लालू यादव के दिमाग की उपज 'भूरा बाल' की वापसी, Bihar चुनाव पर इसका क्या हो सकता है असर?

 Bihar Politics: 'भूरा बाल साफ करो' लालू यादव की जाति-आधारित सामाजिक न्याय की राजनीति का हिस्सा था. यह नारा 1990 के दशक में शुरू हुआ और उसने बिहार की राजनीति की दिशा बदल दी. जहां दशकों तक ऊंची जातियों का वर्चस्व था, वहीं लालू यादव ने पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को संगठित कर सत्ता पर स्थापित कर दिया. एक बार फिर बिहार के नेताओं के बयानबाजी से 1990 का दशक प्रदेश में रिटर्न होने के संकेत हैं. ऐसा इसलिए कि आरजेडी ने आनंद मोहन के बयान को लपक लिया है.;

By :  धीरेंद्र कुमार मिश्रा
Updated On : 16 Sept 2025 12:45 PM IST

 Bihar Cast Politics: बिहार चुनाव का माहौल एक बार फिर गर्म है. जातीय राजनीति (भूरा बाल) एक बार फिर सुर्खियों में है. इसके पीछे दो नेताओं के बयान को ज्यादा जिम्मेदार माना जा रहा है. पहले आरजेडी नेता मंगनी लाल मंडल भूरा बाल का जिक्र किया था और अब आनंद मोहन ने भूरा बाल तय करेगा कि सिंहासन पर कौन बैठेगा, बयान देकर प्रदेश की जातीय राजनीति को हवा दे दी है. अहम बात यह कि राष्ट्रीय जनता दल ने इस चुनौती का स्वीकार कर लिया है. और अब लगता है कि लालू प्रसाद यादव ने 1990 के दशक के जिस भूरा बाल का नारा दिया था, उसकी बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में वापसी हो सकती है, लेकिन मुश्किल यह है कि इस मुद्दे को लेकर आरजेडी के नेता बंटे हुए नजर आ रहे हैं.

दरअसल, 'भूरा बाल साफ करो' नैरेटिव आरजेडी प्रमुख लालू यादव की सियासी पैदाइश है. उन्होंने जब ये नारा दिया था तब यह बेहद असरदार साबित हुआ था. एक चुनावी नारा नहीं था बल्कि उस दौर की बिहार की जातीय राजनीति का आईना भी था. अब सवाल यह है कि क्या 2025 में भी वही सामाजिक समीकरण और वही असर देखने को मिलेगा? बिहार विधानसभा चुनाव 2025 से पहले नेताओं के बीच बयानबाजी तेज होती जा रही है.

आनंद मोहन ने क्या कहा?

पूर्व सांसद आनंद मोहन ने भूरा बाल को लेकर मुजफ्फरपुर में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान आरजेडी नेता मंगनी लाल मंडल के ‘भूरा बाल’ वाले बयान पर पलटवार किया. आनंद मोहन ने कहा, 'अब बिहार में भूरा बाल ही तय करेगा कि सिंहासन पर कौन बैठेगा? कल तक सवर्णों को भूरा बाल कहकर संबोधित किया जाता था, तब आप लोग किंगमेकर थे. आज समय बदल गया है, अब आप सिंहासन पर हैं और हम तय करेंगे कि उस सिंहासन पर कौन बैठेगा यानी अब हम किंगमेकर हैं? राजपूत समेत सवर्ण नेता की पहचान रखने वाले पूर्व सांसद का यह बयान मुजफ्फरपुर में रघुवंश-कर्पूरी विचार मंच के बैनर तले आयोजित कार्यक्रम के दौरान आया. यह कार्यक्रम डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह की पुण्यतिथि पर आयोजित किया गया था. इसमें कई बड़े नेता, सामाजिक कार्यकर्ता और संगठन से जुड़े लोग मौजूद थे.

बिहार की राजनीति में भूचाल

आनंद मोहन के इस इस बयान के बाद बिहार की राजनीति में हलचल मचा दी है. विपक्षी दलों से लेकर सत्ताधारी गठबंधन के नेता तक इस पर तीखा हमला कर रहे हैं. सवाल यह उठता है कि आखिर चुनाव से पहले ऐसे बयान क्यों दिए जा रहे हैं और क्या इसका वास्तविक असर चुनावी समीकरणों पर पड़ेगा? या यह केवल एक राजनीतिक रणनीति है?

मंगनी लाल मंडल ने दिलाई थी याद

इससे पहले बिहार आरजेडी के अध्यक्ष मंगनी लाल मंडल ने जुलाई के शुरुआती दिनों में एक कार्यक्रम के दौरान लालू यादव के पुराने नारे को याद करते हुए कहा था, याद कीजिए उन्होंने 'भुरा बाल साफ करो' का नारा क्यों दिया था. अब आप समझिए भूरा बाल का मतलब क्या होता है जिसे मिटाने के लिए जिसे साफ करने के लिए लालू यादव अपने समर्थकों से कहते थे.

भूरा बाल साफ कर देना

आरजेडी नेता अनीता कुमारी के पति अशोक महतो ने एक यूट्यूब चैनल पर बातचीत के दौरान कहा था, 'नब्बे के दशक की तरह इस बार भी सभी बहुजन एकजुट होकर 10 प्रतिशत को बाहर फेंक देना'. भूरा बाल को साफ कर देना है.

अशोक महतो को 'खखोर' लेंगे - बंटू सिंह

हालांकि, आरजेडी के एक अन्य प्रवक्ता बंटू सिंह ने अशोक महतो पर पलटवार करते हुए कहा था, 'कमर में किसने रस्सा बनवाया था? बाल मुंडवाया, थूक चटवाया… क्या-क्या नहीं करवाया. और कहता है भूरा बाल साफ करो. अगली बार ऐसा किया तो 'खखोर' लेंगे. बंटू सिंह उस प्रकरण का भी जिक्र किया जब IPS अमित लोढ़ा ने उन्हें गिरफ्तार करके जेल भिजवाया था.

ये क्या 'भूरे बाल' पर दो गुट में क्यों बंटे RJD नेता?

 साफ है कि ‘भूरा बाल साफ करो…’ नारा पर इस बार आरजेडी नेता अशोक महतो और बंटू सिंह का बयान विरोधाभासी हैं. दोनों के बयान के बाद आरजेडी समर्थक भी सोशल मीडिया पर दो गुट में बंटे दिखे. सोशल मीडिया पर आरजेडी समर्थक एक यूजर ने कहा कि पार्टी को रसातल में भेजने का ठेका तेजस्वी यादव के दुलरुआ ने ले रखा है. अगले चौबीस घंटे के अंदर राजद प्रवक्ता (बंटू सिंह) को बर्खास्त नहीं किया तो यही समझा जाएगा कि इसका दिया बयान आरजेडी का आधिकारिक बयान है.

आनंद मोहन की टाइमिंग - यही समय क्यों चूना?

आनंद मोहन खुद को सवर्ण राजनीति का चेहरा मानते रहे हैं, जेल से बाहर आने के बाद लगातार सक्रिय हैं. उनका बयान सीधे तौर पर यह संकेत देता है कि चुनावी मौसम में जातीय गोलबंदी को हवा देना एक सुनियोजित रणनीति हो सकती है. कहीं, इस तरह का बयान सवर्ण मतदाताओं को एक प्लेटफार्म पर लाने की कोशिश तो नहीं. अब सवाल यह उठता है कि आखिर चुनाव से पहले ऐसे बयान क्यों दिए जा रहे हैं और क्या इसका असर चुनावी समीकरणों पर पड़ेगा? या यह केवल एक राजनीतिक रणनीति है?

विपक्षी दल और सत्ताधारी गठबंधन ने आनंद मोहन के बयान की आलोचना की है और इसे जातिवाद को बढ़ावा देने वाला बताया. इंडिया गठबंधन के नेताओं का तर्क है कि जनता अब विकास और रोजगार पर वोट करती है. वहीं, एनडीए के भीतर भी कई नेता खुलकर इस बयान से दूरी बना रहे हैं, क्योंकि गठबंधन सिर्फ सवर्ण वोट बैंक पर नहीं बल्कि व्यापक सामाजिक समीकरण पर टिका है.

 बदले सियासी माहौल में भूरा बाल कितना अहम?

 आज का बिहार 90 के दशक वाला बिहार नहीं रहा. सवर्ण वोट बैंक अब ज्यादातर BJP और NDA के साथ खड़ा है. यादव और मुस्लिम समाज अब भी लालू-राबड़ी-तेजस्वी की RJD की रीढ़ बने हुए हैं. साल 2025 के चुनाव में समीकरण ज्यादा जटिल हैं. EBC (अति पिछड़ा वर्ग) और दलित वोट का बड़ा हिस्सा अब Nitish और NDA या अलग-अलग दलों में बंटा है. मुस्लिम मतदाता इस बार कांग्रेस और ओवैसी फैक्टर काम कर रहा है. प्रदेश में पहली बार वोट करने वाले युवा जातीय नारे से ज्यादा रोजगार, शिक्षा और विकास की बात करते हैं.

NDA बनाम महागठबंधन - क्या होगा असर?

RJD को इसका फायदा तभी होगा अगर EBC और दलित वोटर नाराज होकर NDA से खिसकते हैं. लालू यादव का ‘भूराबाल साफ करो’ नारा एक दौर की पहचान था, जिसने बिहार की राजनीति का चेहरा बदल दिया, लेकिन 2025 के चुनाव में यह नारा केवल पुराने मुद्दे को जिंदा करने और जातीय गोलबंदी का औजार बन सकता है, न कि निर्णायक फैक्टर. आज के बिहार में जातीय पहचान के साथ-साथ विकास, रोजगार और क्षेत्रीय असंतुलन भी बड़े मुद्दे बन चुके हैं. BJP और JDU इसे ‘पुरानी जातीय राजनीति की वापसी’ बनाकर लालू यादव पर हमला करेंगे. NDA का फोकस मोदी ब्रांड, विकास और महिला वोट बैंक पर है.

शुरुआत कब और कैसे हुई?

दरअसल, 10 मार्च 1990 को लालू यादव पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे. मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने अपना सियासी समीकरण अपने पक्ष में और नियंत्रण करने काम तेज कर दिया था. यही वजह है कि 'भूरा बाल साफ' करो की शुरुआत भी उनका सत्ता में आने के साथ यानी 1990 में ही हो गया.

जब लालू यादव का पहली बार सीएम उस दौर में बने जब बिहार की राजनीति में ऊंची जातियों (राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण, कायस्थ) का दबदबा था. लालू यादव पिछड़े वर्ग (विशेषकर यादव) और अल्पसंख्यकों को संगठित कर सत्ता में आए थे. सत्ता में आने के बाद उन्होंने 'सामाजिक न्याय' की राजनीति को हवा दी और जातीय आधार पर मजबूत वोट बैंक तैयार किया.

भूरा बाल" का मतलब 

लालू यादव के भूरा बाल से मतलब भू से भूमिहार, रा से राजपूत, बा से ब्राह्मण और ल ls लाला यानी कायस्थ. ये चारों जातियां उस समय बिहार की पारंपरिक 'सत्ता नियंत्रक' जातियां मानी जाती थीं. लालू का नारा था कि इनका दबदबा तोड़ना होगा, तभी राजनीति में पकड़ बनाए रखना लंबे समय के लिए संभव हो पाएगा.

भूरा बाल नारा क्यों?

लालू प्रसाद यादव जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से उपजे नेता है. यही वजह है कि 'सामाजिक न्याय' उनकी राजनीति के केंद्र में हमेशा से रहा है. उन्हीं के दौर में मंडल कमीशन के बाद पिछड़े वर्ग को आरक्षण मिला. लालू यादव ने इसे अपनी राजनीति का हथियार बनाया और कहा कि अब तक सिर्फ ऊंची जातियों का राज रहा है, अब पिछड़ों की बारी है. तभी से ओबीसी, दलित और मुस्लिमों का राज बिहार में है. जो आज भी बहुत हद तक जारी है.

नया जातीय समीकरण

आरजेडी प्रमुख लालू यादव ने भूरा बाल का असर समाप्त करने के लिए (पिछड़ा वर्ग), मुस्लिम और दलित को जोड़कर लालू ने "एम-वाई समीकरण" बनाया. इसमें ‘भूराबाल’ जातियों के विरोधी खेमे के रूप में पेश किया गया. यही वजह है कि लालू का यह नारा सत्ता परिवर्तन का प्रतीक बना. उनके इस नारे का एक मात्र फार्मूला था बिहार में जो ‘सत्ता पर कब्जा जमाए बैठे थे’, उन्हें राजनीति से साफ करना है. नतीजा यह हुआ कि 1990 से 2005 तक लगातार बिहार की सत्ता में उनकी पकड़ मजबूत रही.

असर क्या हुआ?

इस नारे ने लालू यादव को पिछड़ों, दलितों और मुसलमानों के बीच 'नेता' के तौर पर स्थापित कर दिया. इसका नतीजा यह हुआ कि बिहार की राजनीति में जातीय ध्रुवीकरण और गहरा गया. लंबे समय तक 'भूरा बाल' जातियां राजनीतिक रूप से कमजोर रहीं. जबकि यादव और मुस्लिम गठजोड़ मजबूत हुआ. हालांकि, बाद के वर्षों में यही नारा लालू यादव के खिलाफ भी गया और ‘विकास बनाम जाति राजनीति’ की बहस तेज हुई. उसने ऐसा रूप धारण किया, जिसका असर अब भी बिहार में देखने को मिल रहा है.

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