आजादी के बाद ही POK हो जाता भारत का हिस्सा, नेहरू और पटेल के बीच क्या थी खटपट जो यूएन तक पहुंची बात?
पीओके (पाक-अधिकृत कश्मीर) को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद लंबे समय से चला आ रहा है. विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा कि भारत PoK की वापसी का इंतजार कर रहा है. जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इस पर तंज कसा. वहीं, ब्रिटिश राजनेता फिलिप नोएल-बेकर की भूमिका को कश्मीर विवाद में भारत-विरोधी माना जाता है.
पीओके यानी पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर एक बार फिर चर्चा में है. पहले तो जम्मू-कश्मीर विधानसभा में इस पर बहस हुई कि पीओके में कहीं ज्यादा तरक्की हुई है, जिसके जवाब में सीएम उमर अब्दुल्ला ने कहा कि यह केवल सीमा के सटे इलाके में है और वो भी चीन के पैसे से. वहीं दूसरी ओर लंदन में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने एक पाकिस्तानी पत्रकार को करारा जवाब देते हुए कश्मीर को लेकर कहा कि भारत ने अधिकांश समस्याओं का समाधान कर लिया है. जयशंकर ने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (PoK) को लेकर कहा कि भारत अब उस हिस्से की वापसी का इंतजार कर रहा है, जो पाकिस्तान ने चोरी कर लिया है. उन्होंने भरोसा जताया कि जब PoK भारत में वापस आएगा, तो कश्मीर मुद्दे का पूर्ण समाधान हो जाएगा.
इसपर जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने जयशंकर के इस बयान पर प्रतिक्रिया दी. उन्होंने विधानसभा में कहा कि अगर सरकार PoK को वापस लाना चाहती है, तो उसे कोई रोक नहीं रहा. उन्होंने तंज कसते हुए कहा कि क्या किसी ने विदेश मंत्री को PoK वापस लाने से रोका है? लेकिन उन्हें कश्मीर के उस हिस्से पर भी बात करनी चाहिए जो चीन के कब्जे में है.
तो पीओके के बारे में आपने भी सुना ही होगा, इसका नाम भी जानते होंगे, कुछ हद तक इससे जुड़ा विवाद और इतिहास भी शायद जानते हों. लेकिन क्या आप इसके बनने में अंग्रेजों और जवाहरलाल नेहरू की क्या भूमिका रही, यह शायद आप नहीं जानते होंगे. चलिए हम बताते हैं...
कश्मीर विवाद और नोएल-बेकर की भूमिका
ब्रिटिश राजनेता और नोबेल शांति पुरस्कार विजेता फिलिप नोएल-बेकर का नाम कश्मीर विवाद में एक महत्वपूर्ण हस्ती के रूप में सामने आता है. वे ब्रिटिश सरकार और संयुक्त राष्ट्र में प्रभावशाली व्यक्ति थे और भारत-पाकिस्तान विवाद पर खुलकर राय रखते थे. हालांकि, उनकी भूमिका को अक्सर भारत-विरोधी रुख के रूप में देखा गया. उनका दृष्टिकोण और नीतियां भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर चल रही खींचतान में एक निर्णायक कारक बन गई.
ब्रिटेन की पाकिस्तान समर्थक नीति
नोएल-बेकर ब्रिटिश लेबर पार्टी के सदस्य थे और विभाजन के समय ब्रिटिश सरकार में एक प्रमुख पद संभाल रहे थे. 1947 में जब भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग राष्ट्र बने, तो कश्मीर का भविष्य अधर में था. पाकिस्तान का मानना था कि मुस्लिम बहुल होने के कारण कश्मीर को उसका हिस्सा बनना चाहिए, जबकि भारत ने महाराजा हरि सिंह के विलय प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया. इसी दौर में ब्रिटेन का झुकाव पाकिस्तान की ओर ज्यादा दिखा, और नोएल-बेकर भी इसी नीति का समर्थन करते रहे.
संयुक्त राष्ट्र में भारत के खिलाफ पक्षपात
1947-48 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद जब भारत ने कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में उठाया, तो पश्चिमी देशों, विशेष रूप से ब्रिटेन और अमेरिका ने पाकिस्तान का समर्थन किया. नोएल-बेकर ने सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान के पक्ष में दलीलें दीं और भारत पर दबाव बनाने की कोशिश की कि वह कश्मीर में जनमत संग्रह कराए. भारत ने इसका विरोध किया, क्योंकि पाकिस्तान पहले ही पाक अधिकृत कश्मीर (PoK) पर कब्जा कर चुका था और उसने अपनी सेना वहां तैनात कर दी थी.
नेहरू और नोएल-बेकर के बीच मतभेद
जवाहरलाल नेहरू को उम्मीद थी कि संयुक्त राष्ट्र निष्पक्ष रहेगा, लेकिन ब्रिटेन और अमेरिका के रुख से वे निराश हुए. नोएल-बेकर लगातार पाकिस्तान का समर्थन कर रहे थे और भारत को जनमत संग्रह के लिए राजी करने की कोशिश कर रहे थे. इससे भारत सरकार को यह महसूस हुआ कि पश्चिमी देश कश्मीर मुद्दे पर निष्पक्ष नहीं थे और इस वजह से भारत और ब्रिटेन के संबंधों में तनाव बढ़ गया.
कुलदीप नैयर ने की थी नेहरू की आलोचना
पत्रकार और लेखक कुलदीप नैयर ने कश्मीर विवाद पर व्यापक रूप से लिखा और इसे अपनी किताबों में प्रमुखता से स्थान दिया. उन्होंने अपनी आत्मकथा 'एक जिन्दगी काफी नहीं' में भारत-पाकिस्तान के बीच उत्पन्न तनाव पर विस्तार से चर्चा की है. नैयर का मानना था कि पंडित जवाहरलाल नेहरू की कश्मीर नीति में कुछ रणनीतिक चूक हुईं. विशेष रूप से, उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में इस मामले को ले जाने और जनमत संग्रह के विचार को स्वीकार करने को एक महत्वपूर्ण भूल बताया.
बायोग्राफी में लिखी हमले की कहानी
कुलदीप नैयर, अपनी बायोग्राफी एक जिन्दगी काफी नहीं में लिखते हैं, "आजादी की घोषणा के बाद लोग अब भी एक देश से दूसरे देश में पलायन कर रहे थे. तभी मैंने कबाइलियों के कश्मीर में घुसने की खबर सुनी. मुझे पहलगांव में अपने परिवार के साथ गुजारे सुहाने दिनों की याद आ गई, जहां हम हर वर्ष जाया करते थे. पंजाबी हिन्दू और सिख परिवारों के लिए पहलगांव में गर्मी की छुट्टियां बिताना बड़ी आम बात थी. हम सब यही मानकर चल रहे थे कि कश्मीर भारत का ही हिस्सा होगा.
राजतंत्र की जगह प्रजातंत्र चाहते थे नेता
जम्मू और कश्मीर के महाराजा हरीसिंह ने स्वाधीनता की घोषणा कर दी. नई दिल्ली चाहती थी कि महाराजा शेख अब्दुल्ला के साथ कोई समझौता करें, जो कश्मीर के सबसे लोकप्रिय नेता थे और राजतंत्र की जगह प्रजातंत्र लाने के लिए 'कश्मीर छोड़ो आन्दोलन' का नेतृत्व कर रहे थे. मुझे ऐसा लगता है कि अगर पाकिस्तान ने थोड़ा धैर्य दिखाया होता तो उसे अपने-आप ही कश्मीर मिल जाता। भारत इसे जीतने की कोशिश न करता और एक हिन्दू महाराजा आबादी के स्वरूप को नजरअन्दाज न कर पाता, जिसमें मुसलमानों का प्रबल बहुमत था. लेकिन पाकिस्तान ने अधीरता और जल्दबाजी से काम लेते हुए आजादी के कुछ ही दिन बाद कबाइलियों को अपनी नियमित सेना के साथ कश्मीर में दाखिल करवा दिया.
पटेल थे भारत में मिलाने के खिलाफ
यह सच है कि नेहरू कश्मीर को भारत में मिलाना चाहते थे, लेकिन पटेल इसके खिलाफ थे. शेख अब्दुल्ला ने कई वर्ष बाद एक इन्टरव्यू (21 फरवरी, 1971) में मुझे बताया था कि पटेल ने उनके साथ बहस करते हुए कहा था कि चूंकि कश्मीर मुसलमानों की बहुसंख्या वाला क्षेत्र था, इसलिए उसे पाकिस्तान में मिलाना चाहिए. जब महाराजा ने इसे भारत के साथ मिलाने की इच्छा प्रकट करते हुए नई दिल्ली को निमंत्रण दिया, तब भी पटेल ने कहा था, "हमें कश्मीर में टाँग नहीं अड़ानी चाहिए। हमारे पास पहले ही बहुत-सी समस्याएं हैं."
बातचीत से करना चाहते थे कश्मीर विवाद का हल
कश्मीर के भारत में मिलने से सिर्फ तीन दिन पहले पटेल के नाम लिखे गए नेहरू के एक पत्र में उनकी चिन्ता बिलकुल साफ झलकती है. 27 सितम्बर 1947 को लिखे गए इस पत्र में नेहरू ने कहा था, "इस तरीके से काम किया जाना चाहिए ताकि शेख अब्दुल्ला के सहयोग से कश्मीर का जल्दी से जल्दी भारत में विलय हो सके." शांति प्रक्रिया के प्रबल समर्थक रहे नैयर का मानना था कि कश्मीर का स्थायी समाधान केवल कूटनीति और आपसी संवाद के माध्यम से ही संभव है, न कि सैन्य संघर्ष से. उनके अनुसार, यदि दोनों देशों की सरकारें आपसी विश्वास को मजबूत करने और सार्थक संवाद को प्राथमिकता देने के लिए तैयार हों, तो कश्मीर विवाद का हल निकाला जा सकता है.





