विरोधी दलों के नेता समझ लें नीतीश के पॉलिटिक्स का मैजिक, बन जाएगी उनकी सरकार? ऐसे समझें गणित?
बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार हमेशा से पॉलिटिकल मैनेजमेंट और गठबंधन की राजनीति के मास्टर माने जाते रहे हैं. वह विरोधी दलों के सियासी समीकरण और जमीनी पकड़ को इतने बेहतर तरीके से समझने में माहिर हैं कि सत्ता का समीकरण पूरी तरह बदल देते हैं. आइए, जानते हैं कैसे नीतीश ने महागठबंधन के सियासी गणित को समझकर विपक्ष को बुरी तरह हराकर बिहार में अपने लिए सत्ता की राह आसान बना लेते हैं.;
बिहार की राजनीति का इतिहास गवाह है कि बिना नीतीश कुमार के सत्ता का रास्ता तय करना किसी भी दल के लिए आसान नहीं रहा है. कभी बीजेपी तो कभी आरजेडी-हर पार्टी ने नीतीश कुमार के सहयोग से सत्ता का स्वाद चखा है. ऐसे में विपक्षी दलों के लिए यह समझना जरूरी है कि आखिर नीतीश कुमार का 'पॉलिटिक्स' किस तरह से काम करता है. वह अपने सियासी अनुभव के दम पर हर बार सीएम की कुर्सी तक पहुंच ही जाते हैं.
सुशासन बाबू का पॉलिटिकल मैजिक
बिहार के सीएम और जेडीयू प्रमुख नीतीश कुमार का सबसे बड़ा पॉलिटिकल हथियार 'सोशल इंजीनियरिंग' है. वे हमेशा जातीय समीकरणों का संतुलन साधते रहते हैं. चाहे ओबीसी, अति पिछड़ा वर्ग, महादलित हों या महिला वोट बैंक, वो सभी को साधने में माहिर माने जाते हैं.
महिलाओं के वोट बैंक पर नीतीश का एकाधिकार
सीएम नीतीश की सरकार ने पिछले दो दशक के दौरान शराबबंदी, साइकिल योजना, पोशाक योजना और अब महिलाओं के लिए डायरेक्ट बेनिफिट स्कीम जैसी योजनाओं से आधी आबादी को अपने साथ मजबूती से जोड़ा रखा है. यही वर्ग चुनावी नतीजों में निर्णायक भूमिका निभाते हैं. साल 2000 के बाद से हर चुनाव में महिलाएं पुरुषों से ज्यादा मतदान करती आई है. यह ग्राफ अब बढ़ता ही जा रहा है. अगर 1962 से अब जो बिहार में महिलाओं के मतदान का औसत है, वो 32 प्रतिशत से बढ़कर 60 प्रतिशत से ज्यादा हो गया है. यानी 63 सालों में 28 फीसदी का इजाफा.
गठबंधन का गणित
नीतीश कुमार की खासियत यह है कि वे समय पर गठबंधन बदलकर अपनी स्थिति मजबूत कर लेते हैं. चाहे बीजेपी के साथ जाना हो या महागठबंधन का हिस्सा बनना, वह हमेशा सत्ता के समीकरण अपने पक्ष में बनाए रखते हैं. ऐसा नहीं है कि विपक्ष अगर इस रणनीति को गहराई से समझे और उस पर काम करे तो नीतीश के पॉलिटिक्स को मात दी जा सकती है, पर बिहार में विपक्ष हमेशा से नीतीश को हल्के में लेते आए हैं. इस बार भी आरजेडी और कांग्रेस को सबसे ज्यादा भरोसा नीतीश कुमार के 20 साल के एंटी इंकम्बेंसी पर है.
नीतीश का अनुभव, विरोधी दलों के लिए सीख
बिहार में जातीय समीकरणों की बात करें तो सीएम नीतीश कुमार की पकड़ के मैजिक को को समझना होगा. महिला वोट बैंक के लिए अलग से प्लान बनाना होगा. गठबंधन राजनीति में लचीलापन दिखाना होगा. नीतीश के एजेंडा की काट एडवांस में तैयार करनी होगी.
ऐसे समझें उनका गणित
बिहार की 243 विधानसभा सीटों में महिलाओं और युवाओं का वोट शेयर मिलाकर लगभग 55 प्रतिशत है. यादव, मुस्लिम और महादलित मिलकर 30 से 35 फीसदी वोट शेयर तय करते हैं. अगर विपक्ष इन समूहों को साध ले और नीतीश के सोशल इंजीनियरिंग मॉडल को समझकर रणनीति बनाए तो सत्ता बदलना मुश्किल नहीं है.
लोकसभा चुनाव में कर दिखाया था करिश्मा
नीतीश कुमार इससे पहले लोकसभा चुनाव 2024 में नीतीश कुमार ने सही जातिगत समीकरण और वोट बटोरने की क्षमता और चिराग पासवान की शानदार जीत के बल पर एनडीए को शीर्ष पर पहुंचा दिया था. बिहार में जहां कुछ खास लोकसभा सीट को 'कुर्मिस्तान', 'चित्तौड़गढ़' और 'गोप भूमि' के रूप में पहचानी जाती हैं. ऐसे क्षेत्र खास जाति के प्रभुत्व का पर्याय हैं.
दरअसल, राजनीति में चुनाव परिणाम जटिल उतार-चढ़ावों की कहानी है. इसके जरिए, जहां कुछ रूढ़ियां टूटती हैं तो कुछ मजबूत भी होती हैं. यह उतार-चढ़ाव भरी किस्मत की भी बात है. कुछ लोग लंबे और थकाऊ इंतजार के बाद विजयी हुए. जबकि कुछ को हार का सामना करना पड़ा.
लोकसभा चुनाव परिणाम आने से पहले तक जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार को भाजपा के लिए एक बोझ माना जाता था, ने 16 में से 12 सीटें जीतकर सभी आलोचकों का मुंह बंद कर दिया. बशर्ते, नीतीश कुमार केंद्र में खुद को किंगमेकर के रूप में स्थापित करने का अवसर मिला. दरअसल, यह बदलाव इतना चौंकाने वाला रहा है कि कई लोग तो फिर से "नीतीश के प्रधानमंत्री बनने" की बात भी चुनाव परिणाम आने के बाद करने लगे थे. भाजपा ने जिन 17 सीटों पर चुनाव लड़ा था, उनमें से 12 पर जीत हासिल की. एलजेपीआर ने सभी पांचों प्रत्याशियों को जिता कर पीएम मोदी की झोली में डाल दिया था. ये सब नीतीश कुमार के जातीय समीकरणों का ही नतीजा था.