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अराफात की पहाड़ी पर पहुंचना सिर्फ सफर नहीं, आत्मा की तपस्या है; क्यों यहां ठहरना है हज की आत्मा?

अराफात की पहाड़ी मक्का से 20 किमी दूर स्थित है, जहां हज यात्री भीषण गर्मी में पहुंचकर आत्म-मंथन करते हैं. इसे जबल अर-रहमा यानी दया का पहाड़ कहा जाता है. यही वह स्थान है जहां पैगंबर मुहम्मद ने आखिरी खुतबा दिया था. हज का यह सबसे पवित्र और जरूरी पड़ाव माना जाता है, जहां रूह खुदा से साक्षात्कार करती है.

अराफात की पहाड़ी पर पहुंचना सिर्फ सफर नहीं, आत्मा की तपस्या है; क्यों यहां ठहरना है हज की आत्मा?
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नवनीत कुमार
Curated By: नवनीत कुमार

Published on: 6 Jun 2025 2:36 PM

हर साल लाखों हज यात्री सऊदी अरब की चिलचिलाती धूप में अराफात की पहाड़ी की ओर बढ़ते हैं, मानो कोई रहस्य नहीं बल्कि अपनी आत्मा की सच्ची परीक्षा देने निकले हों. यह सिर्फ एक धार्मिक रस्म नहीं, बल्कि खुद से और खुदा से साक्षात्कार का मुकाम है. 40 डिग्री से ऊपर तापमान, उबड़-खाबड़ रास्ता और थकावट के बावजूद हज यात्री यहां इसलिए पहुंचते हैं क्योंकि यही उनकी रूह की आवाज़ है.

अराफात की यह ग्रेनाइट पहाड़ी, जिसे इस्लामी परंपरा में "जबल अर-रहमा" यानी दया का पहाड़ कहा गया है, मक्का से करीब 20 किलोमीटर दूर स्थित है. इसे महज भूगोल की दृष्टि से न देखें- यह वह जगह है जहां पैगंबर मुहम्मद ने आखिरी बार उम्मा को संबोधित किया था. यह उपदेश केवल शब्द नहीं था, यह इस्लाम के मूल्यों, दया और इंसाफ का स्थायी दस्तावेज बन गया.

अराफात की पहाड़ी क्या है?

अराफात की पहाड़ी, जिसे जबल अर-रहमा (दया का पहाड़) भी कहा जाता है, सऊदी अरब के मक्का शहर से करीब 20 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में स्थित एक ग्रेनाइट की पहाड़ी है. यह इस्लाम के सबसे पवित्र स्थलों में से एक है और हज यात्रा का केंद्रीय स्थल माना जाता है. अराफात का मैदान वही स्थान है जहां पैगंबर मुहम्मद ने अपने जीवन का अंतिम उपदेश (खुतबा) दिया था. इस ऐतिहासिक भाषण में उन्होंने मानवता, समानता और इस्लामी सिद्धांतों पर बल दिया. इसलिए यह स्थल इस्लामी इतिहास और आस्था में बेहद महत्वपूर्ण है. हज की रिवायत के अनुसार, अराफात के मैदान में ठहरना हज का सबसे आवश्यक हिस्सा है. बिना अराफात में दिन बिताए हज अधूरा माना जाता है. 9वीं जिलहिज्जा को हज यात्री यहां सूर्यास्त तक रुकते हैं, जिससे यह दिन 'अराफा का दिन' कहलाता है.

अराफात: इबादत नहीं, आत्म-मंथन का मैदान

अराफात के मैदान में हजारों-लाखों लोग इकट्ठा होते हैं, लेकिन भीड़ में भी हर कोई अकेला होता है- अपने रब के सामने. यहां सिर्फ प्रार्थना नहीं होती, यहां खुद की गलतियों को स्वीकारने, माफी मांगने और दोबारा एक नेक ज़िंदगी शुरू करने का संकल्प लिया जाता है. यही वजह है कि इसे हज का सबसे जरूरी और पवित्र पड़ाव माना जाता है.

चार दिन की सड़क यात्रा

हर यात्री की कहानी यहां एक तपस्या बन जाती है. यमन के सलीम नाजी अहमद जैसे लोग चार दिन की सड़क यात्रा कर सिर्फ एक मन्नत पूरी करने यहां पहुंचते हैं. विमान का टिकट न सही, मगर इरादे और ईमान की उड़ान उन्हें इस तपते रेगिस्तान में भी मंज़िल तक पहुंचा देती है. उनके लिए यह चढ़ाई सिर्फ भौगोलिक नहीं, बल्कि आत्मिक ऊंचाई की ओर एक क़दम है.

पांचवां स्तंभ, मगर सबसे भारी फ़र्ज़

इस्लाम के पांच स्तंभों में से एक हज महज़ एक तीर्थयात्रा नहीं, बल्कि ज़िन्दगी भर की सबसे कठिन परीक्षा है. आर्थिक और शारीरिक रूप से सक्षम हर मुसलमान के लिए यह एक बार जरूरी है. इसलिए दुनिया के हर कोने से, हर वर्ग, हर रंग और हर जुबान के लोग अराफात में एक साथ सिर झुकाते हैं. जहां फर्क नहीं, सिर्फ फर्ज़ होता है.

रहस्य नहीं, रहमत की पराकाष्ठा

अराफात की पहाड़ी को रहस्य कह देना इसकी गहराई को कम करना होगा. यह रहस्य नहीं एक रहमत है, जो हर साल लाखों मुसलमानों को खींच लाती है तपती रेत और कड़कती धूप के बीच भी. यह उस क्षण की तलाश है जब इंसान और खुदा आमने-सामने खड़े होते हैं- बिना पर्दे, बिना बहाने. यही अराफात की असल पहचान है.

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