बिहार में 'जेपी-विरोधी' राजनीति का मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सबसे बड़ा नमूना... लालू-राबड़ी-तेजस्वी-प्रशांत किशोर कतार में...!
बिहार चुनाव से पहले जेपी आंदोलन के आदर्शों से राजनीतिक भटकाव पर बहस तेज हो गई है. नीतीश कुमार को 'जेपी-विरोधी राजनीति' का सबसे बड़ा उदाहरण बताया गया है, वहीं लालू, राबड़ी, तेजस्वी और प्रशांत किशोर भी उसी राह पर माने जा रहे हैं. वरिष्ठ पत्रकारों का मानना है कि अगर जयप्रकाश नारायण आज जीवित होते, तो ऐसे अवसरवादी और सत्ता लोलुप नेता राजनीति में टिक ही नहीं पाते. जेपी की ‘संपूर्ण क्रांति’ सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई थी.;
निकट भविष्य में ही होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव (Bihar Vidhansabha Election 2025) का शंखनाद समझिए बज ही चुका है. बस देखने को अगर अभी कुछ बाकी बचा है तो वह है मौका और मतलबपरस्त 'दल-बदलू' नेताओं के नाम सामने आना. यह काम भी जल्दी ही दिखाई देने लगेगा. ज्यों-ज्यों चुनाव होने का समय करीब आता जाएगा कई ‘मौसमी-नेता’ और गली-मुहल्ले के ‘दल’ भी खुद की किस्मत आजमाने के हथकंडों के साथ मैदान में कूद पड़ेंगे. भले ही चुनाव परिणाम आने पर उनकी जमानत तक न बचे. जिस बिहार में सिर्फ और सिर्फ आज अगड़ा-पिछड़ा, सवर्ण, ऊंचा-नीचा की ही राजनीति बाकी बची हो, वहां सत्ता के सिंहासन पर कौन सज जाएगा? अभी कहना मुश्किल है.
कहने को तो राज्य के आगामी विधानसभा चुनावों में ताल वह प्रशांत किशोर भी ठोक रहे हैं, जिन प्रशांत किशोर के कंधों पर जिन-जिन नेताओं और राजनीतिक पार्टियों ने अपना राजनीतिक-भविष्य सुधारने-संवारने की जिम्मेदारी दी थी, यही प्रशांत किशोर उन सबका बेड़ा गर्क करके लौट आए. ऐसे प्रशांत किशोर का इस बार के बिहार विधानसभा में अपना खुद का भविष्य गोरा होगा या काला? हम अपनी तो बात छोड़ें खुद प्रशांत किशोर को भी इसका जवाब नहीं मालूम होगा. अगर उन्हें अपना राजनीतिक भविष्य पता भी होगा तो वह क्यों जमाने में पहले से ही गा-बजाकर अपनी भद्द पिटपाएंगे?
हां, इन सबके बीच देश और बिहार की राजनीति के 'भीष्म-पितामह' कहे जाने वाले कद्दावर-मंझे हुए नेता स्वर्गीय जय प्रकाश नारायण यानी 'जेपी' का जिक्र करना बेहद जरूरी है. इसलिए कि अगर जेपी आज जिंदा होते तो राज्य की राजनीति में धमाचौकड़ी मचा रहे नीतीश कुमार, जनता दल यूनाइटेड यानी जेडीयू प्रमुख और कालांतर में बिहार में जंगलराज के जन्मदाता लालू प्रसाद यादव, उनकी पत्नी और सूबे की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी, प्रशांत किशोर और लालू-राबड़ी पुत्र तेजस्वी यादव की राजनीतिक दशा और दिशा क्या होती? क्योंकि जेपी एक राजनीतिक नाम-मात्र नहीं थे. वह ऐसे लौह पुरुष राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी की ईंट से बजाकर ‘चूलें’ हिला डाली थीं.
जेपी होते तो यह सब गायब हो चुके होते...
स्टेट मिरर हिंदी के साथ विशेष बातचीत में बिहार के बेबाक वरिष्ठ पत्रकार मुकेश बालयोगी कहते हैं, “बिहार की राजनीति के अखाड़े में जो धुरंधर अभी चमकते हुए सितारे बने दिखाई दे रहे हैं, फिर वह चाहे मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हों या फिर पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी अथवा बिहार की राजनीति में पहली बार कूदे सुराज पार्टी वाले प्रशांत किशोर, यह सब गायब हो चुके होते. यह बात मैं आज बिहार की राजनीति के नजरिये से कह रहा हूं. जो हाल और मौकापरस्ती का आज बिहार की राजनीति में है, जेपी के आज जिंदा होने पर यह सब कतई नहीं चलता. फिर चाहे जेपी को खुद अपनों के खिलाफ ही ‘राइट-टू-रीकॉल’ क्यों न लाना पड़ जाता.”
जेपी की ‘संपूर्ण-क्रांति’ का मकसद ‘सत्ता-परिवर्तन’ नहीं
एक सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, “जिन जय प्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी और कांग्रेस पार्टी को मिट्टी में मिला डाला हो. जिन जेपी ने कांग्रेस को सत्ता-दर्शन से तरसा दिया हो. जो जेपी इंदिरा गांधी जैसी आयरन लेडी को, मोम की सी गुड़िया में बदल देने की कुव्वत रखते थे. उन जेपी के सामने आज के नेताओं का जिक्र करना भी जेपी के उसूलों की तौहीन होगी. फिर चाहे वह मौजूदा राजनीति में केंद्र के नेताओं की भीड़ हो या फिर बिहार के तमाशाई नेताओं का मजमा. सत्ता का सिंहासन पाना ही जिनका सर्वोपरि सपना है. जेपी की राजनीति अव्वल दर्जे की और उसूलों वाली राजनीति थी. उनकी राजनीति वोट पाने भर की राजनीति नहीं थी. जेपी सत्ता में नहीं व्यवस्था में बदलाव के घोर समर्थक थे.”
जेपी और नीतीश-लालू-राबड़ी में फर्क
स्टेट मिरर हिंदी के एक सवाल के जवाब में बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ के राजनीतिक गलियारों में भटकते रहने वाले सत्तासीनों की करनी और कथनी पर पैनी नजर रखने वाले पत्रकार मुकेश बालयोगी बोले, “राजनीति में जहां जिक्र जेपी और उनके राजनीतिक उसूलों का हो वहां नीतीश, लालू, राबड़ी, तेजस्वी, प्रशांत कुमार को चर्चा में लाना भी आज जेपी की अनुपस्थिति में उनकी बेइज्जती करने जैसे समझता हूं. कहां सत्ता के पटल पर आसमान छूते जेपी और कहां जमीन पर सत्ता का सिंहासन की मैली मंशा या होड़ में इस दल उस दल की देहरी पर बेचैनी के आलम में भटकते हुए नीतीश कुमार, लालू-राबड़ी-तेजस्वी या प्रशांत कुमार. जेपी से किसी की भी तुलना करना सरासर बेईमानी होगा. चाहे भले ही आज जेपी जिंदा न हों. आज बिहार या देश के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में जिक्र अगर जेपी का मौजूदा नेताओं की तुलना में करें, तो सरल अक्षरों में समझ लीजिए कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली?”
आज के नेताओं और जेपी के सपनों में बड़ा फर्क
“जेपी राजनीति करते थे. मगर उन्हें सत्ता का मोह नहीं था. आज के नेता राजनीति करते हैं तो सिर्फ एक अदद प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के सिहांसन पर सजने भर की चाहत में. जेपी के सामने भला आज कौन नेता और कैसे टिक पायेगा. आज राजनीति स्वार्थ की चादर से ढकी हुई है. जेपी की राजनीति आमजन के घर-चूल्हे से शुरू होकर उन्हीं की देहरी पर जाकर खतम होती थी. जेपी जाति की राजनीति से ज्याद गरीब-पिछड़ों के उत्थान-उद्धार की राजनीति करते थे. आज कुर्सी पर जमा मुख्यमंत्री-मंत्री पहले अपने बेटे और बेटी को सत्ता के सिंहासन तक पहुंचाने की घिनौनी मंशा-मुसीबत से घिरा हुआ है. हर मंत्री-मुख्यंत्री अपने बेटा-बेटी को सत्ता का स्वाद चखवाने की लालसा में भटका या कहूं कि मारा-मारा फिर रहा है. कुछ को छोड़कर. तो अनुचित नहीं है. जेपी की राजनीति में उनका अपना और अपने लिए तो कुछ था ही नहीं. इसीलिए जेपी सत्ता के जंजाल या मकड़जाल में रहने के बाद भी कभी उसमें फंसे या उलझे नहीं.” बिहार में आज की राजनीति के परिप्रेक्ष्य बेबाक बातचीत के दौरान बताते हैं वरिष्ठ पत्रकार मुकेश बालयोगी.
जिंदा कौम 5 साल तक इंतजार नहीं करती
विशेष बातचीत के दौरान पत्रकार मुकेश बालयोगी बताते हैं, “आज मैं देख रहा हूं कि नेता सत्ता पाने और सत्ता के सिंहासन पर जमे रहने की ही जद्दोजहद में जिंदा है. जेपी (Jaiprakash Narayan Politician) की सोच इसके एकदम विपरीत थी. आज जहां सत्ता के सिंहासन की खातिर कब कौन मौकापरस्त नेता किस पार्टी की गोद में जा बैठेगा, नहीं पता होता है. जबकि जेपी इसके एकदम खिलाफ थे. जीवन की अंतिम सांस तक निस्वार्थ राजनीति करते रहने वाले जेपी यानी जय प्रकाश नारायण (Politician JP Jai Prakash Narayan) कहते थे कि जिंदा कौम पांच साल तक खुद को मुर्दा बनाए रखने के लिए बाध्य नहीं है. मतलब, जिस जनता ने अपने ‘मत’ से सरकार बनाई है. सरकार अगर उस जनता के खिलाफ चलती है.
'जनता' नेताओं और राजनीति की ‘दासी’ नहीं
तो जनता को पांच साल से पहले ही किसी भी दिन कभी भी उसी सरकार को सत्ता के सिंहासन से उतार फेंकने का भी अधिकार है. जनता नेताओं और सत्ता की 'दासी' नहीं है कि उसे नेता जब जैसे चाहें अपनी मर्जी के मुताबिक हांकेगें. आज मगर जेपी की अनुपस्थिति में देश और राज्यों की राजनीति में हो उसके एकदम उलट ही रहा है सबकुछ. जेपी जिसे सही कहते थे आज वही मौजूदा नेताओं को गलत लगता है. जिसकी जेपी खिलाफत में रहते थे वही सत्ता का सुख-स्वाह चाहने की मैली चाहत में मौजूदा नेताओं को अच्छा लगता है. इसे ही तो मौकापरस्ती की ओछी राजनीति कहते हैं.
जेपी विरोधी राजनीति का ‘नीतीश’ पहले नमूना
जेपी कभी भी सत्ता-सिंहासन को बचाए रखने के हिमायती तो कतई थे ही नहीं. वह हमेशा चुनी हुई सरकार को भी अपने ढर्रे से नीचे लुढ़कते देखने पर उसे, तुरंत गिराकर दूसरी नई सत्ता को जन्म देने में विश्वास रखते थे. ऐसे में आज के नीतीश कुमार, लालू-राबड़ी-तेजस्वी कहां टिकते हैं? जो सिर्फ और सिर्फ सत्ता के सिंहासन पर जा चढ़ने भर की हसरत में किसी भी हद तक नीचे गिरने को तैयार बैठे हैं. बीते 20 साल में तो बिहार के मौजूद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को ही देख लीजिए. जो इन्हें मुख्यमंत्री बनाएगा बिहार का, यह उसी पार्टी के पाले में जाकर कंचे खेलना शुरू कर देते हैं.”