न लड़का न लड़की... डिसऑर्डर ऑफ सेक्स डेवलपमेंट क्या है, क्यों बढ़ रहे इसके मामले, क्या है इलाज?
भारत में डिसऑर्डर ऑफ सेक्स डेवलपमेंट बीमारी के केस सामने आ रहे हैं. दरअसल इस बीमारी में समझ नहीं आता है कि बच्चा लड़का है या लड़की, क्योंकि उसके अंग सही तरीके से डेवलेप नहीं होते हैं. ऐसे में चलिए जानते हैं आखिर इस बीमारी के लक्षण और इलाज क्या है.;
जन्म के समय जब बच्चे की पहली झलक दिखाई जाती है, तो सबसे पहला सवाल अक्सर यही होता है कि लड़का है या लड़की? लेकिन कुछ बच्चों के लिए यह सवाल इतना आसान नहीं होता. ऐसे ही मामलों को डिसऑर्डर्स ऑफ सेक्सुअल डेवलपमेंट (DSD) कहा जाता है, जहां बच्चे का शरीर बायोलॉजिकल तौर पर महिला और पुरुष की कैटेगरी में पूरी तरह फिट नहीं बैठता है.
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भारत में अब इस बीमारी के मामले बढ़ते जा रहे हैं. चलिए ऐसे में जानते हैं आखिर क्या है डिसऑर्डर्स ऑफ सेक्सुअल डेवलपमेंट. क्यों होती है ये बीमारी और इसके लक्षण क्या हैं?
क्या है डिसऑर्डर्स ऑफ सेक्सुअल डेवलपमेंट?
डिसऑर्डर्स ऑफ सेक्सुअल डेवलपमेंट कोई एक बीमारी नहीं, बल्कि कई कंडीशन हैं. इसमें किसी व्यक्ति के क्रोमोसोम, हार्मोन, आंतरिक अंग या प्राइवेट पार्ट का डेवलेपमेंट नॉर्मल पैटर्न से अलग होता है. किसी बच्चे में XY क्रोमोसोम होने के बावजूद बाहरी अंग महिला जैसे दिख सकते हैं, तो किसी में XX क्रोमोसोम के साथ पुरुष जैसे जननांग नजर आ सकते हैं. कुछ मामलों में दोनों तरह के टिश्यू भी मौजूद होते हैं. जरूरी बात यह है कि DSD होना “गलत” या “असामान्य इंसान” होने का मतलब नहीं है. यह सिर्फ विकास का एक अलग तरीका है.
DSD के लक्षण
DSD के लक्षण हर व्यक्ति में अलग हो सकते हैं. कुछ बच्चों में जन्म के समय प्राइवेट पार्ट क्लियर नहीं होते हैं, कहीं टेस्टिकल्स नीचे नहीं उतरते, तो कहीं क्लिटोरिस असामान्य रूप से बड़ा दिखता है. किशोरावस्था में देरी से या असामान्य तरीके से यौवन शुरू होना, हार्मोन असंतुलन, पीरियड्स का असामान्य समय या बांझपन भी इसके लक्षण हो सकते हैं.
क्यों होती है यह बीमारी?
इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं. इनमें जीन में बदलाव, गर्भ में अंगों का सही तरह से विकसित न होना, हार्मोन का कम या ज्यादा बनना, या गर्भावस्था के दौरान कुछ दवाओं और हार्मोन का असर. कई बार यह बदलाव अचानक होते हैं और परिवार में पहले कभी ऐसा इतिहास नहीं होता.
क्या है इस बीमारी का इलाज?
DSD का इलाज व्यक्ति के लक्षणों पर निर्भर करता है. कई मामलों में सिर्फ नियमित निगरानी ही काफी होती है. कुछ लोगों को हार्मोन थेरेपी की जरूरत पड़ती है, ताकि शरीर का डेवलेपमेंट बैलेंस रहे और हड्डियों जैसी समस्याओं से बचाव हो सके. सर्जरी केवल तब की जाती है जब मेडिकली जरूरी हो, और अब भारत में भी डॉक्टर बच्चों के बड़े होने तक ऐसे फैसले टालने पर जोर दे रहे हैं.
भारत में क्यों सामने आ रहे हैं ज्यादा मामले
भारत में पहले ऐसे बच्चों को सामाजिक दबाव, जानकारी की कमी और गलत धारणाओं के कारण छिपा दिया जाता था. अब बेहतर मेडिकल सुविधाओं, जेनेटिक टेस्टिंग और माता-पिता की बढ़ती समझ के चलते DSD की पहचान समय पर हो रही है. विशेषज्ञों के मुताबिक, करीब 4,000 से 5,000 में एक बच्चा किसी न किसी प्रकार के DSD के साथ जन्म लेता है.
DSD के साथ पैदा हुए ज्यादातर लोग सही मेडिकल देखभाल और सोशल सपोर्ट मिलने पर पूरी तरह नॉर्मल, हेल्दी जीवन जीते हैं. असली इलाज सिर्फ दवाइयों में नहीं, बल्कि समझ, संवेदनशीलता और अपनाने में छिपा है और भारत धीरे-धीरे इसी दिशा में आगे बढ़ रहा है.