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कभी थे 'वन मैन आर्मी', पर अब नहीं रहा वो करिश्‍मा! क्‍यों टूट रहा लालू यादव का तिलिस्म? कहीं ये वजह तो नहीं...

Lalu Yadav Politics: एक दौर था जब बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव एक आवाज देते थे तो पटना के गांधी मैदान में लाखों लोगों का रैला लग जाता था. अब वो अपने भरोसे पर भीड़ नहीं जुटा पाते. अब उनकी बातों पर आरजेडी के समर्थक पहले सोचते हैं, फिर कोई फैसला लेते हैं. यही कारण है कि अन्य सियासी दलों की तरह उनकी सभा के लिए भी आरजेडी के नेताओं को भीड़ जुटाने के लिए काफी जोर लगाना पड़ता है.

कभी थे वन मैन आर्मी, पर अब नहीं रहा वो करिश्‍मा! क्‍यों टूट रहा लालू यादव का तिलिस्म? कहीं ये वजह तो नहीं...
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Lalu Prasad Yadav News: बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव दशकों तक ‘किंगमेकर’ और ‘भीड़ खींचने वाले नेता’ रहे हैं. दूसरा बात ये कि पिछले चार दशक में बिहार के सियासी हालात बदल गए हैं. इस बीच उन्हें चारा घोटाले में अदालत द्वारा दोषी करार देने से जेल भी जाना पड़ा. उनके समर्थक आज भी बिहार में सबसे ज्यादा हैं, लेकिन अब अंध भक्त बहुत कम हैं. अब उनके पुराने साथी भी उनके साथ नहीं हैं. नीतीश कुमार तो उनके सबसे बड़े सियासी दुश्मन हैं. राजनीति के मुद्दे भी बदल गए हैं. यही वजह है कि बिहार में उनका असर वैसा नहीं रहा, जैसा 1990 के दशक और शुरुआती 2000 के दौर में दिखता था.

इससे पहले साल बिहार विधानसभा चुनाव 1990 और 1995 में अपने दम पर जनता दल की सरकार बनाई. उसके बाद वो किंगमेकर बन गए थे. एचडी देवेगौडा और आईके गुजराल को पीएम बनवाने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई थी. सीएम पद से हटने और जेल जाने के बाद भी उन्हीं के नाम पर राबड़ी देवी बिहारी की तीन बार सीएम बनीं. सवाल यह है कि क्या लालू का सियासी 'जादू' अब फीका पड़ गया? जानिए, पीछे की वजह.

1. स्वास्थ्य और उम्र का असर

पिछले कुछ सालों से राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव की सेहत लगातार खराब रही है. वह लंबे समय तक जेल और अस्पताल की दुश्वारियों से जूझते रहे हैं. नतीजा यह हुआ कि वह एक्टिव पॉलिटिक्स से दूर हो गए. जनता से से जमीन पर उनका संपर्क कट गया, जिसने उनके सियासी तिलिस्म को कमजोर कर दिया. फिर, उम्र के इस पड़ाव पर वे पहले जैसी चुनावी रणनीति और जमीनी सक्रियता नहीं दिखा पा रहे हैं. जबकि जेपी के समग्र क्रांति के नारे वाले आंदोलन यानी 1975 के बाद से 2009 तक वह बिहार की राजनीति में अहम चेहरा बने रहे. आज भी लालू यादव का परिवार बिहार का सबसे बड़ा सियासी परिवार है. उन्होंने बिहार की राजनीति को नई दिशा दी. बीजेपी के लौह पुरुष लाल कृष्ण आडवाणी भगवान श्रीराम मंदिर निर्माण को लेकर देशव्यापी रथ यात्रा को समस्तीपुर में रोककर दुनिया भर में छा गए. उसके बाद जो उनका जादू चला तो उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.

2. भ्रष्टाचार ने धूमिल की छवि

बिहार सहित देश भर में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं है. भारतीय राजनीति का यह एक अहम हिस्सा रहा है, लेकिन लालू यादव चारा घोटाले से जुड़े पांच केस में ऐसे फंसे की उससे कभी उबर नहीं पाए. अभी भी वो स्वास्थ्य के नाम पर जमानत लेकर जेल से बाहर हैं. चारा घोटाले में रांची हाईकोर्ट के फैसले और जेल यात्रा ने उनकी 'गरीबों के मसीहा' वाली छवि को गहरा झटका दिया. जनता का भरोसा पहले की तरह इंटैक्ट नहीं रहा.

3. जातीय समीकरण

बिहार की राजनीति हमेशा से जातीय आधार होती आई है. अभी भी लोग जात के नाम पर वोट डालते हैं. लालू यादव यादव–मुस्लिम समीकरण (MY) के दम पर फर्श से अर्श तक पहुंचे. अब समीकरण बदल गए हैं. मंडल-कमंडल की राजनीति का दौर नहीं रहा. इसी दौर में लालू गरीबों का मसीहा बनकर उभरे थे. दलित, अति पिछड़ा वर्ग, यादव और यहां तक की मु​स्लिम वोट बैंक में भी सेंधमारी करने में सफल रहे थे.

महादलित और कुर्मी वोट पर नीतीश का एकाधिकार है. सवर्ण ओर ओबीसी वोट बैंक पर बहुत हद तक बीजेपी ने कब्जा जमा लिया है. चिराग पासवान, जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी क्रमश: दुसाध और पासवान, मल्लाह, कोइरी और दलित वोट बैंक के ठेकेदार बन बैठै हैं. प्रशांत किशोर युवा मतदाताओं को अपने पाले में करने के लिए पिछले तीन साल से लगातार यात्रा पर हैं. यानी लालू के वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा इन नेताओं ने झटक लिया, जो कभी उनके साथ थे.

तेजस्वी यादव ने साल 2020 बिहार विधानसभा चुनाव में सभी को साथ लेकर चलने की रणनीति के तहत आरजेडी को लालू यादव के जेल में रहते हुए भी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभारने में सफलता हासिल की थी, लेकिन अब वो अपने पिता के गढ़े 'एमवाई' फार्मूले पर ही चुनाव लड़ने का एलान कर चुके हैं.

4. नई पीढ़ी का प्रभाव

लालू यादव की जगह अब तेजस्वी यादव RJD का चेहरा बन चुके हैं. नई पीढ़ी के एक बड़े तबकों में तेजस्वी का असर है, लालू वाला करिश्मा देखने को नहीं मिलता. युवाओं में तेजस्वी की छवि तो बनी है, लेकिन लालू के मुकाबले उनका अनुभव और जमीन से जुड़ाव कम है.​ फिर लीक से हटकर चलने वाले अपने पहले के एजेंडे से हटने से सवर्ण जातियों को निराशा हाथ लगी है.

साल 2020 में जो उनका साथ दे रहे थे, उनमें से अधिकांश का मन बदल चुका है. यानी आरजेडी का पुराने वोटर और नई पीढ़ी के बीच कनेक्शन कमजोर हो गया है. बिहार में युवाओं की आबादी 50 प्रतिशत से ज्यादा है. इन युवाओं के बीच प्रशांत किशोर मजबूती से एक्टिव हैं, उनकी कोशिश है कि प्रदेश के इस बड़े वोट बैंक पर क्यों न जन सुराज की सफलता का पर्याय बना लें. यही वजह है कि पीके जाति की बात नहीं करते. वो जाति और धर्म से हटकर भविष्य निर्माण के नाम पर युवाओं की बात करते हैं. यही आरजेडी की चुनौती है.

5. बिहार की बदलती राजनीति

बिहार में जाति भले ही आज भी बड़ा सियासी मसला है, लेकिन उससे बड़ा मुद्दा अब विकास, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य हो गया है. चिराग पावसान पिछले छह सालों से 'बिहारी अस्मिता' को जोर शोर से उठा रहे हैं. 'बिहार फर्स्‍ट, बिहारी फर्स्ट' नारे के दम पर युवाओं के बीच लोक प्रिय हो चुके हैं. प्रशांत किशोर बिहार के अभिभावकों से दुत्कारते हुए कहते हैं, अगर आपने कम से कम अपने बच्चों के लिए सोच लिया होता, उन्हें आज ये दिन देखने नहीं पड़ते. दो रोटी के लिए उन्हें दूसरे राज्यों में जाकर जलालत का सामना नहीं करना पड़ता. नीतीश कुमार और बीजेपी वाले विकास की बात करते हैं. यानी अब केवल जातीय समीकरण या भाषणों के दम पर चुनाव जीतना मुश्किल है.

जनता अब ठोस काम और रोजगार के अवसर चाहती है. जबकि लालू यादव की राजनीति जो "सामाजिक न्याय" और "विरोधी खेमों पर कटाक्ष" पर टिकी थी, जो आज के दौर में वो कारगर नहीं है. कुल मिलाकर, लालू यादव का तिलिस्म अब पहले जैसा असरदार नहीं रहा. स्वास्थ्य, भ्रष्टाचार के मामले, बदलते जातीय समीकरण और नई राजनीति की मांग ने लालू के करिश्मे को कमजोर किया है.

6. पुराने साथी नहीं रहे उनके साथ

लालू प्रसाद यादव ने 1990 के दशक से लेकर 2000 के शुरुआती वर्षों तक बिहार की राजनीति में एकछत्र राज किया. वे "सामाजिक न्याय" और "MY (मुस्लिम-यादव)" समीकरण के बल पर सत्ता में बने रहे, लेकिन आज स्थिति यह है कि उनके साथ वे पुराने साथी नहीं बचे, जिन्होंने लालू की ताकत गढ़ी थी. उनके साथी नीतीश कुमार, शरद यादव, रामविलास पासवान, मुलायम सिंह यादव, जॉर्ज फर्नांडीस और कई क्षेत्रीय नेता या तो विपक्ष में चले गए या नए राजनीतिक समीकरण बना लिए. नीतीश कुमार आज उनके सबसे बड़े सियासी दुश्मन हैं. जॉर्ज, शरद और मुलायम तो अब इस दुनिया में रहे भी नहीं.

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