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प्राइवेट में दी जातिसूचक गाली तो नहीं बनेगा SC/ST एक्‍ट का केस, राजस्थान हाईकोर्ट ने पलटा 31 साल पुराना केस

राजस्थान हाईकोर्ट ने 1994 के एक मामले में बड़ा फैसला देते हुए SC/ST एक्ट के तहत दी गई 31 साल पुरानी सजा को रद्द कर दिया. कोर्ट ने कहा कि बंद शोरूम के अंदर हुआ कथित जातिगत अपमान ‘पब्लिक व्यू’ की कानूनी शर्त पूरी नहीं करता. अदालत के मुताबिक, इस कानून का उद्देश्य सार्वजनिक रूप से होने वाले जातिगत अपमान को रोकना है, न कि हर निजी विवाद को अत्याचार का मामला बनाना.

प्राइवेट में दी जातिसूचक गाली तो नहीं बनेगा SC/ST एक्‍ट का केस, राजस्थान हाईकोर्ट ने पलटा 31 साल पुराना केस
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( Image Source:  X/@GitaSunilPillai )
नवनीत कुमार
Edited By: नवनीत कुमार

Published on: 18 Dec 2025 12:14 PM

जाति आधारित अपमान से जुड़े कानून भारत के सबसे सख्त और संवेदनशील प्रावधानों में गिने जाते हैं. SC/ST (Prevention of Atrocities) Act का उद्देश्य सामाजिक अपमान को सार्वजनिक रूप से रोकना है, ताकि दलित और आदिवासी समुदाय की गरिमा सुरक्षित रह सके. लेकिन राजस्थान हाईकोर्ट के ताज़ा फैसले ने यह साफ कर दिया कि कानून का इस्तेमाल भावनाओं से नहीं, तय कानूनी शर्तों के आधार पर ही होगा.

करीब 31 साल पुराने एक मामले में राजस्थान हाईकोर्ट ने यह कहते हुए सजा रद्द कर दी कि बंद दुकान के अंदर हुआ कथित जातिगत अपमान ‘पब्लिक व्यू’ में नहीं आता. इस एक शब्द public view की व्याख्या ने पूरी दोषसिद्धि को धराशायी कर दिया.

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1994 में दर्ज हुआ था केस

यह केस 1994 में दर्ज हुआ था. शिकायतकर्ता ने आरोपी से बाइक खरीदी थी, जो लोन पर ली गई थी. भुगतान के लिए दिए गए चेक बाद में बाउंस हो गए. इसके बावजूद, वाहन ग्राहक के पास रहा और एक साल बाद उसका एक्सीडेंट हो गया.

मरम्मत के बाद भुगतान पर हुआ विवाद

एक्सीडेंट के बाद दुकानदार ने बाइक की मरम्मत करवाई. जब शिकायतकर्ता बाइक लेने पहुंचा, तो उसने बकाया राशि डिमांड ड्राफ्ट से देने की पेशकश की. दुकानदार ने यह कहकर इनकार कर दिया कि वह अब केवल नकद भुगतान स्वीकार करेगा. यहीं से दोनों के बीच कहासुनी शुरू हुई.

बंद शोरूम के अंदर जातिगत गाली का आरोप

शिकायत के अनुसार, इसी बहस के दौरान दुकानदार ने दुकान के अंदर जाति के नाम पर अपमानजनक शब्द कहे और कथित तौर पर मारपीट भी की. इसके बाद SC/ST एक्ट सहित अन्य धाराओं में केस दर्ज हुआ और ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी मान लिया.

हाईकोर्ट ने पूछा- क्या यह ‘पब्लिक व्यू’ में था?

अपील की सुनवाई के दौरान राजस्थान हाईकोर्ट ने सीधे कानून की मूल शर्त पर ध्यान केंद्रित किया कि धारा 3(1)(x) तभी लागू होगी जब अपमान ‘किसी ऐसे स्थान पर’ हो जो सार्वजनिक दृष्टि में हो. जस्टिस फरजंद अली ने कहा कि कानून सिर्फ अपमान को नहीं, बल्कि सार्वजनिक अपमान को अपराध मानता है.

चार दीवारी के भीतर की घटना क्यों कानून के बाहर गई?

अदालत ने कहा कि बंद शोरूम एक निजी स्थान है. वहां न तो कोई आम नागरिक मौजूद था, न ही यह साबित किया गया कि कथित गालियां बाहर तक सुनी गईं. सिर्फ शिकायतकर्ता और आरोपी की मौजूदगी ‘पब्लिक व्यू’ नहीं मानी जा सकती.

गवाहों और सबूतों की भारी कमी

कोर्ट ने यह भी पाया कि कोई स्वतंत्र प्रत्यक्षदर्शी पेश नहीं किया गया. मारपीट के चिकित्सीय प्रमाण नहीं मिले और डिमांड ड्राफ्ट से भुगतान का कोई दस्तावेज पेश नहीं हुआ. इन कमियों ने शिकायत की विश्वसनीयता को कमजोर कर दिया.

निजी लेन-देन को अत्याचार कानून में बदलने पर सवाल

फैसले में यह टिप्पणी भी अहम रही कि पूरा विवाद मूल रूप से व्यावसायिक और भुगतान से जुड़ा था. अदालत ने संकेत दिया कि हर निजी झगड़े को SC/ST एक्ट के दायरे में लाना कानून की मंशा के खिलाफ है.

फैसला क्या कहता है?

इन सभी तथ्यों के आधार पर हाईकोर्ट ने 31 साल पुरानी सजा को रद्द कर दिया. साथ ही यह स्पष्ट किया कि जातिगत अपमान गंभीर अपराध है. लेकिन SC/ST एक्ट का प्रयोग तभी होगा जब सभी कानूनी शर्तें पूरी हों. ‘पब्लिक व्यू’ एक अनिवार्य तत्व है, औपचारिक शब्द नहीं.

कानून की ताकत, लेकिन सीमाओं के साथ

यह फैसला न तो जातिगत अपमान को कमतर आंकता है, न ही कानून को कमजोर करता है. बल्कि यह बताता है कि सख्त कानून भी सटीक शर्तों और ठोस सबूतों पर ही टिकते हैं. राजस्थान हाईकोर्ट का यह निर्णय आने वाले समय में ऐसे मामलों के लिए एक अहम मिसाल बनेगा.

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