कहानी उस CM की जो चुनाव प्रचार करते थे, बिना सिक्योरिटी के सभी से मिलते थे, पर नहीं मांगते थे 'Vote'
बिहार के पहले मुख्यमंत्री थे श्रीकृष्ण सिंह थे. वह चुनाव के दौरान लोगों से मिलते थे. सभी तरह की बातें करते थे. बड़ी-बड़ी रैलियों को भी संबोधित करते थे, पर जनता से वोट देने की अपील नहीं करते थे. वो एक ऐसे सीएम थे, जिन्होंने कांग्रेस राज में अपना कार्यकाल पूरा किया. जनता में लोकप्रिय भी थे. जमींदारी प्रथा का उन्मूलन करने का श्रेय उन्हीं को है.

भारतीय राजनीति में अक्सर नेता चुनाव प्रचार के दौरान वोट मांगने के लिए जन सभाओं और रैलियों में जाते हैं, लेकिन एक ऐसे मुख्यमंत्री भी हुए, जिनका अंदाज बिल्कुल अलग था. वे बिना भारी सिक्योरिटी के गांव-गांव, गली-मोहल्लों में निकल पड़ते, आम लोगों से सहजता से मिलते-जुलते, समस्याएं सुनते और समाधान का भरोसा देते. खास बात यह कि वे जनता से कभी सीधे तौर पर “वोट” नहीं मांगते थे, बल्कि जनता उनके व्यवहार और कामों से ही अपना निर्णय करती थी. जी हां! मैं, बात कर रहा हूं, बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की, जिन्हें प्यार से लोग 'श्री बाबू' कहते थे.
बिहार के 'शिल्पकार' थे श्रीकृष्ण सिंह
उन्हें आज भी बिहार केसरी के नाम से याद किया जाता है. श्रीकृष्ण सिंह को आधुनिक बिहार का शिल्पकार (आर्किटेक्ट) कहा जाता है. उनके दौर में बिहार में औद्योगिक विकास भी बड़े पैमाने पर हुआ. हालांकि, जिस क्षेत्र में उनके समय में औद्योगिक विकास को बढ़ावा दिया गया, वो अब झारखंड का हिस्सा है.
किसी से नहीं मांगते थे 'वोट'
जहां पर भी लोकतांत्रिक व्यवस्था है, वहां के राजनेता चुनाव दौर में लोगों से वोट मांगते हैं, लेकिन श्रीकृष्ण बाबू बिहार में विधानसभा चुनाव के दौर में प्रत्याशियों के लिए तो क्या, अपने लिए भी वोट नहीं मांगते थे. वह कहते थे, 'पांच साल यदि हमने काम किया है, तो मुझे वोट मांगने की जरूरत नहीं पड़ेगी. अगर नहीं काम नहीं किया है, जनता उस लायक नहीं समझती है, तो मुझे वोट क्यों देगी?'
दरअसल, श्री बाबू 1946 में बिहार के पहले मुख्यमंत्री बने थे. वह 1961 तक इसी पद पर रहे. उनसे जुड़ा यह किस्सा साल 1957 का है, उस वक्त वह शेखपुरा जिले के बरबीघा से वह चुनाव लड़ रहे थे. उस दौरान उन्होंने अपने सहयोगियों से स्पष्ट कर दिया था कि इस चुनाव में वह जनता से वोट मांगने नहीं जाएंगे.
जमींदारी खत्म करने से हुए लोकप्रिय
श्री बाबू के बारे एक बात और है, जो गांव और शहर के बुजुर्ग याद करते हुए सुनाते हैं. वो यह है कि श्रीकृष्ण सिंह अपने उसूलों से कभी कोई समझौता नहीं करते थे. इसके अलावा, बिहार में जमींदारी प्रथा खत्म करने का श्रेय भी उन्हें ही दिया जाता है. प्रदेश के बुजुर्ग बुजुर्ग इस बात की भी चर्चा करते हैं कि जब वह सीएम थे तो कई बार अपने गांव भी जाते थे. उस वक्त वह अपने सुरक्षाकर्मियों को गांव के बाहर ही छोड़ देते थे. वह कहते थे कि यह मेरा गांव है. यहां मुझे कोई खतरा नहीं है. बिहार के लोग आज भी कहते हैं कि श्री बाबू कभी अपने क्षेत्र में वोट मांगने नहीं आते थे.
इसके अलावा, उन्होंने बिहार के सामाजिक, शैक्षिक और औद्योगिक विकास में भी श्रीकृष्ण सिंह ने ऐतिहासिक योगदान दिया था. जानें उनके कार्यकाल के दौरान अलग-अलग क्षेत्रों में किए गए कार्य.
शिक्षा : पूर्व सीएम श्रीकृष्ण सिंह की सरकार ने उच्च शिक्षा का प्रसार बड़े पैमाने पर किया था. उनके प्रयासों से पटना यूनिवर्सिटी 1952 में बनी और उच्च शिक्षा का नया दौर प्रदेश में शुरू हुआ. तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए पटना इंजीनियरिंग कॉलेज (अब NIT पटना) और कई टेक्निकल संस्थानों के विकास हुआ. गांव-गांव तक स्कूल खोलने और लड़कियों की शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने नीतियां बनाईं और उस पर अमल कराया.
औद्योगिक विकास : सीएम नीतीश कुमार पिछले 20 साल से सीएम है, लेकिन औद्योगिक विकास के क्षेत्र में उनका योगदान शून्य था. लेकिन श्रीकृष्ण सिंह ने उस दौर में भी बिहार को उद्योगों का हब बनाने की कोशिश की. उनके कार्यकाल के दौरान बिहार में बिहार स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड और कोसी प्रोजेक्ट जैसी योजनाएं पर अमल शुरू शुरू हुआ. चितरंजन लोकोमोटिव वर्क्स, बोकारो और रांची क्षेत्र के औद्योगिक विकास की नींव उन्हीं के समय रखी गई थी. चीनी, लोहा–इस्पात, कोयला और माइनिंग उद्योग को बढ़ावा दिया गया.
गरीब कल्याण : बिहार में जमींदारी उन्मूलन अधिनियम (1950) लागू करने से किसानों को सामंतों से आजादी मिली. उन्होंने अस्पृश्यता और जातिगत भेदभाव के खिलाफ कई अभियान चलाए. सीएम ने खुद समाज सुधार आंदोलनों का नेतृत्व किया.
कौन थे श्रीकृष्ण सिंह?
बिहार के मुंगेर (अब शेखपुरा) जिलें में जन्में श्रीकृष्ण सिंह ने अपनी पढ़ाई लिखाई पटना से की. साल 1937 में श्रीकृष्ण सिंह बिहार के पीएम बने. आजादी के बाद पहली बार हुए चुनाव में कांग्रेस पार्टी को 200 से अधिक सीटें मिली थी. इस बार मौका था बिहार के सीएम चुनने का. कांग्रेस के दो नेता आमने-सामने थे एक तरफ श्रीकृष्ण सिंह तो वहीं दूसरे तरफ अनुग्रह नारायण सिंह. श्रीकृष्ण सिंह भूमिहार जाति से थे तो अनुग्रह नारायण सिंह राजपूत जाति से. लेकिन सियासी लड़ाई में बाजी श्रीकृष्ण सिंह ने मारी. श्रीकृष्ण ने अपने कार्यकाल के दौरान बिहार से जमींदारी प्रथा को समाप्त करने का प्रयास किया. श्रीकृष्ण सिंह का देहांत साल 1961 में हुआ.
ईमानदारी के मिसाल थे बिहार के पहले सीएम
श्रीकृष्ण सिंह का निधन होने के बाद उनकी निजी तिजोरी में मात्र 24,500 रुपये मिले, जो विभिन्न सामाजिक और व्यक्तिगत कार्यों के लिए रखे गए थे. यह उनकी सादगी और ईमानदारी का प्रतीक था. इसके अलावा, उन्होंने होने साथ ही वह परिवार वाद के विरोधी भी थे. जब तक वह जीवित रहे, अपने बेटे को चुनाव नहीं लड़ाया. वह कहा थे एक परिवार से एक ही शख्स को राजनेता होने चाहिए. इसके बावजूद वह तत्कालीन पीएम जवाहर लाल नेहरू के करीबी थे.