बिहार SIR में अब नया बवाल! ‘प्री-फिल्ड नोटिस’ को लेकर उठते सवाल - कानून कुछ और कहता है, प्रक्रिया कुछ और चली?

बिहार में स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) के दौरान सामने आए प्री-फिल्ड नोटिस ने चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता पर सवाल खड़े कर दिए हैं. इंडियन एक्‍सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, हजारों ERO लॉग-इन पर ऐसे नोटिस दिखे, जिन्हें स्थानीय अधिकारियों ने जारी नहीं किया था, जबकि कानूनन नोटिस देने का अधिकार सिर्फ ERO को है. हालांकि इससे बड़े पैमाने पर नाम नहीं कटे, लेकिन केंद्रीय स्तर से हस्तक्षेप ने जवाबदेही और अधिकार-सीमा को लेकर गंभीर चिंता पैदा कर दी है.;

( Image Source:  ANI )
Edited By :  प्रवीण सिंह
Updated On : 16 Dec 2025 9:28 AM IST

बिहार में मतदाता सूची के स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) के दौरान एक ऐसा प्रक्रियागत मामला सामने आया है, जिसने चुनावी तंत्र के भीतर ही कई सवाल खड़े कर दिए हैं. जैसे ही मंगलवार से पांच राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में ड्राफ्ट वोटर लिस्ट के प्रकाशन के साथ मतदाताओं को नोटिस भेजे जाने की प्रक्रिया शुरू हुई, वैसे ही बिहार में हुए एक घटनाक्रम ने चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली को लेकर चिंता बढ़ा दी है.

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इंडियन एक्‍सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, सितंबर में बिहार SIR के अंतिम पखवाड़े के दौरान राज्य भर के कई इलेक्टोरल रजिस्ट्रेशन ऑफिसर्स (ERO) ने पाया कि चुनाव आयोग के केंद्रीय पोर्टल पर उनके लॉग-इन में अचानक “प्री-फिल्ड नोटिस” दिखाई देने लगे. ये नोटिस उन मतदाताओं के नाम थे, जिन्होंने पहले ही अपने फॉर्म और जरूरी दस्तावेज जमा कर दिए थे और जिनके नाम अगस्त में प्रकाशित ड्राफ्ट वोटर लिस्ट में शामिल भी थे.

कानून क्या कहता है?

यह मामला इसलिए गंभीर है क्योंकि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 (Representation of the People Act, 1950) के तहत किसी मतदाता की पात्रता पर संदेह करने और नोटिस जारी करने का अधिकार केवल संबंधित विधानसभा क्षेत्र के ERO को है. यानी स्थानीय स्तर पर नियुक्त अधिकारी के अलावा कोई और इस प्रक्रिया को शुरू नहीं कर सकता. खुद मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार भी इस सिद्धांत को स्पष्ट रूप से रेखांकित कर चुके हैं. 17 अगस्त को हुई एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने मतदाता सूची संशोधन को एक “विकेंद्रीकृत प्रक्रिया” बताया था और कहा था - “न मैं, न कोई चुनाव आयुक्त, न कोई EC अधिकारी और न ही कोई और व्यक्ति वोट जोड़ या हटा सकता है, जब तक कि कानून में तय प्रक्रिया का पालन न किया जाए.” इसी पृष्ठभूमि में बिहार में सामने आए इन प्री-फिल्ड नोटिसों ने कई EROs की भौंहें चढ़ा दीं.

प्री-फिल्ड नोटिस क्यों बने चिंता का कारण?

बिहार सरकार के पांच अधिकारियों ने (नाम न छापने की शर्त पर) बताया कि ये नोटिस 25 सितंबर, यानी दावे-आपत्तियों के निपटारे की अंतिम तारीख से ठीक पहले EROs के लॉग-इन पर दिखाई देने लगे. खास बात यह थी कि नोटिस ERO या AERO के नाम से जारी थे, लेकिन उन्हें ERO ने खुद जनरेट नहीं किया था. नोटिस पहले से भरे हुए थे, यानी उनमें कारण दर्ज करने के लिए कोई खाली जगह नहीं थी. इन नोटिसों पर ERO या AERO के हस्ताक्षर होने थे और फिर इन्हें बूथ लेवल ऑफिसर्स (BLOs) के जरिए मतदाताओं तक पहुंचाया जाना था. दो वरिष्ठ चुनाव आयोग अधिकारियों ने भी इस पूरी प्रक्रिया की पुष्टि की है.

जमीनी हकीकत: फॉर्मेट एक, भाषा एक

पटना और सिवान में ऐसे कई प्री-फिल्ड नोटिस देखे गए. ये नोटिस एक समान हिंदी फॉर्मेट में थे, इनमें मतदाता का नाम, EPIC नंबर, विधानसभा क्षेत्र, बूथ नंबर, सीरियल नंबर और पता पहले से भरा था. हर नोटिस में मतदाता को ERO के सामने पेश होकर अपनी पात्रता साबित करने के लिए दस्तावेज लाने को कहा गया था. इन सभी नोटिसों में संदेह का कारण भी एक ही टिक किया गया था, “जमा किए गए दस्तावेज अपूर्ण या अपर्याप्त हैं.”

क्या इससे बड़े पैमाने पर नाम कटे?

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, बिहार SIR के दौरान कुल 68.66 लाख नाम हटाए गए, लेकिन इनमें से सिर्फ 9,968 मामले ही ऐसे हैं जो अस्पष्ट (unexplained) माने जा रहे हैं. बाकी मामलों को मृत्यु, स्थानांतरण, डुप्लिकेशन या अनुपस्थिति के आधार पर जायज़ ठहराया गया है. यानी, यह प्रकरण बड़े पैमाने पर नाम काटे जाने में तब्दील नहीं हुआ. इसके बावजूद, सवाल यह बना हुआ है कि जब कानून जिम्मेदारी स्थानीय अधिकारी को देता है, तो केंद्रीय स्तर से हस्तक्षेप क्यों और कैसे हुआ?

SIR गाइडलाइंस का हवाला

इन नोटिसों में 24 जून को जारी SIR गाइडलाइंस के निर्देश 5(b) का उल्लेख किया गया है. इसमें कहा गया है कि अगर ERO/AERO को मतदाता की पात्रता पर संदेह हो, तो वह स्वतः (suo motu) जांच शुरू कर सकता है और नोटिस जारी कर सकता है. लेकिन यहां फर्क यह है कि पहले जो नोटिस फॉर्मेट था, उसमें ERO को खुद कारण लिखने की जगह मिलती थी जबकि नए प्री-फिल्ड नोटिस पहले से भरे हुए थे और नोटिस पर जारी करने की तारीख भी स्पष्ट नहीं थी. हालांकि अधिकारियों का कहना है कि नोटिस के सीरियल नंबर के आखिरी आठ अंक तारीख को दर्शाते हैं. जैसे, 13092025 का मतलब 13 सितंबर 2025.

राजनीतिक और व्यक्तिगत उदाहरण

सिवान के रघुनाथपुर से RJD विधायक ओसामा शाहाब भी उन मतदाताओं में शामिल थे जिन्हें नोटिस मिला. हालांकि बाद में उनका नाम मतदाता सूची में बरकरार रखा गया. उनके BLO जय शंकर प्रसाद चौरसिया ने बताया, “यह तकनीकी समस्या थी. दस्तावेज दोबारा अपलोड करने के बाद मामला सुलझ गया. जिन लोगों को मैंने नोटिस दिए, उनमें से किसी का नाम नहीं कटा.” उसी बूथ के एक अन्य मतदाता तारिक अनवर ने कहा कि उन्हें समझ ही नहीं आया कि नोटिस क्यों आया. “जब सुनवाई के लिए गया तो बताया गया कि मेरा नाम तो सूची में है.” एक अन्य BLO ने बताया कि उनके बूथ के छह मतदाताओं को नोटिस मिले, जबकि उनके दस्तावेज - यहां तक कि 2003 की मतदाता सूची के अंश - पहले से अपलोड थे. “शायद नाम की स्पेलिंग में मामूली फर्क रहा होगा. नोटिस सुनवाई से सिर्फ दो दिन पहले मिले.” अंततः, 30 सितंबर को जारी अंतिम मतदाता सूची में इन सभी नामों को बरकरार रखा गया.

चुनावी पारदर्शिता पर बड़ा सवाल

यह मामला किसी बड़े घोटाले की ओर इशारा न भी करे, लेकिन यह चुनावी प्रक्रिया की संवेदनशील कड़ी को जरूर उजागर करता है. जब कानून और संस्थागत ढांचा स्थानीय अधिकारियों को अंतिम जिम्मेदारी देता है, तब केंद्रीय स्तर पर तैयार किए गए प्री-फिल्ड नोटिस जवाबदेही की श्रृंखला को कमजोर कर सकते हैं. 12 दिसंबर को इस मुद्दे पर चुनाव आयोग को विस्तृत सवाल भेजे गए थे, लेकिन खबर लिखे जाने तक कोई जवाब नहीं मिला. बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी (CEO) भी टिप्पणी के लिए उपलब्ध नहीं थे.

बिहार SIR का यह अध्याय भले ही शांत हो गया हो, लेकिन इसने यह सवाल छोड़ दिया है कि मतदाता सूची जैसी संवेदनशील प्रक्रिया में अधिकार की रेखा आखिर कहां खींची जानी चाहिए? यही सवाल आने वाले चुनावों में और भी ज्यादा अहम होने वाला है.

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