Pahalgam Attack: सीने पर AK-47 आपके रखी थी, जान बचाने को मोदी-राजनाथ पहुंचते! आप कुछ करेंगे या नहीं? EXCLUSIVE
हमें गंभीरता से सोचना यह चाहिए कि मनहूस हो चुकी बैसरन में जब आतंकवादी, एके-47 राइफलों से निहत्थे-निर्दोष भारतीयों को भून रहे थे तब, वहां मोदी और राजनाथ सिंह उसी वक्त फंसे हुए नागरिकों की जान बचाने को सऊदी अरब और दिल्ली से बैसरन घाटी में वह कैसे अवतरित हो सकते थे?

‘पहलगाम की बैसरन घाटी में बीते मंगलवार (22 अप्रैल 2025 को) दिनदहाड़े जो कुछ हुआ, वह भारत और दुनिया की रूह कंपा देने के लिए काफी है. जो गुजर गया उस पर मिट्टी मत डालिए. उससे सबक लेकर आगे बढ़िये. पहलगाम नरसंहार (Pahalgam Terrorist Attack) कश्मीर घाटी (Kashmir Valley) की छाती पर काला धब्बा है. मैं ही नहीं बता रहा हूं दुनिया को पता चल गया है. यह धब्बा क्यों और कैसे लगा? भारत की कौन-कौन सी लापरवाह एजेंसियां इसके लिए जिम्मेदार है? आतंकवादी कौन थे? यह सब हिंदुस्तानी हुकूमत खंगालने में जुटी है.
इसकी चिंता भी हमें (आमजन) करने की कोई जरूरत नहीं है. हमें गंभीरता से सोचना यह चाहिए कि मनहूस हो चुकी बैसरन में जब आतंकवादी, एके-47 राइफलों (AK-47 Rifle) से निहत्थे-निर्दोष भारतीयों को भून रहे थे तब, वहां मोदी (PM Narendra Modi) और राजनाथ सिंह (Defense Minister Rajnath Singh) उसी वक्त फंसे हुए नागरिकों की जान बचाने को सऊदी अरब (Saudi Arab) और दिल्ली से बैसरन (Baisaran Valley) घाटी में वह कैसे अवतरित हो सकते थे? जिनके सीने पर गोलियां पड़ रही थीं वे तो अपनी जान बचाने को इधर उधर भाग ही रहे थे. जो गोलियों के निशाने पर कभी भी आ सकते थे वे भी, अपनी जान बचाने के लिए कोई सुरक्षित जगह तलाश रहे थे. ऐसे में शिकवा यह कि पीएम मोदी (PM Modi) और रक्षामंत्री (राजनाथ सिंह) कहां थे तब?
हड़बड़ाने के बजाए अगर ऐसा कर लिया होता...
अरे भाई जब आतंकवादी और आप आमने-आमने थे. आतंकवादियों ने एके-47 राइफलों के मुंह आपके सीनों की ओर खोल रखे थे. वह (आतंकवादी) चार पांच थे. तब ऐसे में मौके पर मौजूद 100-150 (यह संख्या कम बढ़ भी हो सकती है क्योंकि मैं घटनास्थल पर मौजूद चश्मदीद नहीं हूं) लोग कर क्या रहे थे? सिवाए अपनी-अपनी जान बचाने की उम्मीद में इधर उधर भागने के...! चिंता की बात यह है कि आमजनों की उस भागदौड़ के बाद भी आतंकवादियों ने 26 निहत्थे-निर्दोष बदकिस्मतों को मार डाला. जब मौत का नंगा तांडव हो ही रहा था. मौत तय ही दिखाई देने लगी थी. तो क्या उस भीड़ में इतना भी साहस नहीं हुआ जो वह एकजुट होकर ईंट-पत्थर या, मौके पर मौजूद तंबूओं (खाने पीने के लगे हुए स्टाल्स) के लाठी-डंडों का ही इस्तेमाल करके आतंकवादियों की राह का रोड़ा बन जाती?
भीड़ से घिरने पर आतंकवादी खुद को बचाते
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि निहत्थी भीड़, एके-47 राइफलों से लैस ट्रेंड आतंकवादी इससे डरकर भाग जाते. हां, इतना जरूर है कि अगर भीड़ से वे खुद को घिरता हुआ पाते, तो छांट-छांटकर एक-एक को गोलियों का निशाना बनाने का मौका आतंकवादियों को आसानी से हाथ नहीं लगता. पर्यटकों की किस्मत अगर कहीं साथ दे जाती तो संभव था कि, आतंकवादी भीड़ से घिरा पाकर खुद को सुरक्षित बचा ले जाने के लिए भाग खड़े होते. संभव था कि भीड़ को अपने ऊपर आता देखकर आतंकवादी एक-दो बार ही फायरिंग करके भाग खड़े हुए होते. और चार-छह कैजुअल्टी ही होती. बाकी लोग जीवित बच जाते.
जरूरत जिगर-जज्बे की थी...भागने की नहीं!
भारतीय फौज (Indian Army) की लंबे समय तक मेजर/कर्नल की नौकरी करने और, भारत पाकिस्तान के बीच साल 1999 में हुई कारगिल-वॉर में हिस्सा लेने के, निजी अनुभव से यह सब बयान कर रहा हूं. जिसके मुताबिक दुश्मन आपके ऊपर तभी तक हावी होता है जब तक उसकी नजर में आप कमजोर या डरपोक हैं. वरना अगर आप निहत्थे होकर भी दुश्मन की नजर में खुद को ‘झूठे तौर पर ही बहादुर’ सिद्ध कर जाएं, तो दुश्मन के पांव उखड़ने की प्रबल संभावना रहती है. पहलगाम कभी न भुलाया जाने वाला दर्द और कभी न भरने वाला ज़ख्म है. इसलिए इस पर मैं ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहता हूं. सिवाए इसके कि मुसीबत में इंसान के साथ कोई नहीं होता है सिवाए उसके हौसले और जज्बे के.
मोदी-राजनाथ सिंह कैसे पहुंचें मौके पर?
मैंने मीडिया में ही देखा-पढ़ा सुना है कि पहलगाम घटना को लेकर यह उम्मीद की जा रही थी कि, पीएम मोदी और रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने तत्काल कुछ नहीं किया! मैं किसी की सिपहसलारी में नहीं बोल-कह रहा हूं मगर, ऐसा कहने-सोचने वालों से सवाल जरूर करता हूं कि, घटना वाले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सऊदी अरब में थे. भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह भी घटना स्थल से मीलों दूर थे. हमारी खुफिया और सुरक्षा एजेंसियां पहले से ही पहलगाम की बैसरन घाटी की सुरक्षा को लेकर सोई हुई पड़ी थीं. एके-47 जैसे घातक स्वचालित हथियारों से लैस आतंकवादी गोलियां निहत्थों-निर्दोषों पर बरसा रहे थे. ऐसे में सवाल यह पैदा होता है कि हजारों-सैकड़ों मील दूर मौजूद प्रधानमंत्री-रक्षामंत्री से तत्काल मौके पर पहुंचने की उम्मीद करने वाले, उन तमाम लोगों की भीड़ खुद क्या कर सकी, जिसके सीनों पर एके-47 राइफलों से गोलियां बरसाई जा रही थीं?
कारगिल वॉर योद्धा की बात में तो दम है
आप आतंकवादियों के आमने-सामने होकर कुछ नहीं कर सके, सिवाए अपनी-अपनी जान बचाने की गरज से इधर उधर भागने के. और उम्मीद यह कि हजारों सैकड़ों मील दूर मौजूद प्राइम मिनिस्टर-डिफेंस मिनिस्टर मौके पर पहुंच जाते? प्रैक्टिकली सोचिए कि दोनो बातों में संभव क्या था? पीएम और डिफेंस मिनिस्टर का मौके पर पहुंच पाना...या फिर आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो रहे लोगों की भीड़ का ही एकजुट होकर, आतंकवादियों के खूनी इरादों में बाधा डाल देना? बेहद सकारात्मक सोच वाली यह तमाम बेबाक-बैखौफ और बेहद काम की बातें कहिए यह सवाल-जवाब स्टेट मिरर के साथ साझा किए हैं, भारतीय फौज के पूर्व रणबांकुरे कर्नल (रिटायर्ड) उदय प्रताप सिंह चौहान ने.
पहलगाम नरसंहार होना तय था...
उत्तराखंड के रुद्रपुर में मौजूद उदय प्रताप सिंह चौहान नई दिल्ली में मौजूद स्टेट मिरर हिंदी के एडिटर क्राइम से एक्सक्लूसिव बात कर रहे थे. कारगिल वॉर में पाक अधिकृत कश्मीर में (POK) पाकिस्तान की छाती पर जा चढ़ने के चलते, दुश्मन सेना (पाकिस्तानी फौज) के हमले में बुरी तरह जख्मी हो चुके उस समय के भारतीय फौज (Indian Army) के मेजर उदय प्रताप सिंह चौहान (Colonel Uday Pratap Singh Chauhan) तब, बोफोर्स तोप (Bofors) के बैटरी कमांडर हुआ करते थे. स्टेट मिरर हिंदी ने हिंदुस्तानी फौज के इस जाबांज बहादुर और, कारगिल वॉर (Kargil War) के पूर्व योद्धा से पूछा था कि, क्या पहलगाम कांड को रोका जा सकता था और कैसे? हमारे इसी सवाल के जवाब में उन्होंने दो टूक खरी-खरी कही और बोले, “नहीं पहलगाम होना तय था. क्योंकि हमारी सभी वह सभी एजेंसियां गहरी नींद में सो रही थीं जिनके कंधों पर कश्मीर (Kashmir Terror Attack) की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई थी. हां, हमारी एजेंसियां अगर सतर्क होतीं तो पहलगाम स्थित बैसरन घाटी कभी श्मशान-कब्रिस्तान नहीं बनती.”