जेल की छाया, कुर्सी की माया! दूसरे चरण में 32% उम्मीदवार हैं अपराधी, जनसुराज से कांग्रेस तक लंबी है लिस्ट

बिहार विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण में मैदान में उतरे 1297 उम्मीदवारों में से 32% पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जबकि 26% गंभीर अपराधों के आरोपी हैं. सबसे चौंकाने वाला आंकड़ा जनसुराज पार्टी से जुड़ा है, जिसके 117 में से 51 उम्मीदवारों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं. रिपोर्ट में पता चला कि 193 उम्मीदवारों पर हत्या और 79 पर हत्या के प्रयास जैसे मामले लंबित हैं. दूसरी ओर, 43% उम्मीदवार करोड़पति हैं, जो चुनावी सिस्टम की विडंबना भी दिखाता है.;

Edited By :  नवनीत कुमार
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बिहार विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण से पहले एक चौंकाने वाला सच सामने आया है. मतदान की तारीख नज़दीक है, लेकिन मतदाताओं के सामने जो चेहरा लोकतंत्र का खड़ा है, उसमें दाग़ कम नहीं, बढ़ते ही जा रहे हैं. उम्मीदवारों की सूची बताती है कि विकास, शिक्षा और रोज़गार की बातें भले चुनावी मंचों पर गूंजती रहें, लेकिन क़ानून की किताब में दर्ज आपराधिक पन्ने अब राजनीतिक योग्यता का हिस्सा बनते जा रहे हैं.

एडीआर और बिहार इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट तो और भी चिंता बढ़ाने वाली है. दूसरे चरण में मैदान में उतरे हर तीन में से एक उम्मीदवार पर आपराधिक मामला दर्ज है, और हर चार में से एक पर गंभीर अपराध का आरोप. हत्या, हत्या के प्रयास और महिलाओं पर अत्याचार जैसे मामलों में फंसे उम्मीदवारों की संख्या अब सिर्फ आंकड़ा नहीं, बिहार के लोकतंत्र पर एक बड़ा सवाल है- क्या जनता विकल्प चुन रही है, या मजबूरी में अपराध का प्रतिनिधि भेज रही है?

चुनावी मैदान में ‘क़ानूनी दाग़धारी’ उम्मीदवार

एडीआर और बिहार इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट में 1297 उम्मीदवारों में से 32% पर आपराधिक मामले और 26% पर गंभीर अपराध दर्ज पाए गए हैं. हैरानी की बात यह है कि 193 उम्मीदवारों पर हत्या, 79 पर हत्या के प्रयास और 52 पर महिलाओं पर अत्याचार के मामले दर्ज हैं. इनमें तीन नाम ऐसे भी हैं, जिन पर रेप के आरोप का जिक्र खुद उनके हलफनामों में है.

कौन सी पार्टी में सबसे ज़्यादा ‘दाग़दार’ उम्मीदवार?

डेटा बताता है कि यह समस्या किसी एक दल तक सीमित नहीं है. कांग्रेस के 54%, जन सुराज पार्टी के 44%, बीजेपी के 42%, राजद के 39% और जदयू के 25% उम्मीदवार गंभीर मामलों में आरोपी हैं. सबसे चौंकाने वाला नाम है भाकपा माले, जहां 76% उम्मीदवार गंभीर अपराधों से जुड़े हैं. साफ है कि दाग़ अब चुनावी टिकट का रोड़ा नहीं, बल्कि एक सामान्य स्थिति बन चुका है.

धन और अपराध- एक साथ बढ़ता ‘चुनावी कॉम्बो’

रिपोर्ट एक और सच बताती है कि हथकड़ी और संपत्ति साथ-साथ चल रही है. 43% उम्मीदवार करोड़पति हैं, जिनकी औसत संपत्ति 3.44 करोड़ रुपये है. यानी चुनाव में अपराध का दाग और धन का दम दोनों साथ खड़े हैं. सवाल यह भी है कि जिस लोकतंत्र में वोट गरीब का, जीत करोड़पतियों की वह कितना संतुलित है?

डिग्री में विविधता, इरादों में नहीं

48% उम्मीदवार ग्रैजुएट या उससे अधिक शिक्षित हैं, जबकि 41% सिर्फ 5वीं से 12वीं तक पढ़े हैं. 15 उम्मीदवार डिप्लोमा धारक, 217 सिर्फ साक्षर और 9 पूरी तरह निरक्षर हैं. यानी ज्ञान का स्तर अलग-अलग है, लेकिन सत्ता का लक्ष्य सबका एक ही है- विधानसभा में पहुंचना, चाहे इतिहास कैसा भी हो.

युवा कम, महिलाएं और भी कम

दूसरे चरण में 52% उम्मीदवार 41 से 60 वर्ष की उम्र के बीच हैं, जबकि 25-40 वर्ष के युवा सिर्फ 34% हैं. 60+ उम्मीदवारों की संख्या 13% है. महिला भागीदारी ना के बराबर- सिर्फ 10% यानी 133 उम्मीदवार. यानी चुनाव के दावों में महिलाओं को सम्मान मिले या न मिले, टिकट बांटने की फेहरिस्त में जगह अब भी बाजू भर है.

अपराधीकरण का इलाज कौन करेगा?

चुनावी नारे बदल सकते हैं, नाम बदल सकते हैं, पर पैटर्न वही है- अपराधी बैकग्राउंड वाले नेताओं की एंट्री बिना रोकटोक जारी है. अदालतें सख्ती की बात करती हैं, चुनाव आयोग चिंता जताता है, लेकिन टिकट देने वाली पार्टियां वोट गणित के आगे सब भूल जाती हैं. लोकतंत्र का असली दर्द यह है कि मतदाता किसे चुने? कम दाग़ वाले को या ज़्यादा प्रभावशाली को?

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