न शोर-शराबा, न किसी पर कटाक्ष... ख़ामोशी से जनता के बीच जा रहे लालू के लाल, क्या है इसके सियासी मायने?

बेगूसराय और मनेर की जनसंवाद सभाओं में तेज प्रताप यादव ने भीड़ खींचकर यह संकेत दिया कि वह अब स्वतंत्र राजनीतिक पहचान बनाना चाहते हैं। पांच छोटे दलों के साथ गठजोड़ और युवाओं पर पकड़ से उन्होंने महागठबंधन के वोट बैंक को चुनौती दी है। क्या यह बिहार की राजनीति में नया समीकरण बनेगा या सिर्फ आरजेडी के लिए संकट?;

( Image Source:  ANI )
Curated By :  नवनीत कुमार
Updated On : 24 Aug 2025 2:30 PM IST

बेगूसराय के नौला पंचायत में तेज प्रताप यादव की जनसंवाद सभा ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि वह भीड़ खींचने की क्षमता रखते हैं. युवाओं की आंखों की चमक, महिलाओं का जोश और बुजुर्गों का आशीर्वाद यह दिखा रहा था कि तेज प्रताप सिर्फ लालू यादव के बेटे भर नहीं, बल्कि खुद एक सियासी पहचान बनाने की कोशिश कर रहे हैं.

लोगों के बीच गाड़ी की छत पर बैठकर भाषण देना, सीधे संवाद करना और तंज कसना – यह सब लालू यादव के पुराने अंदाज की याद दिलाता है. लेकिन फर्क यह है कि तेज प्रताप इस अंदाज को नए जमाने की राजनीति से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं. वह सोशल मीडिया पर भी सक्रिय हैं और हर सभा को जनभावनाओं से जोड़ रहे हैं.

बागी तेवर और नई राह

25 मई को जब लालू प्रसाद यादव ने तेज प्रताप को पार्टी से छह साल के लिए बाहर का रास्ता दिखाया, तब लगा था कि तेज प्रताप अब शांत हो जाएंगे. मगर हुआ इसका उल्टा. उन्होंने महुआ से निर्दलीय चुनाव लड़ने का ऐलान कर सबको चौंका दिया और छोटे-छोटे दलों के साथ गठजोड़ कर एक नए राजनीतिक समीकरण की ओर बढ़ते दिखे.

गठजोड़ और जातीय समीकरण

विकास वंचित इंसान पार्टी (VVIP), भोजपुरिया जन मोर्चा, प्रगतिशील जनता पार्टी, वाजिब अधिकार पार्टी और संयुक्त किसान विकास पार्टी – इन पांच दलों के साथ तेज प्रताप का गठजोड़ जातीय समीकरण साधने की कोशिश है. यादव, मुस्लिम और निषाद वोटों को जोड़ने का यह प्रयास सीधे-सीधे आरजेडी के वोट बैंक पर वार माना जा रहा है.

महागठबंधन के लिए चुनौती

बिहार में यादव (14%) और मुस्लिम (18%) आबादी मिलकर विधानसभा की लगभग 50 सीटों पर निर्णायक साबित होते हैं. यही वोट बैंक अब खतरे में है क्योंकि तेज प्रताप की सभाओं में युवा और मुस्लिम चेहरों की मौजूदगी साफ दिख रही है. यह स्थिति महागठबंधन की एकजुटता को कमजोर कर सकती है.

तेजस्वी बनाम तेज प्रताप

जहां तेजस्वी रोजगार और स्वास्थ्य जैसे व्यापक मुद्दों को उठा रहे हैं, वहीं तेज प्रताप स्थानीय मुद्दों, पलायन और शराबबंदी जैसे ज्वलंत विषयों पर जनता से सीधा संवाद कर रहे हैं. यही रणनीति उन्हें ‘जनता के बेटे’ के तौर पर स्थापित कर रही है. हालांकि, यह टकराव साफ कर रहा है कि दोनों भाइयों की राहें अब बिल्कुल अलग हो गई हैं.

तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट

तेज प्रताप की सक्रियता ने बिहार की राजनीति में तीसरे मोर्चे की संभावनाओं को जन्म दिया है. AIMIM जैसे दलों के साथ संभावित गठजोड़ की चर्चा भी इस धारणा को बल देती है. तेज प्रताप अपनी खुद की पहचान पर चुनाव लड़ना चाहते हैं, जो यह दर्शाता है कि वह ‘लालू के बेटे’ के टैग से बाहर निकलकर खुद को स्थापित करना चाहते हैं.

जनता की नब्ज पकड़ने की कोशिश

मनेर और बेगूसराय की सभाओं ने साफ किया कि जनता उनकी बेबाकी और सादगी को पसंद कर रही है. खासकर युवा वर्ग उनके ‘स्मार्ट सिटी नहीं, स्मार्ट गांव’ वाले बयान से जुड़ाव महसूस कर रहा है. वहीं, महिलाएं सामाजिक कल्याण के वादों को लेकर उनके साथ जुड़ रही हैं. यह जनाधार उनकी भविष्य की राजनीति की दिशा तय करेगा.

सीमित असर या बड़ा उलटफेर?

राजनीतिक जानकार मानते हैं कि फिलहाल तेज प्रताप का प्रभाव कुछ सीटों तक सीमित है, लेकिन 2025 के चुनावों में यह वोट बैंक में सेंध डालने वाला कारक बन सकता है. खासकर अगर उन्होंने छोटे दलों के साथ रणनीतिक गठबंधन बनाए रखा तो महागठबंधन को नुकसान और NDA को अप्रत्यक्ष फायदा हो सकता है.

सियासत में नई पटकथा

तेज प्रताप की जनसंवाद यात्रा यह साफ कर रही है कि वह अब सिर्फ परिवार की राजनीति का हिस्सा नहीं, बल्कि स्वतंत्र सियासी खिलाड़ी बनना चाहते हैं. उनकी आक्रामक शैली और लगातार सक्रियता से यह सवाल उठ रहा है कि क्या वह बिहार की राजनीति में नया मोड़ देंगे या सिर्फ महागठबंधन के लिए चुनौती बनकर रह जाएंगे.

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