दुनिया का इकलौता दशहरा जो 75 दिनों तक चलता है, लेकिन नहीं होती राम-रावण की बात; बस्तर दशहरा की परंपरा है अनोखी
दुनिया का एकलौता दशहरा जो 75 दिनों तक चलता है, लेकिन इसमें राम-रावण की लड़ाई नहीं होती, वो है छत्तीसगढ़ के बस्तर का दशहरा. यहां दशहरा देवी मां दंतेश्वरी की आराधना का त्योहार है, जिसमें रावण दहन या रामलीला जैसी परंपराएं नहीं निभाई जातीं। यह पर्व आदिवासी संस्कृति, प्रकृति के प्रति आस्था और सामूहिक मिलन का प्रतीक है.;
छत्तीसगढ़ के वनांचल बस्तर में दशहरा का उत्सव पूरी तरह अलग अंदाज में मनाया जाता है. जहां देश के अन्य हिस्सों में दशहरा को भगवान राम की रावण पर विजय के रूप में मनाया जाता है, वहीं बस्तर दशहरा में पूरी श्रद्धा और भक्ति केवल मां दंतेश्वरी को समर्पित होती है. यहां न रामलीला होती है और न रावण का पुतला जलाया जाता है.
इस बार बस्तर दशहरे की ऐतिहासिक परंपरा मुरिया दरबार और भी खास होने वाली है. केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह आज जगदलपुर पहुंचकर इस दरबार में हिस्सा लेंगे. केंद्र एवं राज्य सरकारें इस क्षेत्र की संस्कृति व परंपराओं को नई दिशा और पहचान देने में जुटी हैं. इस पर्व में माता का स्वागत और आराधना ही मुख्य उद्देश्य है, और भव्य रथ पर माता दर्शन के लिए निकलती हैं. बस्तर दशहरा लगभग 75 दिन तक चलता है, जो इसे देश के सबसे लंबे दशहरा महोत्सवों में से एक बनाता है.
हरेली अमावस्या से शुरू होती है भव्य तैयारी
बस्तर दशहरा की शुरुआत हरेली अमावस्या से होती है. इस दिन माचकोट जंगल से लकड़ी लाकर पाटजात्रा रस्म पूरी की जाती है और जंगल से जुटाई गई लकड़ी से विशाल रथ का निर्माण किया जाता है. रथ निर्माण के साथ ही काछनगादी पूजा का विशेष आयोजन भी किया जाता है, जिसमें मिरगान जाति की बालिका को काछनदेवी की सवारी कराई जाती है. यह बालिका बेल के कांटों से बनाए झूले पर बैठकर रथ परिचालन और पर्व की शुरुआत की अनुमति देती है, जिसे आदिवासी परंपरा का महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है.
फूल रथ यात्रा
नवरात्रि की द्वितीया से सप्तमी तक ‘फूल रथ’ की परिक्रमा निकाली जाती है. मां दंतेश्वरी के छत्र को मंदिर से रथ पर बैठाकर भक्तों के बीच लाया जाता है ताकि सभी उनका आशीर्वाद प्राप्त कर सकें. रथ खींचने की जिम्मेदारी माड़िया जनजाति के सदस्यों को दी जाती है, जबकि उसकी सुरक्षा मुरिया जनजाति संभालती है. अंतिम रथ यात्रा को ‘बाहर रैनी’ कहा जाता है। पहले इस रथ पर राजा योगी के रूप में सवार होते थे, अब यह कार्य प्रधान पुजारी करते हैं.
काछनगादी पूजा
अद्भुत रथ निर्माण के बाद पितृमोक्ष अमावस्या को खास काछनगादी पूजा संपन्न की जाती है. इस पूजा में मिरगान जाति की एक बालिका को काछन देवी का रूप देकर झूले पर बैठाया जाता है, जो बेल के कांटों से बना होता है. इसी के बाद रथ को चलाने की अनुमति मिलती है, जो पर्व के सुव्यवस्थित आरंभ का प्रतीक होता है.
निशा जात्रा और बलि पूजा
महाअष्टमी की आधी रात को निशा जात्रा और बलि पूजा होती है. अनुपमा चौक के स्तंभेश्वरी देवी मंदिर को मां दंतेश्वरी और मां मानिकेश्वरी का निवास माना जाता है. इसके बाद राजमहल से पालकी में सवार राजा, सिरहा और पुजारी निशा जात्रा स्थल तक पहुंचते हैं. इस दौरान आदिवासी इंस्ट्रूमेंट्स आवाज़ माहौल को बेहद दिव्य और मंत्रमुग्ध कर देने वाली बना देती है. अब बलि में केवल 11 बकरों की नियत संख्या दी जाती है, जो एक पुरानी परंपरा है. इसके बाद दंतेवाड़ा से मां दंतेश्वरी का छत्र जगदलपुर की ओर प्रस्थान करता है.
बस्तर दशहरा में आधुनिक पहलें
2025 के बस्तर दशहरा में पर्यावरण और संरक्षण की ओर ध्यान दिया गया है. रथ निर्माण के लिए हर साल कई पेड़ काटे जाते हैं, लेकिन इस बार पेड़ कटाई के नुकसान की भरपाई के लिए बड़े पैमाने पर पुनःरोपण अभियान शुरू किया गया है. हर साल लगभग 300 पौधों को रोपित करने की योजना बनाई गई है. इसके अलावा, बस्तर दशहरा की झलक दिखाने और सांस्कृतिक महत्व को उजागर करने के लिए जगदलपुर में ‘दसरा-पसरा’ म्यूजियम का निर्माण भी किया गया है.
बस्तर राजपरिवार की भागीदारी
हर साल बस्तर दशहरे में दंतेवाड़ा की माता मावली को जगदलपुर आने का पारंपरिक निमंत्रण दिया जाता है. 2025 में यह उत्सव और भी खास होने जा रहा है, क्योंकि पिछले 59 सालों में पहली बार बस्तर के राजपरिवार के सदस्य कमलचंद्र भंजदेव और उनकी धर्मपत्नी को दशहरा में शामिल होने का विशेष निमंत्रण मिलेगा. यह पर्व सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि बस्तर की समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान का भी जीवंत उदाहरण है.
बस्तर दशहरा: संस्कृति, श्रद्धा और समर्पण का मेल
बस्तर दशहरा सिर्फ एक धार्मिक उत्सव नहीं है, बल्कि यह आदिवासी संस्कृति, परंपराओं और प्राकृतिक संसाधनों के प्रति आदिवासियों के सम्मान का प्रतीक है. रथ यात्रा, निशा जात्रा, बलि पूजा और लोक वाद्ययंत्रों की ध्वनि इस पर्व को भव्य और अद्वितीय बनाती है. यह पर्व आदिवासी समाज की जीवनशैली, विश्वास और धार्मिक भक्ति का जीवंत प्रदर्शन है, जो हर वर्ष हजारों श्रद्धालुओं और पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है.