नेहरू ने जाति पर वोट को लेकर किया था आगाह, विदेश में कायस्थ-राजपूत, ब्राह्मण...', पढ़ें 73 साल पुराना वो किस्सा

आजादी के बाद बिहार में संपन्न पहले विधानसभा चुनाव में जवाहरलाल नेहरू ने जातिवादी राजनीति न करने की चेतावनी दी थी, लेकिन कांग्रेस के नेता इस पर सहमत नहीं हुए. भूमिहार जाति का समर्थन कर रहे थे. जबकि राजपूत और कायस्थों ने जाति का विरोध किया था. कांग्रेस बड़ी दुविधा में थी, क्योंकि उसके तीन सबसे बड़े चेहरे इस मुद्दे पर बंटे हुए थे.;

Curated By :  धीरेंद्र कुमार मिश्रा
Updated On : 18 Aug 2025 4:37 PM IST

जाति की राजनीति नई नहीं बल्कि नेहरू के समय से ही होती आई है. हालांकि, इसको लेकर देश के पहले पीएम जवाहरलाल नेहरू काफी नाराज रहते थे. उन्होंने पहले बिहार विधानसभा चुनाव में ही पार्टी के नेताओं को चेतावनी दी थी कि यदि राजनीति में जाति का असर बढ़ेगा तो लोकतंत्र और समाज दोनों को नुकसान होगा. इसलिए, जाति के नाम पर राजनीति न करें. 73 साल पहले उन्होंने बिहार के मतदाताओं से कहा था कि जब आप विदेश जाएंगे तो वहां के लोग आपको भारतीय नागरिक के रूप में पहचानेंगे, न कि ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ, यादव या अन्य जाति के नाम से. नेहरू ने पार्टी के नेताओं को साफ शब्दों में कहा था कि भारत में लोकतंत्र की बुनियाद जातियों से ऊपर उठकर ही मजबूत हो सकती है. आइए, जानते हैं जाति के नाम पर जारी राजनीति की 73 साल पुरानी कहानी.

यह बात 1952 की है. जब देश में पहली बार लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराए गए थे. हर राज्य की तरह बिहार में भी दोनों चुनाव कराए गए थे. चूंकि देश की आजादी में क्योंकि कांग्रेस ने एक अहम भूमिका निभाई थी, उसकी लोकप्रियता चरम पर थी. विपक्ष के नाम के लिए थी. फिर भी, विपक्ष तो विपक्ष तो होता है, इस बात को लेकर नेहरू हमेशा सतर्क रहते थे. पंडित जवाहर लाल नेहरू उस जमाने में सबसे बड़े स्टार प्रचारक हुआ करते थे. लोगों में उनकी लोकप्रियता गजब की थी. लोगों उनकी बात पर अटूट भरोसा करते थे. कांग्रेस पार्टी पूरी तरह से नेहरू पर ही निर्भर थी, लेकिन बिहार में नेहरू के सामने एक बड़ी चुनौती अपनों से भी मिली थी.

नेहरू ने जाति के मसले पर जताई थी नाराजगी

पंडित नेहरू नहीं चाहते थे कि बिहार विधानसभा या लोकसभा का चुनाव जाति के नाम पर हो, लेकिन बिहार उस एक्सपेरिमेंट में उनके कार्यक्रम से पहले बहुत आगे बढ़ चुका था. जाति को मुद्दा बनते देख उन्होंने एक मौके पर नाराजगी भरे लहजे में कहा था, 'मैं भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, कायस्थ या अन्य किसी जाति के लोगों से यहां मिलने नहीं आया हूं. मैं भारतीयों से मिलने आया हूं. अगर आप विदेश जाएंगे तो आपका स्वागत बिहार के राजपूत, ब्राह्मण, भूमिहार, कायस्थ और यादव के तौर पर नहीं बल्कि आजाद भारत के नागरिक के रूप में होगा.

दो गुट में बंट गए थे कांग्रेस नेता

जवाहर लाल नेहरू के इस बयान और चेतावनी के बावजूद बिहार कांग्रेस कार्यकर्ताओं के दिमाग में ये बात ज्यादा नहीं घुसी नहीं. बिहार कांग्रेस तो शुरुआत में ही समझ चुकी थी कि बिना जाति के ना बिहार जीता जा सकता है और ना ही बिहार के लोगों का समर्थन मिल सकता है. बिहार में हर सीट पर जाति के आधार पर ही प्रत्याशियों का चयन हो रहा था. जाति के नाम पर कई सीटों पर कांग्रेस के ही उम्मीदवारों के खिलाफ पार्टी के दूसरे नेता गोलबंदी तक कर रहे थे. ये सबकुछ हो रहा था सिर्फ जातिवाद की वजह से.भूमिहार जाति के लोग इसका समर्थन कर रहे थे. राजपूत और कायस्थ जाति वाले इसका विरोध. कांग्रेस पार्टी दुविधा में थी. इसलिए कि उसके तीन सबसे बड़े चेहरे इस मुद्दे पर बंटे हुए थे.

श्री कृष्ण सिंह भूमिहार जाति से आते थे, अनुग्रह नारायण सिंह राजपूत थे और राजेंद्र प्रसाद कायस्थ थे. पहले ही चुनाव में कांग्रेस एक मुद्दे पर एकजुट नहीं हो पाई. नेहरू ने दिल्ली पहुंचकर अबुल कलाम आजाद को पटना भेजा था. इसका मकसद चुनाव को जातिवादी होने से रोकना था. राजेंद्र प्रसाद तो राष्ट्रपति बन गए, लेकिन कृष्ण सिंह और अनुग्रह सिन्हा के बीच पार्टी पर कब्जे को लेकर मतभेद बने रहे.

गजब की थी दोनों की सियासी केमिस्ट्री

यह स्थिति उस समय थी जब कृष्ण सिंह और अनुग्रह सिन्हा की सियासी केमिस्ट्री दमदार लगती थी, लेकिन अंदर ही अंदर कई मुद्दों पर असहमति भी दोनों में थी. यही वजह है कि जमींदारी सिस्टम बिहार के पहले चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा बन गया.

जेपी ने उठाया था पिछड़े वर्ग का मसला

जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेता भी अपनी पहचान बना रहे थे. वे भी इसे भुनाने में लग गए. कांग्रेस को वैसे तो किसी पार्टी से मुकाबला नहीं मिल रहा था. फिर भी बात जब किसी विरोधी पार्टी की होती थी, तो सबसे पहला नाम सोशलिस्ट पार्टी का आता था. 1930 में कांग्रेस पार्टी में ही दो फाड़ हुई थी और तब जेपी और राम मनोहर लोहिया जैसे नेताओं ने सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया था. बिहार के पहले चुनाव में जेपी हमेशा अपने भाषणों में पिछड़े वर्ग का जिक्र करते थे.  

जाति के अलावा नेहरू के जमाने में भी भ्रष्टाचार भी दूसरा सबसे बड़ा मुद्दा चुनाव में था. रोटी-कपड़ा-मकान का नारा भी तब शुरू हो चुका था. इन सबके बीच लोगों में वोटिंग को लेकर जागरूकता बहुत कम थी.

उम्मीदवारों के नाम से रखे गए थे बैलेट बॉक्स

बिहार में 1952 में साक्षरता दर 13.4 फीसदी थी. बैलेट बॉक्स को लेकर सहमति न बनने पर पहले चुनाव में बिहार में कुल 1,81, 38,956 मतदाताओं को वोट डालना था. नेताओं के सामने समस्या यह थी कि वोटरों को कैसे समझाया जाए? कौन से प्रत्याशी का क्या चुनाव चिन्ह क्या है? दुविधा में एक एक्सपेरिमेंट किया गया कि एक सीट पर जितने भी उम्मीदवार होंगे, उनके नाम का अलग रंग का बैलेट बॉक्स भी वहां रखा जाएगा.

कृष्ण सिंह ने मारी बाजी, बन गए सीएम

बता दें कि आजादी के बाद 1952 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव 330 सीटों पर वोटिंग हुई थी. कुल मतदान 42.6 फीसदी मतदान हुआ था. कांग्रेस काफी आसानी से चुनाव जीत गई थी. 330 में से 239 सीटें उसने अपने नाम की, दूसरे नंबर पर सोशलिस्ट पार्टी रही और 23 सीटें हासिल कर पाई. नतीजों के बाद सहमति के साथ कृष्ण सिंह को बिहार का पहला मुख्यमंत्री बनाया गया.

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