क्या लालू यादव की राजद को दलितों से दिक्कत है, पार्टी में दलित नेताओं की क्यों है कमी?
Bihar Chunav 2025: साल 2000 के विधानसभा चुनाव के आते आते लालू यादव की राजनीति 'मंडलीकरण' से 'धर्मनिरपेक्षीकरण' और फिर 'यादवीकरण' के त्रिस्तरीय बदलाव का चक्र पूरा कर चुका था. आरजेडी प्रमुख ने 2000 में मुजफ्फरपुर के दलित नेता रमई राम को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाकर दलितों का समर्थन हासिल करने की भी कोशिश की थी.

बिहार की राजनीति पिछले कई दशकों से लालू यादव प्रमुख चेहरा बने हुए हैं. साल 2020 के चुनाव में भी आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई थी. इसके बावजूद आरजेडी सरकार नहीं बना पाई. 1990 से लेकर अब तक लालू यादव की राजनीति कई दौर से गुजर चुकी है. दलितों की आवाज बुलंद करने के बाद उन्होंने मुस्लिम यादव गठजोड़ पर जोर दिया. राबड़ी देवी का सीएम बनने के बाद उन्होंने एमवाई के साथ सवर्णों को अपने साथ जोड़ लिया, लेकिन दलित आरजेडी में पिछड़ गए, ऐसा क्यों?
दलित नेताओं की कमी नहीं- नवल किशोर यादव
राष्ट्रीय जनता दल के मुख्य प्रवक्ता प्रोफेसर नवल किशोर यादव का कहना है कि ऐसा नहीं है कि आरजेडी में दलित नेताओं की कमी है. या पार्टी की ओर से उन्हें उम्मीदवार कम बनाए जाता हैं. उन्होंने कहा कि आज भी पार्टी में कमल पासवान, पीतांबर पासवान, उदय नारायण चौधरी उसी समुदाय से आते है।. उदय नारायण जी उपाध्यक्ष भी हैं. आरजेडी का आने वाले दिनों में दलित प्रकोष्ठ का एक्टिव कार्यक्रम भी होने वाला है.
आरजेडी की भी सरकार बनी हैं, दलितों को भागीदारी मिली है. विगत सरकार में भी रेखा पासवान सहित दो लोगों को मंत्री बनाया गया था. वर्तमान विधानसभा में ही 8 से 10 पार्टी के दलित विधायक हैं. कुछ प्रत्याशी साल 2020 में चुनाव हारे भी थे. जबकि आरजेडी 243 में से 144 सीटों पर ही चुनाव लड़ी थी. बिहार में जातिगत सर्वेक्षण भी आरजेडी का दबाव की वजह से ही पीएम मोदी सरकार ने करने का फैसला लिया था.
फिर, आरजेडी दो तरह की चुनावी बातों पर जोर दे रही है. पहली बात यह है कि हमारी पार्टी राजनीति जनसरोकार के मसले पर लड़ती है. दूसरा सभी की हर स्तर पर भागीदारी पार्टी का मूलमंत्र है. इसमें सभी आ जाते हैं. ऐसे में ये कहना कि दलितों आरजेडी से कम करीब पूरी तरह से आधारहीन है.
गुर प्रकाश पासवान: RJD का राष्ट्रीय अध्यक्ष कोई दलित बना क्या?
बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता गुरुप्रीत पासवान का कहना है कि आरजेडी जब से अस्तित्व में आई है तब से लेकर अभी तक दलितों को पार्टी के कुछ प्रमुख पदों पर जिम्मेदारी क्यों नहीं मिली? उनका सवाल है कि क्या आरजेडी वाले बताएं कि उनकी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष केवल लालू यादव ही क्यों हैं, कोई दलित कभी राष्ट्रीय अध्यक्ष क्यों नहीं बना? इसी तरह लोकसभा राज्यसभा, विधानसभा, विधान परिषद के नेता दलित समुदाय से कब बने? वर्तमान में ही देख लीजिए कि पार्टी में दमदार दलित नेता कौन हैं? उन्होंने कहा कि जिस दल का राष्ट्रीय प्रमुख ही अंबेडकर का अपमान करे, वहां पर दलितों को सम्मान या बड़ी जिम्मेदारी मिलने की गुंजाइश कहां बचती हैं.
राजनीति का आधार ही दलित- एज्या यादव
बिहार आरजेडी की प्रवक्ता ऐज्या यादव का कहना है कि आरजेडी को दलितों का समर्थन कम हासिल है, यह पूरी तरह से गलत है. लालू यादव जी की राजनीति का आधार ही दलित, गरीब और कमजोर तबके के लोगों का कल्याण है? आरजेडी प्रमुख आज भी बिहार में गरीब गुरबों की सबसे बड़ी आवाज है. चाहे आप बात रविदास, पासवान, डोम या अन्य जातियों की ही क्यों न करें, आज भी वे लोग आरजेडी का ही समर्थन करते हैं.
यह सवाल पूछे जाने पर कि फिर आरजेडी 2005 के बाद से अभी तक अपने दम पर सरकार क्यों नहीं बनाई? इसके जवाब में उनका कहा कि बिहार में क्या नीतीश कुमार अपने दम पर सीएम बनते हैं? बीजेपी वाले भी उन्हीं के साथ मिलकर सत्ता में आ पा रहे हैं. बिहार में किसी एक पार्टी अपने दम पर अपनी सरकार कहां बना पा रही है?
आरजेडी में दलित कमजोर क्यों?
आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव छात्र जीवन से राजनीति से जुड गए थे. 1969 में उन्होंने समाजवादी नेता शिवानंद तिवारी के नेतृत्व में आयोजित पहली राजनीतिक रैली में भाग लिया था. इसी रैली से लालू यादव ने दलित समुदाय के मुद्दे को उठाकर अपने राजनीतिक जीवन की दमदार शुरुआत की थी. साढ़े पांच दशक से भी अधिक समय बाद आरजेडी प्रमुख डॉ. बी.आर. अंबेडकर के जन्मदिन समारोह के दौरान 11 जून को उनके चित्र को फर्श पर रखकर कथित रूप से विवाद के केंद्र में आग गए.
बीजेपी ने इस मौके को लपक लिया. अब बीजेपी इस मसले को अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहती है. बीजेपी का दावा है कि दलितों का हमेशा से आरजेडी प्रमुख अपमान करते आए हैं. बीजेपी के इस रुख की वजह से आरजेडी दबाव में है. अब सवाल ये उठ रहे हैं कि आरजेडी के पास अनुसूचित जाति के इतने कम चेहरे क्यों हैं? एक युवा छात्र के रूप में आरजेडी प्रमुख की पहली रैली दलितों के बारे में कथित अपमानजनक टिप्पणियों के विरोध में थी. जबकि उन्होंने ओबीसी और उच्च जातियों का समर्थन हासिल किया, उनकी पार्टी दलितों के प्रतिनिधित्व में पीछे कैसे रह गई?
दरअसल, साल 2000 के विधानसभा चुनाव के आते आते लालू यादव की राजनीति ने 'मंडलीकरण' से 'धर्मनिरपेक्षीकरण' और फिर 'यादवीकरण' तक त्रिस्तरीय बदलाव का चक्र पूरा कर चुका था. आरजेडी प्रमुख ने 2000 में आरजेडी में शामिल हुए मुजफ्फरपुर के दलित नेता रमई राम को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाकर दलितों का समर्थन हासिल करने की भी कोशिश की थी.
साल 1990 और 1995 के बीच सीएम के रूप में अपने पहले कार्यकाल के दौरान लालू यादव ने 'गरीब गुरबा (गरीब लोगों)' के लिए काम किया. उन्होंने उन्होंने दलितों के मुद्दे को उठाकर अपनी राजनीति शुरू की. तब वे राजनीति में आगे बढ़े. साल 1995 के विधानसभा चुनावों के बाद लालू की राजनीति में बदलाव आया. उन्होंने एक खास मुस्लिम-यादव समर्थन आधार तैयार करना शुरू कर दिया. चारा घोटाले में कथित संलिप्तता के कारण उनके सीएम पद से हटने और 1997 में उनकी पत्नी राबड़ी देवी के मुख्यमंत्री बनने के बाद आरजेडी ने कुछ उच्च-जाति के नेताओं जैसे पूर्व सांसद रघुवंश प्रसाद सिंह, जगदानंद सिंह और प्रभुनाथ सिंह की मौजूदगी के साथ मुस्लिम-यादव छवि को और अधिक मजबूत करना शुरू कर दिया.