'ज्ञानकला के प्यार और पॉलिटिक्स में बेच दी जमींदारी', ऐसे थे बिहार के पूर्व CM SP सिंह, जानें अनकही कहानी
Kisse Netaon Ke: बिहार के पूर्व सीएम ऐसे मुख्यमंत्री थे, जिन्हें कॉलेज में पढ़ाई के दौरान ज्ञानकला नाम की लड़की प्यार हो गया. उन्होंने, उससे शादी करने की ठान ली. इस राह में जाति का बंधन रोड़ा बना तो उसे तोड़ दिया. उस समय ऐसा करना आसान नहीं था. इसका नतीजा यह हुआ कि उन्हें परिवार और नातेदारों से बाहर कर दिया गया. इसके बावजूद उन्होंने जिसे चाहा उससे शादी की और जिंदगी भर रिश्ते को निभाया.;
Kisse Netaon Ke: ये बात 1960 के दशक की है. उस समय सतीश प्रसाद सिंह कॉलेज में पढाई करते थे. कॉलेज की ही एक लड़की, जिसका नाम ज्ञानकला था, उनसे उन्हें प्यार हो गया. प्यार भी ऐसा कि वो उससे शादी करने के लिए तैयार हो गए. बात बिगड़ने पर दोनों के परिवार वालों ने विरोध किया. इस पर उन्होंने कहा था, "अगर मुझे जाति, राजनीति और प्रेम में से किसी एक चुनना हो, तो मैं प्यार को चुनूंगा." उनकी ये प्रेम कहानी बिहार की राजनीति अलहदा उदाहरण है.
नतीजे की परवाह नहीं करते थे सतीश बाबू
यह कहानी बिहार की राजनीति के दिलचस्प और रोमांटिक किस्सों में से एक है. सामान्य तौर पर इस तरह की कहानी बॉलीवुडिया फिल्मों में ही देखने को उस समय मिलती थी, लेकिन पूर्व सीएम सतीश प्रसाद सिंह ऐसे शख्स थे, जिन्होंने जाति और समाज के बंधनों को अपने 'अमर प्रेम' के लिए तोड़ दिया. इस बात की परवाह किए बगैर कि नतीजा क्या होगा?
प्यार में क्या- क्या नहीं किया?
सतीश प्रसाद सिंह बिहार के खगड़िया जिले के रहने वाले थे. उनकी मुलाकात ज्ञानकला से आरडीजे कॉलेज में पढ़ाई के दिनों में हुई थी. ज्ञानकला ऊंचे ब्राह्मण परिवार से थीं. जबकि सतीश प्रसाद सिंह ओबीसी (कोइरी समाज) से आते थे. उस दौर में कोइरी युवक को ब्राह्मण की बेटी से शादी करना सामाजिक तौर पर जुर्म की तरह लिया जाता था. इस लिहाज से देखें तो जाति दो प्रेमियों के बीच में सबसे बड़ी सामाजिक दीवार मानी जाती थी.
चूंकि, दोनों का प्यार जाति की दीवारों को तोड़ रहा था, इसलिए दोनों के परिवारों ने इस रिश्ते का विरोध किया, लेकिन सतीश प्रसाद सिंह ने ठान लिया कि वे ज्ञानकला से ही शादी करेंगे. समाज के विरोध और राजनीतिक दबाव के बावजूद उन्होंने खुलेआम यह स्वीकार किया कि, 'वे ज्ञानकला से प्यार करते हैं और शादी भी उसी से करेंगे.' उन्होंने कहा था - "अगर मुझे जाति, राजनीति और प्रेम में से किसी एक चुनना हो, तो मैं प्यार चुनूंगा."
'पावर कपल' के रूप में हुए लोकप्रिय
विरोध के बावजूद, उन्होंने ज्ञानकला सिंह से शादी की. इस रिश्ते को उन्होंने जीवन भर निभाया. 1980 में ज्ञानकला भी संसदीय चुनाव जीती. उसके बाद दोनों बिहार की राजनीति में एक 'पावर कपल' के रूप में जाने गए. सतीश प्रसाद सिंह का निधन दिल्ली में कोरोना से 2020 में हुआ. जबकि ज्ञानकला सिंह का निधन इससे पहले 2018 में हुआ.
जब एसपी सिंह ने लिया चौंकाने वाला फैसला
सतीश प्रसाद सिंह ने जो किया, वह उस दौर के नेताओं के लिए बेहद असाधारण और चौंकाने वाला था. परिवार की जमींदारी, सत्ता, पद और सामाजिक प्रतिष्ठा की परवाह किए बिना, अपने प्रेम के लिए ज्ञानकला से शादी की. यह कहानी आज भी बिहार की सबसे चर्चित प्रेम कहानियों में गिनी जाती है.
सिर्फ चार दिन के सीएम
बिहार के छठवें मुख्यमंत्री रहे सतीश प्रसाद एक और बात के लिए हमेशा याद किए जाएंगे. वो यह है कि वो जोड़ तोड़ की राजनीति के दम पर सीएम तो बन गए लेकिन सिर्फ पांच दिन ही उस कुर्सी का सुख भोग सके. पांचवें दिन उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और बीपी मंडल के सीएम बनने का रास्ता साफ कर दिया. बिहार में उनके नाम सबसे कम समय तक सीएम रहने का रिकॉर्ड है.
जमींदार परिवार हुआ था जन्म
खगड़िया जिले के परबत्ता प्रखंड में स्थित कोरचक्का गांव में एसपी सिंह का जन्म हुआ. 1 जनवरी 1936 को वह एक जमींदार परिवार में पैदा हुए थे. सतीश प्रसाद के पिता विश्वनाथ सिंह के पास 400 बीघा के करीब जमीन थी. प्रारंभिक शिक्षा के बाद वे पढ़ाई करने मुंगेर चले गए. यहां उन्होंने मैट्रिक के बाद स्नातक तक की पढ़ाई पूरी की.
बगावती तेवर के धनी थे एसपी
जब सतीश प्रसाद स्नातक की पढ़ाई कर ही रहे थे, तभी उनकी मुलाकात ज्ञानकला नाम की लड़की से हुई. दोनों की दोस्ती धीरे-धीरे प्यार में बदल गई. इसके बाद सतीश प्रसाद ने शादी की ठानी. उन्होंने इस सिलसिले में घरवालों को भी बताया, लेकिन एक जमींदार परिवार को अपने बेटे के किसी और जाति की लड़की से शादी का प्रस्ताव गंवारा नहीं हुआ. सतीश प्रसाद भी कहां मानने वाले थे. सोशलिस्ट पॉलिटिक्स में रुचि रखने वाले सतीश ने ज्ञानकला से शादी कर ली. ऐसा कर उन्होंने समाज में समरसता और सामाजिक एकता का संदेश दिया, जिसके लिए वो आज भी याद किए जाते हैं.
घर से अलगाव के बदले मिली हिस्से की जमीन
चूंकि, परिवार पहले ही इस फैसले को लेकर नापसंदगी जता चुका था, इसलिए सतीश प्रसाद को पारिवारिक विरासत से अलग कर दिया. लेकिन उन्हें उनके हिस्से की जमीन देकर.
प्यार और राजनीति के फेर में बेच दी जमीन
शादी के फैसले के बाद उनके कंधों पर अचानक शादी शुदा जिंदगी चलाने और राजनीति करने के लिए पैसों का टोटा पड़ गया. जैसे तैसे उनकी जिंदगी चलती रही. पर दोनों से किसी भी शौक को एसपी सिंह ने छोड़ा नहीं. वह जितना प्यार अपनी पत्नी से करते थे, उतना ही लगाव उनको राजनीति से भी था. इन दोनों को मैनेज करने के चक्कर में सतीश बाबू ने अपने हिस्से में आई जमीन को बेचना शुरू कर दिया. इसके बल पर न सिर्फ चुनाव लड़े, बल्कि इसी की बदौलत मुख्यमंत्री भी बने.
3 बार जमीन बेचकर लड़े चुनाव
उन्होंने 1962 में उन्होंने अपने जिले में आने वाली परबत्ता विधानसभा सीट से विधायकी का चुनाव लड़ने की ठानी. चुनाव लड़ने के लिए पैसों की कमी को अपने हिस्से की जमीन का कुछ हिस्सा बेचकर पूरा किया. स्वतंत्र पार्टी की टिकट पर चुनाव लड़े. उन्हें पहली बार चुनाव में कांग्रेस की लक्ष्मी देवी के हाथों हार का सामना करना पड़ा. 1964 में लक्ष्मी देवी के निधन के बाद फिर उप चुनाव भी हुए. सतीश प्रसाद सिंह फिर जमीन का एक टुकड़ा बेचकर चुनाव लड़ा. इस बार निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर लड़े और फिर हार गए.
खास बात यह है कि इसके बावजूद सतीश बाबू के हौसले कमजोर नहीं हुए. 1967 में जब बिहार में विधानसभा चुनाव हुए तो सतीश प्रसाद सिंह को परबत्ता सीट से जवाहर लाल नेहरू की नीतियों के एक और विरोधी की तरफ से टिकट मिला. यह नेता थे डॉ. राम मनोहर लोहिया और उनकी पार्टी थी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा). वही संसोपा, जो 1967 के चुनाव में कांग्रेस के सत्ता से बाहर होने की अहम वजह बनी. इस बार भी सतीश प्रसाद ने अपनी हिस्सेदारी वाली जमीन का एक टुकड़ा बेचा और चुनावी जंग में उतर गए. इस बार जीत नसीब हुई और विधानसभा पहुंच गए.
दूसरी तरफ पहली बार बिहार में गैर-कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ. संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ, भाकपा, जन क्रांति दल और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को मिलाकर सरकार बनाई. जन क्रांति दल के महामाया प्रसाद सिन्हा बिहार के पांचवें मुख्यमंत्री बने.
संविद सरकार में शुरुआत में तो सब ठीक-ठाक दिख रहा था, लेकिन कई दलों की खिचड़ी से बने इस गठबंधन के कई नेता सरकार में अपना दबदबा चाहते थे. दूसरी तरफ जनसंघ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) की विचारधारा एक-दूसरे के बिल्कुल उलट थी. जल्द ही संविद गठबंधन में दरार दिखने लगी. हालात बिगड़ने के बाद महामाया प्रसाद सिन्हा का कार्यकाल एक साल पूरा होता उससे पहले उन्होंने इस्तीफा दे दिया.
सीएम महामाया की एसपी से कहासुनी
दूसरी तरफ संसोपा से ही जीतकर पहली बार विधायक बने सतीश प्रसाद सिंह की सरकारी पदों पर कुछ नियुक्तियों को लेकर सीएम महामाया प्रसाद से कहासुनी हो गई. कहा जाने लगा कि जन क्रांति दल की मनमानी चल रही है. संसोपा के सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद उसके पिछड़े जाति के नेताओं की बात नहीं सुनी जा रही.
इस बीच बीपी मंडल ने सतीश प्रसाद सिंह को सीएम बनाने के लिए अपना समर्थन दे दिया. कांग्रेस भी इसी की फिराक थी, संसोपा सरकार गिरे तो सत्ता में वापसी का मौका मिले. वहीं, सतीश प्रसाद सिंह और बीपी मंडल ने जोड़तोड़ के जरिए संयुक्त विधायक दल सरकार से लगभग 20 से 30 नेताओं को तोड़ भी लिया. आखिरकार 1968 में विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव पेश हुआ. सीएम महामाया गठबंधन को अपने साथ नहीं रख पाए और सरकार गिर गई. शोषित दल के बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल ने अपने करीबी सतीश प्रसाद सिंह का नाम सीएम के रूप में आगे कर दिया. साथ ही ये भी कहा कि जब बीपी मंडल कहें तब एसपी सिंह इस्तीफा दे दें. ताकि मंडल खुद बिहार के सीएम बन सकें.
ओबीसी समुदाय के पहले सीएम
इस शर्त पर सतीश प्रसाद सिंह ने बिहार के छठे मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली. वे ओबीसी समुदाय से आने वाले राज्य के पहले सीएम बने. 28 जनवरी 1968 की शाम उन्होंने शपथ ली. 30 जनवरी को उनके साथ शोषित दल के दो और मंत्रियों को शपथ ली. इस बीच कैबिनेट की बैठक में बीपी मंडल को विधान परिषद भेजने की अनुशंसा कर दी. 29 जनवरी को बीपी मंडल को विधान परिषद भेजा गया और 1 फरवरी 1968 को बिहार में बीपी मंडल के नेतृत्व में सरकार बन गई. सतीश प्रसाद सिंह इस सरकार में मंत्री बने. इस तरह बिहार में पांच दिन के मुख्यमंत्री की कहानी का अंत हुआ और उसके बाद बीपी मंडल तय योजना के मुताबिक नए सीएम बन गए.
किसानों के हित में लिया फैसला
सतीश प्रसाद सिंह भले ही चार दिन के मुख्यमंत्री रहे, लेकिन इस दौरान उन्होंने किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए एक महत्वपूर्ण फैसला लिया था. उस दौर में बिहार में कुशवाहा जाति के अधिकतर किसान आलू उत्पादन में अग्रणी थे. हालांकि, बिहार में तब आलू को राज्य से बाहर बेचने की अनुमति नहीं थी. सतीश प्रसाद सिंह ने किसानों के आलू बिहार से बाहर भेजने की छूट का नियम बना दिया. यह फैसला बिहार के लिए खासा फायदे वाला साबित हुआ और सतीश प्रसाद सिंह की लोकप्रियता लगातार बनी रही.
सुर्खियों में आने के लिए बनाई 'जोगी और जवानी' फिल्म
पूर्व सीएम रहे सतीश प्रसाद सिंह की कहानी किसी फिल्मी अभिनेता से कम नहीं है. सीएम पद से इस्तीफा देने के बाद सतीश प्रसाद सिंह ने फिल्म निर्माण की दुनिया में भी हाथ आजमाया था. यह बात अलग है कि फिल्मी दुनिया में उनका करियर राजनीति की तरह लंबा नहीं रहा, लेकिन उनकी खुद की कहानी कम फिल्मी नहीं है.
सतीश प्रसाद सिंह ने इस दौर में एक फिल्म का भी निर्माण किया था. नाम था- जोगी और जवानी. वे इस फिल्म के निर्माता, निर्देशक थे. साथ ही उन्होंने इसमें अभिनय भी किया. लेकिन यह फिल्म कभी रिलीज नहीं हो पाई. एक मैगजीन को दिए इंटरव्यू में तब उन्होंने बताया था 'जोगी और जवानी' फिल्म सुर्खियों में आने के लिए बनाई थी. मगर ये कभी रिलीज नहीं हुई.