EXCLUSIVE: फौज का मुंह नहीं देखा नाम ‘कर्नल सिंह’, IITian जाट-पुत्र के IPS से DG और ED डायरेक्टर बनने के मजेदार किस्से
पूर्व आईपीएस और प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक रहे कर्नल सिंह का जीवन संघर्षों से भरा रहा. जाट परिवार में जन्म लेकर IIT पास करने के बाद वे IPS बने और कई अहम जिम्मेदारियां निभाईं. उनके नेतृत्व में दिल्ली पुलिस ने शार्प-शूटर तैयार किए और आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई की. कर्नल सिंह ने कभी किसी दबाव में काम नहीं किया और अपने बच्चों को उनकी पसंद का करियर चुनने की आज़ादी दी. ईडी और पुलिस में भ्रष्टाचार पर भी उन्होंने खुलकर बात की.

इस मृत्युलोक में जन्म लेने के बाद होश संभालने से लेकर जीवन की अंतिम सांस तक, इंसान इसी उधेड़बुन-आपाधापी के मकड़जाल में ‘उलझा’ रहता है कि यह क्या-क्या हासिल कर लूं. जमाने को अपनी जद-हद में समेट कर यह बन जाऊं वह बन जाऊं आदि-आदि. इस मायावी दुनिया के किसी भी इंसानी फितरती दिमाग की यह हवाई योजनाएं-कल्पनाएं, कब किधर कहां गिर-बिखर कर कब तितर-बितर हो जाएं कोई नहीं जानता है.
24 अगस्त 1957 को यानी अब से करीब 68 साल पहले जन्मे, किशोरावस्था और जवानी के दिनों में कुछ इसी तरह के रहे जाट-पुत्र कर्नल सिंह भी रहे होंगे. वही कर्नल सिंह जिन्होंने देश की राजधानी दिल्ली के शाहदरा इलाके के मोहल्ला महारान में ऐसे खांटी “जाट-परिवार” में पिता ओम प्रकाश सिंह और मां शान्ति देवी के यहां जन्म लिया था, जहां उस जमाने में पढ़ाई-लिखाई को तब तवज्जो कम या कहिए न के बराबर ही दी जाती थी.
दिल्ली पुलिस में ‘शार्प-शूटर्स’ के “जन्मदाता”
सोचिए कि ऐसी कौम में जन्मे कर्नल सिंह कालांतर में कैसे-कैसे किन-किन झंझावतों से हवा के विपरीत झूझते हुए शिक्षा की दुनिया में आईआईटीएन (IITटीएन) बन सके होंगे. उसके बाद भारतीय पुलिस सेवा (Indian Police Service IPS) के दबंग काबिल अफसर बने होंगे, जिन्होंने कालांतर में देश और दिल्ली पुलिस को सहायक पुलिस आयुक्त (एसीपी) राजवीर सिंह (जिनके बेटे रोहित राजवीर सिंह दिल्ली पुलिस में डीसीपी और आईपीएस हैं), रिटायर्ड डीसीपी रवि शंकर कौशिक, बटला हाउस खूनी एनकाउंटर में शहीद इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा जैसे गजब के सरकारी-शूटर-निशानेबाज दिए. जिक्र उन्हीं पूर्व आईपीएस और भारत के प्रवर्तन निदेशालय के पूर्व निदेशक कर्नल सिंह का जो गुजरात के सनसनीखेज कथित इशरत जहां एनकाउंटर के लिए बने विशेष जांच दल यानी एसआईटी के प्रमुख भी बनाए गए थे.
एक कर्नल सिंह के तमाम ‘काम’
तो आइए जानते हैं किसी जमाने में केंद्र शासित राज्य मिजोरम के पूर्व पुलिस महानिदेशक (DGP Mizoram) रहे, और पुलिस की नौकरी में खामोशी के साथ दबे पांव सैकड़ों ‘धमाकेदार’ काम कर चुके पूर्व आईपीएस कर्नल सिंह के अतीत की सच्ची कहानी उन्हीं की मुहंजुबानी. जो उन्होंने 20 अगस्त 2025 को “स्टेट मिरर हिंदी” के एडिटर क्राइम इनवेस्टीगेशन को नई दिल्ली के कौटिल्या मार्ग स्थित अपने पुत्र अर्चित सिंह की लॉ कंपनी मुख्यालय में सुनाई. बेबाक-बेतकल्लुफ बातचीत शुरू हुई तो बेहद कम मगर नाप-तौल कर बोलने के लिए मशहूर कर्नल सिंह बोले, “दादा देवी सिंह पहलवानी किया करते थे. शाहदरा में घर के करीब ही उनका अपना अखाड़ा था. यूपी के एक 25 साल के युवा पहलवान ने मेरे 62 साल के दादा को अखाड़े में कुश्ती लड़ने की चुनौती दे दी. तमाशबीनों ने जब देखा कि 62 साल के मेरे दादा उस 25 साल के युवा पहलवान से अखाड़े में कुश्ती लड़ने की हामी भरे बैठे हैं. तो सबने दांतों तले उंगली दबा ली. कुछ तमाशबीन मन ही मन यह भी सोच रहे थे कि वह कुश्ती मेरे दादा के जीवन की कहीं अखाड़े में अंतिम कुश्ती न सिद्ध हो जाए. बहरहाल इन सबके बीच कुश्ती हुई और नतीजा यह रहा कि मेरे उम्रदराज दादा ने उस 25 साल के महाबली से युवा पहलवान को चंद सेकेंड में अखाड़े में चित कर दिया. ऐसे मेरे दादा देवी सिंह की प्रबल इच्छा थी कि उनका बेटा ओम प्रकाश सिंह (मेरे पिता) फौज में कर्नल-अफसर बने. मेरे पिता तो फौज में नहीं जा सके. तो दादा ने सोचा कि उनके पोते (मैं और मेरे भाईयों में से कोई भी) पुलिस में कर्नल-मेजर बन जाए. दादा की यह भी हसरत पूरी नहीं हुई.
दादा की अधूरी हसरत और विधि का विधान
हां, दादा की तसल्ली के लिए मेरे पिता ने मेरा नाम “कर्नल सिंह” और बड़े भाई का नाम “कप्तान सिंह” रख दिया. तब दादा जी अपनी आखिरी सांस तक यही सोचकर तसल्ली में रहे कि उनका बेटा (यानी मेरे पिता) अगर फौज में कर्नल नहीं बन सके तो कोई बात नहीं. कम से कम पोता तो फौजी अफसर बन जाएगा. ऐसा मगर कभी हो नहीं सका. परिवार में हम छह भाई कप्तान सिंह (उत्तर प्रदेश सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण विभाग प्रमुख पद से रिटायर्ड), श्याम सिंह (गुरुग्राम हरियाणा में रसायन-विज्ञान प्रोफेसर), ईश्वर सिंह (एमए बीएससी कृषक), जगत सिंह (दिल्ली सरकार के फिजिकल एजूकेशन शिक्षक), पांचवें नंबर पर मैं खुद (कानपुर से आईआईटी इंजीनियरिंग-आईपीएस) और छठे नंबर पर भाइयों में सबसे छोटे भूपेंद्र सिंह (उत्तर प्रदेश सरकार के पशु-चिकित्सक पद से सेवानिवृत्त हुए) रहे. विधि के विधान में नहीं लिखा था कि हम छह-छह भाइयों में से कोई भी अपने दादा की चाहत के मुताबिक, फौज में कर्नल या मेजर बन सके तो नहीं बना.
उनके तानों ने “एक्सीटेंडल-IPS” बना डाला
मैं तो आईपीएस (भारतीय पुलिस सेवा अफसर) के लिए भी कतई इच्छुक नहीं था. हालातों ने मगर कालांतर में ऐसे मुकाम पर ला खड़ा किया कि जब पढ़ाई लिखाई पूरी हो गई और नौकरी की तलाश शुरु की तो, नौकरी आसानी से हासिल नहीं हो रही थी. यह बात है 1970-1980 के दशक की. नौकरी की तलाश के दौरान ही पेट की गंभीर बीमारी की चपेट में आ गया. बीमारी से निजात पाने में करीब 3-4 साल गुजर गए. इलाज के लिए दिल्ली छोड़कर बड़े भाई के पास लखनऊ में जाकर रहना पड़ा. लखनऊ से वापिस दिल्ली लौटा तब मोहल्ले के लोग मजाक उड़ाने लगे कि मुझे नौकरी नहीं मिल रही है. मोहल्ला-पड़ोस, रिश्तेदारी में कोई यह मानने को राजी ही नहीं था कि मैं बीमारी के चलते जिंदगी-मौत के बीच तीन-चार साल झूलने के बाद, लखनऊ से कैसे-कैसे जिंदा वापिस लौट सका हूं.
UPSC में पास होने की खबर ही नहीं थी
भारत के पूर्व प्रवर्तन निदेशक और रिटायर्ड आईपीएस कर्नल सिंह (IPS Karnal Singh) जीवन के अतीत की निहायत निजी बातें बेबाकी से बयान करते हुए कहते हैं, “बार-बार पड़ोसियों, साथी-संगियों के तानों से मुझे भी लगने लगा कि अगर जल्दी ही नौकरी हासिल नहीं हुई तो, यह सब मिलकर मुझे बेकार-निकम्मा साबित करने मे कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे. लिहाजा मैंने इंजीनियर बनने की जिस उम्मीद में कानपुर से आईआईटी इंजीनियरिंग किया वह सब भुलाकर, बाकी साथी दोस्तों की तरह संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) का फार्म भर दिया. यूपीएससी में जाने का कतई मन नहीं था. पड़ोसियों-साथियों के तानों ने मगर मुझे इसके लिए मजबूर किया. जब यूपीएससी का रिजल्ट आया तो मुझे पता ही नहीं चला. गली-मोहल्ले के लड़कों ने मुझसे पूछा कि यूपीएससी का रिजल्ट आ गया. क्या हुआ फेल या पास? मुझे तो यही नहीं पता था कि रिजल्ट आ भी चुका है. तो मैं उन्हें अपने फेल पास होने की पुष्टि भला कैसे करता? अगले दिन जाकर देखा तो मैं यूपीएससी एग्जाम में पास हो गया. अगर कहूं कि “मैथ” का स्टूडेंट और कानपुर का IIT से इंजीनियरिंग पासआउट होने के बाद भी अगर मैं आईपीएस बन गया, तो यह मेरे लिए तो “एक्सीडेंटल-आईपीएस” बनने जैसा रहा. तब फिर इसी को विधि का विधान मानते हुए खुशी-खुशी स्वीकार किया.”
इसलिए ‘काजल की कोठरी से बेदाग’ निकला
“स्टेट मिरर हिंदी” के एक सवाल के जवाब में भारत के पूर्व निदेशक (प्रवर्तन) कर्नल सिंह कहते हैं, “आईपीएस बना तो इस सेवा को भी जिंदगी भर भोगने के बजाए ‘जीने’ में विश्वास किया. यह सोचकर कि पुलिस महकमे की नौकरी जिस तरह समाज में काजल की कोठरी या फिर तलवार की धार पर चलने जैसी मानी-समझी जाती है. ऐसी संवेदनशील नौकरी में भी बस मेरे संस्कारों, मेरी विचारधारा पर कोई दाग न लगे. परमात्मा ने इसमें भी पूरा साथ दिया. शायद इसी का परिणाम रहा होगा कि देश की हुकूमत ने आजाद भारत में मेरे रूप में पहले किसी भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के अधिकारी को प्रवर्तन निदेशालय जैसे बेहद संवेदनशील महकमे की कमान सौंपी. बहैसियत आईपीएस और निदेशक प्रवर्तन रहने के बाद मुझे कभी इस सवाल ने नहीं सताया कि, कर्नल सिंह तुमने अपनी सरकारी नौकरी के साथ न्याय नहीं किया.”
संतान का सहयोग करें, अपने विचार न थोपें
खुद आईपीएस और देश के प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक रहे. अमूमन डॉक्टर-वकील और आईपीएस के बच्चे माता-पिता के ही पदचिन्हों पर चलकर आगे बढ़ते हुए उन्हीं की सी नौकरी में आगे बढ़ते हैं. दो बहनों राजकली और अलका के भाई कर्नल सिंह की तीनों संतानों (बेटी श्रुति सिंह केनोपी कंपनी में इंडिया हेड और छोटी बेटी कृतिका सिंह देश की मशहूर रेटिना स्पेशलिस्ट, बेटा अर्चित सिंह देश के मशहूर व्हाइट कॉलर क्राइम, फेमा मनी लॉन्ड्रिंग, कंपनी लॉ वकील) ने मगर पिता की राह पर चलना गवारा नहीं किया आखिर क्यों? निहायत ही निजी जिंदगी और पारिवारिक सवाल पर कर्नल सिंह कहते हैं, “दरअसल मैंने कभी भी बच्चों को यह नहीं कहा कि वह क्या पढ़ें या क्या बनें?
जरूरी नहीं बच्चे भी ‘पापा’ वाली नौकरी ही करें
जो राह अपने भविष्य के लिए उन्होंने चुनी मैंने उसमें सपोर्ट-गाइड किया. मैं इस बात का अपने आप में ही उदाहरण हूं कि जरूरी नहीं पिता अगर डॉक्टर, वकली या आईएएस आईपीएस हैं, तो संतान को भी वे वही बनाने के लिए जोर-दबाव डालें. आज की पीढ़ी के बच्चों बच्चों की सोच अब 1960 और 1970 के दशक से बहुत आगे निकल चुकी है. आज गूगल और यूट्यूब-एआई के जमाने में बच्चों को माता-पिता का दवाब नहीं सपोर्ट और सही गाइडेंस की जरूरत है. वही मैंने भी किया. बच्चों की परवरिश और उनके भविष्य के लिए कमोबेश मेरी जैसी ही सोच हमेशा पत्नी रेणुका सिंह की भी रही. इसके लिए भी ईश्वर का धन्यवाद कि हम मियां-बीबी, बच्चों के पालन-पोषण उनके भविष्य को लेकर सोच-विचार की नजर से कभी भिन्न नहीं हुए.”
‘सरकारी-चाबुक’ से सब नहीं हांके जाते
आज हुकूमत ईडी और पुलिस को अपनी मर्जी के मुताबिक ‘सरकारी चाबुक’ से हांकती-चलाती है? बेहद खरे सवाल के सपाट जवाब में देश के पूर्व निदेशक प्रवर्तन बोले, “पता नहीं कौन से अफसर या ब्यूरोक्रेट हैं जिन्हें सरकारी चाबुक से हांका जाता है. अपने मामले में तो मैं कह सकता हूं कि मुझे कभी किसी ने सरकारी चाबुक से नहीं हांका. फिर चाहे वह दिल्ली पुलिस (आईपीएस) की नौकरी का दौर रहा हो या फिर ईडी का कार्यकाल. घर बैठे कहने को कोई भी कुछ भी कह दे. किसी का मुंह बंद नहीं किया जा सकता है.” ईडी का मुखिया हाई-प्रोफाइल सोर्स सिफारिश वाले को ही हुकूमत बनाती है? पूछे जाने पर कर्नल सिंह कहते हैं, “अगर ऐसा होता तो फिर मैं तो आईपीएस सेवा का अफसर था. मेरी तो कोई सोर्स सिफारिश नहीं थी. तब भी सरकार ने मुझे ईडी की जिम्मेदारी सौंपी. फिर यह कौन कैसे और क्यों कह सकता है कि बिना सिफारिश की ईडी का निदेशक नहीं बनाया जाता है. कहने को मुझसे पहले तक कोई भी भारतीय पुलिस सेवा का अधिकारी ईडी चीफ नहीं बनाया गया था.”
पुलिस से ‘हासिल’ का हिसाब देना मुश्किल
आईपीएस की तीन दशक से ज्यादा नौकरी के दौरान खोए पाने की के बाबत सवाल करने पर दिल्ली पुलिस में लंबे समय तक क्राइम ब्रांच और स्पेशल सेल जैसे महत्वपूर्ण विभागों के सर्वे-सर्वा रह चुके, तत्कालीन विशेष पुलिस आयुक्त बोले, “आईपीएस की नौकरी ने इतना दिया कि जिसे अल्फाजों से सुना पाना और किताब में लिख पाना असंभव है. हां, जहां तक खोने की बात है तो सहायक पुलिस आयुक्त (एसीपी) राजवीर सिंह की असमय मृत्यु और इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की शहादत ने मुझे बेदम कर दिया. लगा जैसे मैं अपने आप में ही खाली हो चुका होऊं. इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की बटला हाउस एनकाउंटर में शहादत से हमने (दिल्ली पुलिस) देश में आतंकवादियों के एक खास कुनवे की पुश्तें खतम कर दीं.
कुछ नेता ‘शहादत’ का दर्द नहीं समझते
इसके बाद भी समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उस एनकाउंटर पर विधवा विलाप कर रहे थे. मेरी आत्मा से पूछिए कि इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की शहादत के बाद कैसे मैने, उनकी पत्नी माया शर्मा और मोहन चंद शर्मा के बुजुर्ग माता-पिता और मोहन चंद शर्मा के बेटे का सामना किया? इसका दर्द या अहसास अमर सिंह या ममता बनर्जी को कैसे होगा? क्योंकि मोहन चंद की बहादुरी और देश के लिए कुर्बानी तो मैंने देखी थी. अमर सिंह और ममता बनर्जी का भला ऐसे दिल्ली पुलिस के रणबांकुरे मोहन चंद शर्मा से वास्ता भी क्या हो सकता है? मैं आज भी दाद देता हूं मोहन चंद शर्मा की पत्नी माया शर्मा को जिन्होंने, दिल्ली के बटला हाउस एनकाउंटर पर घटिया राजनीति करते हुए चिल्लपों मचा रहे सपा नेता अमर सिंह द्वारा भेज गया लाखों रुपए की आर्थिक मदद का चैक वापिस करके, अपनी मांग का सिंदूर पुछ जाने के दुख में भी मेरी आहत आत्मा के जख्म पर किस तरह मरहम लगाने का काम किया था. उस टीस को अपनी स्वार्थ की घटिया राजनीति के लिए किसी भी स्तर तक गिरने वाले कुछ नेता भला कैसे समझ सकते हैं?”
“ईडी” के बेजा इस्तेमाल की बात “बेदम”
पुलिस और ईडी पर अक्सर हुक्मरानों द्वारा इनका बेजा इस्तेमाल किए जाने के आरोप कितने सही हैं? पूछने पर पूर्व आईपीएस ने कहा, “अच्छाई-बुराई समाज का हिस्सा हैं. मैं यह नहीं कहता कि किसी सरकारी अफसर या महकमे का कभी भी बेजा इस्तेमाल हो ही नहीं सकता. हां, मैं अपना बता सकता हूं कि मुझे कभी किसी दबाव में काम नहीं करना पड़ा. जहां तक बात ईडी के बेजा इस्तेमाल की है. तो यह इसलिए गलत है क्योंकि ईडी कभी भी खुद अपने आप कोई मुकदमा दर्ज नहीं करती है. जब एनआईए या सीबीआई कोई मुकदमा दर्ज करती है और उन दोनो एजेंसियों को लगता है कि जांच में ईडी की भी जरूरत है. तब हम देश की इन्हीं दोनो एजेंसियों द्वारा दर्ज किए गए मुकदमे को लेकर ही आगे बढ़ते हैं. तब फिर ईडी का बेजा इस्तेमाल या दुरुपयोग करने का सवाल कहां से पैदा होता है? ईडी से पहले तो सीबीआई और एनआईए जैसी एजेंसियां अपने स्तर पर मुकदमा दर्ज करके जांच करती हैं.”
भ्रष्टाचार कहां नहीं? पुलिस इसलिए बदनाम!
जहां तक बात सरकारी जांच एजेंसियों में भ्रष्टाचार की है. तो इससे न पुलिस बची है और न ही दिल्ली विकास प्राधिकरण अथवा दिल्ली नगर निगम. बस यह है कि पुलिस का करप्शन सड़क पर दिखाई देता है. जबकि डीडीए और एमसीडी में होने वाला करप्शन सार्वजनिक रूप से नजर नहीं आता है. जब मैं दिल्ली पुलिस की स्पेशल टास्क फोर्स में था. उस वक्त आईपीएस युद्धवीर सिंह डडवाल (दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर) के नेतृत्व में हमारी टीमें दिल्ली में हो रहे अवैध निर्माण की तलाश में घूमा करती थीं. एक दिन दिल्ली नगर निगम का एक अधिकारी मेरे पास आया और बोला कि, “साहब जरा मेरा ध्यान रखिए. तीस लाख रुपए रिश्वत देकर मुझे इलाके में 3-4 महीने की पोस्टिंग मिली है. आपकी अवैध निर्माण की रिपोर्ट एमसीडी मुख्यालय में पहुंचते ही मेरी पोस्टिंग खतरे में पड़ जाएगी. सोचिए कि जिस एमसीडी का कोई अधिकारी उस जमाने में तीन-चार महीने के लिए 30 लाख की रिश्वत देकर लगा होगा, वह अवैध निर्माण करवा कर कितनी मोटी वसूली आमजन से करता होगा? मगर फिर वही कि डीडीए एमसीडी का करप्शन सड़क पर नहीं है तो वह दिखाई नहीं देता. पुलिस वाला सड़क पर वसूल रहा होता है, इसलिए वह दिखाई भी देता है और एमसीडी डीडीए से ज्यादा बदनाम भी है.”