नतीजों में दूर-दूर तक नहीं जन सुराज, क्या इन वजहों से बिहार चुनाव में फेल हुई प्रशांत किशोर की रणनीति?
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में प्रशांत किशोर की नई राजनीतिक प्रयोग जन सुराज पार्टी को मतदाताओं से वह भरोसा नहीं मिला, जिसकी उम्मीद की जा रही थी. शुरू से ही पार्टी ने नए विचार, बेहतर शासन और जातिगत समीकरणों को चुनौती देने का संदेश दिया, लेकिन परिणामों ने दिखा दिया कि चुनावी धरातल पर यह प्रयोग सफल नहीं हो सका.
जब बिहार की राजनीति गर्मी में तपे मैदान की तरह सुलग रही थी, तब प्रशांत किशोर एक नई कहानी लिखने निकले थे. कभी देश के सबसे प्रभावशाली राजनीतिक रणनीतिकार माने जाने वाले पीके ने सोचा कि अब वक्त है कि रणनीतियां छोड़कर खुद मैदान में उतरना चाहिए. तीन साल से ज्यादा समय तक गांव-गांव घूमते हुए उन्होंने जन सुराज यात्रा चलाई, हजारों लोगों से बातचीत की, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर लंबी चर्चाएं कीं.
पीके ने बार–बार कहा कि बिहार को जात और धर्म की राजनीति से ऊपर उठाकर नई राजनीति की ज़रूरत है.पर जब मतगणना शुरू हुई, तो नतीजों ने दिखा दिया कि बदलती राजनीति की यह कहानी फिलहाल ठहर गई है. जन सुराज पार्टी न तो मजबूत पकड़ बना पाई और न ही लोगों की उम्मीदों का केंद्र बन सकी. बिहार के इस चुनावी दंगल में उनकी लड़ाई दिखने से पहले ही थकती सी लगी. ऐसे में चलिए जानते हैं किन वजहों से बिहार चुनाव में फेल हुई प्रशांत किशोर की रणनीति.
राजनीतिक धरातल पर नया प्रयोग
प्रशांत किशोर ने पार्टी की शुरुआत इस सोच के साथ की थी कि बिहार के राजनीतिक समीकरणों को हिला दिया जाए. शुरुआत में घोषणा की गई कि जन सुराज सभी 243 सीटों पर उम्मीदवार उतारेगी. लेकिन आखिरी वक्त पर यह नंबर घटकर 240 रह गई. कई कैंडिडेट्स ने नाम वापस ले लिया या पार्टी छोड़ दी. इससे यह मैसेज गया कि संगठनात्मक मजबूती अभी दूर की बात है. इसके अलावा, किशोर का मॉडल पारंपरिक राजनीतिक ढांचे से अलग था. उन्होंने किसी जाति या धर्म के सहारे की जगह सुशासन की बात रखी. लेकिन बिहार की सियासत, जहां जातीय समीकरण दशकों से रीढ़ की हड्डी बने हुए हैं, वहां यह प्रयोग चल नहीं पाया. ग्रामीण इलाकों में पार्टी का नाम तो बहुतों ने सुना, लेकिन निशान पहचाना नहीं गया. उत्सुकता थी, पर भरोसा नहीं.
संगठन की नई सोच और पुरानी मुश्किलें
जन सुराज की सबसे बड़ी चुनौती उसका ढांचा था. पार्टी ने पारंपरिक कैडर सिस्टम की जगह एक भुगतान आधारित कार्यबल तैयार किया था. विचार यह था कि पेशेवर तरीके से काम होगा, अनुशासन रहेगा और राजनीति में नया पेशेवर अंदाज दिखेगा. मगर नतीजा उल्टा हुआ. पुराने कार्यकर्ता खुश नहीं हुए, कई जिलों में खींचतान बढ़ी, और उम्मीदवारों को लेकर विरोध तक दर्ज हुआ. संगठन के भीतर असंतोष उस वक्त और खुलकर सामने आया जब कुछ प्रमुख चेहरे जैसे पूर्व आईपीएस अधिकारी आनंद मिश्रा पार्टी छोड़कर चले गए. किशोर ने इन मतभेदों को 'आंतरिक मामूली विवाद' बताकर टालने की कोशिश की, लेकिन ग्राउंड रिपोर्ट्स ने बताया कि कई जिलों में मनमुटाव अब खुली जंग बन चुका था.
जातीय सियासत के सामने बेबस विचार
बिहार की राजनीति का ताना–बाना आज भी जातीय और धार्मिक समीकरणों पर टिका है. महागठबंधन की ओर मुस्लिम और पिछड़ी जातियों के वोट का झुकाव साफ दिखा. दूसरी ओर, भाजपा और एनडीए गठबंधन ने अपने पारंपरिक वोटबैंक को कायम रखा. इन दोनों के बीच जन सुराज जैसी नई पार्टी के लिए जगह बहुत सीमित रह गई. जन सुराज का नैरेटिव था कि बिहार ‘नए विचारों’ की राजनीति अपनाए. लेकिन जनता के सामने 'कौन सरकार बना सकता है' यह बड़ा सवाल था. विकास और सुशासन का एजेंडा बच्चों की परीक्षा की तरह मुश्किल हो गया, सही जवाब मालूम था, पर परीक्षा का पैटर्न ही अलग था.
राजनीतिक ताकत के बिना सुरक्षा कवच नहीं
किशोर ने चुनाव से पहले आरोप लगाया कि भाजपा ने उनके कई उम्मीदवारों पर दबाव डालकर नाम वापस करवाया. उन्होंने इसे ‘लोकतंत्र की हत्या’ कहा. अगर ये आरोप साबित नहीं हुए, लेकिन उनके असर ने पार्टी की नैतिक ऊर्जा को कम किया. जन सुराज के उम्मीदवारों को न तो राजनीतिक संरक्षण मिला और न ही संसाधनों की समुचित मदद. बिहार की राजनीति में जहां जमीनी स्तर पर संरचनाएं और गठबंधन सबसे बड़ी ताकत होती हैं, वहां यह कमी साफ दिखाई दी.
प्रशांत किशोर का चुनाव में न होना
जन सुराज अभियान की यात्रा के दौरान प्रशांत किशोर हर मंच पर दिखाई दिए, लेकिन जब चुनाव का वक्त आया तो वे खुद मैदान में नहीं उतरे. बिहार में यह एक बड़ा मनोवैज्ञानिक मैसेज देता है. यहां नेतृत्व का सीधा मुकाबले में उतरना ही भरोसे का प्रतीक माना जाता है. जब नेता खुद वोट मांगने न पहुंचे, तो मतदाता भी संदेह में पड़ गया कि क्या यह आंदोलन गंभीर है या केवल प्रयोगात्मक?किशोर का राजनीतिक विमर्श बौद्धिक वर्ग में सराहा गया, लेकिन ग्रामीण इलाकों में उनका संदेश भावनात्मक जुड़ाव नहीं बना पाया. आम मतदाता को वह आवाज नहीं मिली जो जोश और भरोसा दोनों जगाती.





