क्‍या नीतीश हैं बिहार की पॉलिटिक्स में सबकी 'मजबूरी'? जाति जनगणना से समझें उनके 'मास्टर स्ट्रोक' का मैजिक

बिहार में चुनावी सरगर्मी बढ़ते ही नीतीश कुमार एक बार फिर सुर्खियों हैं. कोई चाहे या न चाहे, नीतीश चुप भी रहें तो भी उनकी चर्चा होना बिहार की राजनति में आम बात है. ये बात अलग है कि कोई उन्हें ‘पलटूराम’ कहता है, तो कोई उन्हें ‘पॉलिटिकल मास्टरमाइंड’, लेकिन जातिगत जनगणना ने उन्हें दुनिया के पहले 'गणराज्य' में एक्टिव हर सियासी दल के लिए 'मजबूरी' बनाकर रख दिया है. क्या यही है उनका मास्टरस्ट्रोक? समझिए कैसे जाति जनगणना ने बदली बिहार की राजनीति?;

( Image Source:  ANI )
By :  धीरेंद्र कुमार मिश्रा
Updated On : 21 July 2025 1:20 PM IST

बिहार चुनाव को लेकर आप कुछ बात कर लीजिए, उसके केंद्र में नीतीश कुमार खुद ब खुद आ जाते है. सही भी है, वह 9 बार बिहार के सीएम बन चुके हैं. NDA और महागठबंधन दोनों की धुरी थे और हैं भी. साल 2024 के चुनाव से पहले 'जाति जनगणना' जैसे पॉलिटिकल टाइम बम को एक्टिवेट कर उन्होंने देश भर के राजनेताओं को बता दिया कि वो सिर्फ नेता नहीं, सियासी चालबाजी की किताब हैं. यही वजह है कि नीतीश कुमार बिहार की राजनीति में सभी के लिए 'मजबूरी' बन चुके हैं?

ऐसे में सियासी दलों के नेता, कार्यकर्ता या आम मतदाता उन्हें ‘पलटूराम’ कहें या ‘चाणक्य’, उन पर सब ​फिट बैठता है. बिहार के राजनीतिक आलोचक कहते हैं कि नीतीश बार-बार गठबंधन बदलते हैं, इसलिए वे भरोसेमंद नहीं, लेकिन उनके सपोर्टर कहते हैं, नीतीश जहां होते हैं, वहीं सत्ता होती है. पलटी मारकर सरकार बनाना या गिराना, उनके लिए पॉलिटिक्स है, इमोशन नहीं. उन्हें ‘सीट ऑफ पावर’ चाहिए और उसके लिए वो हर समीकरण साध लेते हैं. वह जो साधते हैं, उसके बारे में किसी से चर्चा नहीं करते.

क्या कहता है जा​तिगत डाटा?

बिहार की जातिगत जनगणना 2023 में सामने आई है, तभी से देशभर में हलचल मची हुई है. जहां बाकी राज्यों में ऐसी गिनती को लेकर डर और विरोध था, वहीं नीतीश कुमार ने इसे लागू कर दिखाया. बिहार की 90 प्रतिशत से ज्यादा आबादी ओबीसी, एससी, एसटी, एसटी और EBC में आती है .

सीएम नीतीश कुमार ने न सिर्फ इन वर्गों को गिनवाया बल्कि उन्हें ‘संख्या की ताकत’ का अहसास भी दिलाया. यही वजह है कि राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, जनता दल यूनाइटेड और यहां तक कि BJP तक इस मुद्दे से डरती है और नीतीश को हल्के में नहीं लेती.

3 से 36 फीसदी ऐसे बना लिया जनाधार

बिहार में राजनीतिक गुरुत्वाकर्षण खंडित जनादेश और कट्टर प्रतिद्वंद्वियों को चुनौती देते हुए नीतीश कुमार दो दशक से मुख्यमंत्री बने हुए हैं. पिछले 20 सालों से बिहार की राजनीति नीतीश के इर्द-गिर्द घूमती रही है. यह इस तथ्य के बावजूद है कि उनकी पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) को राज्य विधानसभा में कभी पूर्ण बहुमत नहीं मिला है.

नीतीश कुमार 1999 से कम से कम छह बार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के बीच बारी-बारी से रहे हैं और बिहार की राजनीति के "पलटू कुमार" कहलाने का संदिग्ध गौरव हासिल किया. नीतीश 1999 से 2013 तक बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए के साथ,ख् उसके बाद 2015 में यूपीए में शामिल हो गए. साल 2017 में वह एनडीए में लौट आए, लेकिन 2022 में फिर से यूपीए के साथ जुड़ गए. एक साल बाद वह इंडिया ब्लॉक में शामिल हो गए, लेकिन 2024 तक वह एक बार फिर एनडीए में शामिल हो गए.

जनाधार बढ़ा RJD-BJP को दिया जवाब

सीएम नीतीश कुमार अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआती दौर में नीतीश को 'लव-कुश' (कुर्मी-कुशवाहा) समुदाय का भरपूर समर्थन है. वे उनके निर्विवाद नेता हैं. नीतीश ने विकास के एजेंडे पर भी ध्यान केंद्रित किया और शराबबंदी जैसी अपनी कई महिला-समर्थक नीतियों से लोकप्रियता हासिल की. समय के साथ, नीतीश को एहसास हुआ कि आरजेडी या भाजपा पर बढ़त हासिल करने के लिए उन्हें अपना जनाधार बढ़ाना होगा. इसलिए, जेडीयू प्रमुख ने कर्पूरी ठाकुर के आदर्शों पर अपनी राजनीति को ढालकर और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग पर विशेष ध्यान केंद्रित कर पूरे अति पिछड़ा वर्ग समुदाय के इर्द-गिर्द अपना जनाधार बनाने का प्रयास किया.

नीतीश ने धीरे-धीरे खुद को अति पिछड़ा वर्ग, जो बिहार की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा है, के "पोस्टर बॉय" के रूप में स्थापित कर लिया. साल 2023 में जाति सर्वेक्षण की घोषणा कर नीतीश ने अपनी राजनीति को पुनर्जीवित किया और अपनी "सामाजिक न्याय" की साख का दावा किया. सर्वेक्षण के माध्यम से नीतीश ने औपचारिक रूप से अपने वोट बैंक की घोषणा की. सभी को साफ कर दिया उनकी पार्टी को कोई हाशिए पर नहीं धकेल सकता.

दरअसल, जातिगत सर्वेक्षण का उद्देश्य नीतीश कुमार को बिहार की आबादी के सबसे बड़े हिस्से के नेता के रूप में पेश करना था, न कि केवल लव-कुश नेता के रूप में. इसका अहसास आरजेडी को है कि नीतीश का मतदाता आधार लगभग 36 प्रतिशत है. जबकि लालू प्रसाद यादव का एमवाई (मुस्लिम-यादव) समर्थन आधार लगभग 32 प्रतिशत है. नीतीश कुमार ने जाति जनगणना कराकर 122 जातियों में मतदाता आधार बना लिया. अब उन्हीं को लक्षित करते हुए जन हितैषी कार्यक्रमों का एलान कर रहे हैं.

हर पार्टी की मजबूरी क्यों?

साल 2022 में नीतीश का NDA से जाना एक झटका था. उनके बिना बीजेपी को बिहार में सोशल इंजीनियरिंग का बैलेंस नहीं मिल रहा था. बिहार में लालू यादव के बाद नीतीश ही ऐसे नेता हैं जिनकी स्वीकार्यता हर जाति वर्ग में है. चाहे कुर्मी हों, दलित हों या अति पिछड़ा वर्ग, नीतीश वो चेहरा हैं जो BJP विरोधी राजनीति में पीएम फेस के तौर पर पेश किए जा सकते थे. उन्हीं के प्रयासों से इंडिया गठबंधन बना लेकिन सियासी दलों के नेता उसे आगे प्रभावी तरीके से बढ़ा नहीं सके.

जाति जनगणना ‘मास्टरस्ट्रोक’ कैसे?

जाति जनगणना होने के बाद से यह ‘सिर्फ बिहार’ का मुद्दा नहीं रहा. आज कर्नाटक, तमिलनाडु, यूपी तक में इसकी मांग हो रही है. साल 2024 के चुनाव भले मोदी लहर में गए, लेकिन नीतीश का मुद्दा अभी जिंदा है. अब नीतीश कुमार साल 2025 बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश इसे अपने सबसे बड़े वादे और पहचान के तौर पर पेश करेंगे.

यह स्थिति उस समय है, जब बिहार की राजनीति में अगर कोई सबसे स्थिर अस्थिरता का नाम है, तो वो है नीतीश कुमार का. उनका जाति कार्ड, सोशल इंजीनियरिंग, प्रशासनिक अनुभव और चुपचाप दांव चलने की कला के दम पर वो आज भी हर पार्टी की मजबूरी बने हुए हैं. साल 2025 में वो जीतें या हारें, लेकिन कोई उन्हें इग्नोर नहीं कर सकता. इसका जीता जागता सबूत यह है कि हाल ही में इंडिया गठबंधन की बैठक में तेजस्वी यादव ने सभी दलों के ने से कहा था कि नीतीश कुमार पर हमला न बोलें.

Full View

Similar News