भरोसे के नाम पर या कुछ और... रिकॉर्ड वोटिंग पर 14 नवंबर को खुलेगा सस्पेंस, इसके पीछे क्या है ‘साइलेंट क्रांति’?
बिहार में पहले चरण की वोटिंग ने सियासी हलचल मचा दी है. 64.69% का रिकॉर्ड मतदान सत्ता और विपक्ष दोनों के लिए सस्पेंस बन गया है. क्या यह आंकड़ा बदलाव की बयार है या फिर सुशासन पर भरोसे की मोहर? महागठबंधन इसे बेरोज़गारी और महंगाई के खिलाफ गुस्सा बता रहा है, जबकि एनडीए इसे विकास की जीत कह रहा है. वोटर क्या सोच रहा था—इसका जवाब 14 नवंबर को खुलेगा.;
बिहार की मिट्टी से उठी लोकतंत्र की आवाज़ एक बार फिर पूरे देश में गूंज रही है. पहले चरण के मतदान के बाद पूरे राज्य में एक ही सवाल तैर रहा है—इतना ज़्यादा मतदान आखिर किसकी तरफ़ झुका है? चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि इस बार रिकॉर्ड 64.69% वोटिंग हुई, जो पिछले विधानसभा चुनाव से लगभग 7% अधिक है. यह सिर्फ़ एक संख्या नहीं, बल्कि जनता के भीतर उमड़े राजनीतिक उबाल का प्रतीक है.
इतिहास बताता है कि बिहार में जब भी मतदान प्रतिशत बढ़ता है, सत्ता के समीकरण हिल जाते हैं. लेकिन इस बार तस्वीर पहले से ज्यादा पेचीदा है — क्या यह उछाल मौजूदा सरकार से नाराज़गी का इशारा है या जनता की भरोसे भरी मोहर? यही वह रहस्य है जो 14 नवंबर को ईवीएम खुलने तक नेताओं की धड़कनें तेज़ रखेगा.
'जनता अब बदलाव के मूड में है': तेजस्वी
महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव ने वोटिंग प्रतिशत को अपने पक्ष में पढ़ा है. उन्होंने कहा, “यह आंकड़ा साफ़ बताता है कि बिहार अब बदलाव चाहता है. बेरोज़गारी, महंगाई और पलायन के खिलाफ जनता ने वोट किया है.” तेजस्वी का दावा है कि इस बार 36 लाख नए वोटर पहली बार वोट डालने पहुंचे और उनमें से अधिकतर युवाओं और गृहिणियों ने महागठबंधन के पक्ष में मतदान किया.
'ये जनादेश विकास और विश्वास का है': एनडीए
वहीं, एनडीए इसे अपनी जीत की गूंज बता रहा है. एक केंद्रीय मंत्री ने कहा, “यह एंटी नहीं, प्रो-इन्कम्बेंसी वोटिंग है. महिलाओं और गरीब वर्ग ने सुशासन और मुफ्त राशन जैसी योजनाओं पर भरोसा जताया है.” सत्ता पक्ष का मानना है कि महिला मतदाताओं की भारी भागीदारी एनडीए के पक्ष में गई है, जो उनके लिए ‘साइलेंट वोट बैंक’ साबित हो सकती है.
‘यह वोट गुस्से का है, किसी पार्टी का नहीं’: प्रशांत किशोर
राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने इस बंपर वोटिंग को किसी गठबंधन की जीत नहीं, बल्कि “जनता के असंतोष की लहर” बताया. उनके अनुसार, इस बार प्रवासी मजदूरों और बेरोज़गार युवाओं का प्रभाव निर्णायक रहेगा. यह वर्ग पहली बार जातीय समीकरणों से ऊपर उठकर ‘रोज़गार और सम्मान’ के लिए वोट कर रहा है, जो पारंपरिक राजनीति का रुख पूरी तरह बदल सकता है.
महिलाएं और युवा, दोनों निर्णायक मोड़ पर
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि ग्रामीण इलाकों में महिला मतदाताओं की भागीदारी ऐतिहासिक रही है. “यह वोट सिर्फ जाति का नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता और सुरक्षा के एहसास का है.” उनके अनुसार, चुनावी मुकाबला इस बार दो वर्गों के बीच है. युवा बेरोज़गार बनाम आत्मनिर्भर महिलाएं, और यही संतुलन सत्ता तय करेगा.
ग्रामीण उभार, गांवों में सबसे ऊंचा मतदान
चुनाव आयोग के आंकड़ों से पता चलता है कि इस बार ग्रामीण इलाकों में मतदान सबसे अधिक हुआ है. वहीं, पटना और शहरी केंद्रों में वोटिंग प्रतिशत कम रहा. यह संकेत देता है कि गांव, किसान और मजदूर इस बार राजनीतिक कथा के मुख्य पात्र बन चुके हैं. यही वर्ग ‘साइलेंट किलर’ साबित हो सकता है, जो किसी भी गठबंधन का समीकरण पलट दे.
सोशल इंजीनियरिंग बनाम जमीनी लहर
बिहार का राजनीतिक इतिहास बताता है कि उच्च मतदान कई बार जातीय समीकरणों को तोड़ देता है. इस बार भी ऐसा ही कुछ दिख रहा है — एनडीए अपनी ‘महिला सशक्तिकरण’ की कहानी दोहरा रहा है, जबकि विपक्ष बेरोज़गार युवाओं के बीच भावनात्मक जुड़ाव बना रहा है. जमीनी रिपोर्टें बताती हैं कि मतदाता इस बार ‘नारे’ नहीं, नीति और नीयत पर वोट कर रहे हैं.
यह वोट किस उम्मीद पर पड़ा है?
राजनीतिक गलियारों में भले ही दोनों पक्ष इसे अपनी जीत का संकेत बता रहे हों, लेकिन असली सवाल यह नहीं कि “वोट किसे मिला”, बल्कि यह है कि “यह वोट किस उम्मीद पर पड़ा”. चाहे बेरोज़गारी हो, शिक्षा, स्वास्थ्य या भ्रष्टाचार, जनता ने इस बार अपने ‘मौन वोट’ से सवाल पूछ दिया है.
क्लाइमेक्स अभी बाकी है
बिहार की जनता ने अब अपना काम कर दिया है. उन्होंने इतिहास को ईवीएम में बंद कर दिया है. अब यह वक्त है यह देखने का कि यह रिकॉर्ड वोटिंग बदलाव की आंधी लेकर आती है या भरोसे की पुनर्पुष्टि. जो भी हो, यह तय है कि बिहार की यह कहानी अब सिर्फ राजनीति की नहीं, बल्कि एक नए सामाजिक परिवर्तन की गवाही बन चुकी है.