9/11 के बाद अमेरिका के हाथों बिक गया था मुशर्रफ, यूएस को दे दी थी परमाणु कंट्रोल की चाबी; CIA अधिकारी ने क्या-क्या बताया?
2001 के 11 सितंबर के हमलों के बाद दुनिया के राजनीतिक समीकरण पूरी तरह बदल गए थे। इसी बीच पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ अमेरिका के बेहद करीब आ गए. अमेरिका ने न केवल आर्थिक और सैन्य मदद दी, बल्कि पाकिस्तान के परमाणु हथियारों पर भी कथित तौर पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया.
2001 के 11 सितंबर के हमलों के बाद दुनिया बदल गई थी. अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध का एलान किया और इस खेल में पाकिस्तान का महत्व बढ़ गया. इसी दौरान पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ अमेरिका के बेहद करीब आ गए.
अमेरिका के पूर्व सीआईए अधिकारी जॉन किरेकौ ने हाल ही में खुलासा किया कि मुशर्रफ ने पाकिस्तान के परमाणु हथियारों का नियंत्रण अमेरिका के पेंटागन के हाथों में सौंप दिया था. किरेकौ के अनुसार, अमेरिका ने मूल रूप से मुशर्रफ को “खरीद” लिया था.
अमेरिका और मुशर्रफ का रिश्ता
किरेकौ ने बताया कि 2002 में जब वे पाकिस्तान में तैनात थे, उन्हें अनौपचारिक रूप से बताया गया कि पेंटागन पाकिस्तान के परमाणु हथियारों पर नियंत्रण रखता है. 9/11 के बाद, पाकिस्तान अमेरिका का अहम सहयोगी बन गया. किरेकौ ने कहा, “अमेरिका को तानाशाहों के साथ काम करना पसंद है. इससे जनता की राय या मीडिया की चिंता नहीं रहती. हमने मूल रूप से मुशर्रफ को ‘खरीद’ लिया.”
अरबों डॉलर की बरसात
9/11 के बाद अमेरिका ने पाकिस्तान पर खूब पैसा बरसाया. वॉशिंगटन की तरफ़ से जारी रिपोर्टों के अनुसार, 2002 से 2011 तक अमेरिकी कांग्रेस ने लगभग 18 अरब डॉलर की सैन्य और आर्थिक मदद पाकिस्तान के लिए मंजूर की. हालांकि, वास्तव में करीब 8.65 अरब डॉलर ही पाकिस्तान की सरकारी तिजोरी में पहुंचे. इस मदद में सेना के लिए उपकरण, आतंकवाद-रोधी अभियानों में सहयोग के नाम पर मुआवजा, और सीमाई सुरक्षा फंड शामिल थे. किरियाकू के अनुसार, अमेरिका के उच्च अधिकारी मुशर्रफ से हफ्ते में कई बार मिलते थे और वे लगभग हर अमेरिकी मांग को स्वीकार कर लेते थे. बदले में, उन्हें सत्ता में बने रहने की गारंटी मिलती रही.
मुशर्रफ की दोहरी नीति
जॉन किरियाकू ने बताया कि मुशर्रफ दोहरा खेल खेल रहे थे. बाहर से वे अमेरिका के वॉर ऑन टेरर में साझेदार दिखते थे, लेकिन अंदरखाने उन्होंने पाकिस्तान की सेना और कट्टरपंथियों को शांत रखने के लिए भारत के खिलाफ आतंक को हवा दी. किरियाकू के मुताबिक, पाकिस्तानी सेना अल-कायदा की परवाह नहीं करती थी. उनका असली ध्यान भारत पर था. इसलिए मुशर्रफ को दोनों पक्षों को खुश रखना पड़ा, अमेरिकियों को दिखावे के लिए सहयोग और अपनों को राज़ी रखने के लिए भारत विरोधी आतंक को जारी रखना.
अमेरिका जानता था सब, पर चुप रहा
अमेरिकी अधिकारियों को यह सब मालूम था. लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे संगठनों को पाकिस्तानी तंत्र से समर्थन मिलने की जानकारी वॉशिंगटन को पहले से थी, लेकिन अफगानिस्तान में अभियान न बिगड़ जाए, इस डर से अमेरिका ने कुछ भी खुलकर नहीं कहा. 2008 की काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस की रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिकी प्रशासन ने इन बातों पर आंखें मूंदे रखना ही बेहतर समझा.
पर्दे के पीछे की डील का नतीजा
यह कहानी दर्शाती है कि कैसे राजनीतिक जरूरतें और रणनीतिक फायदे कभी-कभी नैतिकता और सुरक्षा से बढ़कर हो जाते हैं. मुशर्रफ ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए अमेरिका के आगे झुकाव दिखाया, वहीं अमेरिका ने आतंक के खिलाफ लड़ाई के नाम पर एक ऐसे शासक को “खरीद” लिया, जिसने भारत के खिलाफ आतंक को कभी खत्म नहीं होने दिया. यह पूरा किस्सा बताता है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में दोस्ती या दुश्मनी नहीं, सिर्फ हित चलते हैं और जब शक्ति संतुलन की बात हो, तो “न्यूक्लियर हथियार” भी सौदेबाज़ी का हिस्सा बन सकते हैं.





