों में हथकड़ियां लगाकर घुमाया तक गया था. विरोधियों को उम्मीद थी उस कांड के बाद जॉर्ज का करियर जर्जर हो जाएगा. हुआ इसके एकदम उल्टा. कोलकता की सड़कों पर हथकड़ी डालकर घुमाए जाने के बाद जॉर्ज फर्नांडिस अपनों के ‘हीरो’ बन गए.
यह रिकॉर्ड भी जॉर्ज के ही नाम दर्ज है
हिंद मजदूर किसान पंचायत की स्थापना करने वाले जॉर्ज फर्नांडिस को हमेशा इस बात पर गर्व होता था कि, उन्होंने जिस हिंद मजदूर यूनियन को खड़ा किया वो उनके सामने ही देखते-देखते देश का सबसे बड़ा ट्रेड यूनियन बन गया. आज की पीढ़ी यही देख सकी है कि साल 2020 में कोविड-कोरोना काल की त्रासदी में ही देश-दुनिया में रेलगाड़ियों के पहिए जाम हो गए थे. नहीं ऐसा नहीं है. अब से पहले यही जीवट के मजबूत जॉर्ज फर्नांडिस अपनी यूनियन के बैनर तले साल 1974 में भी 15-16 दिन तक करीब 16 लाख रेल कर्मियों की हड़ताल करवाकर, भारतीय रेलगाड़ी के पहिए जाम करवा कर उस हिंदुस्तानी हुकूमत को घुटनों पर ला चुके थे, जिस हुकूमत की आंख में जॉर्ज फर्नांडिस हमेशा करकते रहते थे.
अपनी कौम के 10 वोट नहीं, फिर भी बिरला ‘नेता’
जिस बिहार में राजपूत बनाम भूमिहार और बाद में अगड़ा और पिछड़ा की राजनीति के अलावा कुछ नहीं चलता था जिस बिहार में जॉर्ज फर्नांडिस की जाति यानी ईसाई समुदाय के 10 वोट भी नहीं थे. उस बिहार की राजनीति में जॉर्ज फर्नांडिस का ‘अंगद का सा पांव’ बन जाना केवल इत्तिफाक रहा होगा क्या? पूछने पर वरिष्ठ पत्रकार मुकेश बालयोगी बोले, “जॉर्ज फर्नांडिस के बारे में यही कहना चाहूंगा कि आज जॉर्ज भले हमारे बीच न हों मगर, अब आजाद भारत की आने वाली नस्लों के बीच भी आइंदा शायद ही कोई ऐसा वह जॉर्ज फर्नांडिस जन्म लेगा जो पादरी-ईसाई परिवार में जन्म लेने के बाद भी, डंके की चोट पर अपने बलबूते ‘समाजवादी’ बनकर दुनिया से कूच किया हो. जॉर्ज का मानना था कि दुनिया की किसी भी समस्या का समाधान शांति से संभव नहीं है. न ही यह हिंसा से ही संभव हो सकता है. वो कहते थे कि अगर शांति से ही समाधान होना होता तो फिर न रामायण लिखी जाती. न राम और रावण का युद्ध होता. न ही फिर भगवान कृष्ण को महाभारत के युद्ध के लिए कुरुक्षेत्र सजाना होता. हजरत मुहम्मद को भी बद्र की जंग न लड़नी पड़ती अगर समस्या का समाधान अहिंसा से ही होता. न ही जीसस क्राइस्ट को सूली पर ही चढ़ना होता.
जॉर्ज फर्नांडिस का मानना था कि हिंसा में भी एक अनुशासन, बड़े महान लक्ष्य हों, नैतिकता का भी समभाव मौजूद हो. त्याग-समर्पण और अगर मानव जाति के हित के लिए हिंसा हो, तो वह हिंसा की श्रेणी में नहीं आना चाहिए.”