बिहार चुनाव में हर बार क्यों उठता है तेजस्वी बनाम कन्हैया का मुद्दा?
बिहार की राजनीति में हर लोकसभा और विधानसभा चुनाव के दौरान तेजस्वी यादव और कन्हैया कुमार की तुलना मीडिया में होती है. क्या यह केवल दो युवा चेहरों की लड़ाई है या इसके पीछे है विचारधाराओं की टकराहट, नेतृत्व की होड़ और कांग्रेस-आरेजडी का भविष्य? लोगों का कहना है कि लालू यादव को लगता है कि कन्हैया कुमार बिहार में एक्टिव हुए तो तेजस्वी कमजोर पड़ जाएंगे.

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 को लेकर सियासी दलों की गतिविधियों तेज होते ही एक पुराना मुद्दा फिर से सुर्खियों है. यह मुद्दा तेजस्वी बनाम कन्हैया से जुड़ा है. दोनों युवा नेता हैं और दोनों के पारिवारिक और सियासी पृष्ठभूमि भी अलग अलग है. कन्हैया कॉमरेड से कांग्रेसी हो गए हैं. वहीं तेजस्वी यादव को राजनीति की विरासत लालू यादव से मिली है. सवाल उठता है कि जब तेजस्वी यादव पहले से महागठबंधन के घोषित नेता हैं, तो फिर हर बार कन्हैया कुमार का नाम इतनी जोर-शोर से क्यों उछलता है? जानें दोनों के बीच इस सियासी खींचतान का राज.
इसका जवाब यह है कि बिहार की राजनीति हमेशा से जाति, विचारधारा और चेहरे के इर्द-गिर्द घूमती रही है. तेजस्वी यादव और कन्हैया कुमार दोनों ही युवा हैं, लेकिन उनकी राजनीति की जड़ें और यात्रा बिल्कुल अलग है. तेजस्वी यादव, लालू यादव के बेटे और आरजेडी के नेता हैं, जो पहले से मुख्यमंत्री पद के दावेदार के तौर पर बिहार में स्थापित हैं.
कन्हैया कुमार जेएनयू की छात्र राजनीति से निकलकर वामपंथी पहचान के साथ कांग्रेस में शामिल हुए अब वाम और मध्यमार्गी सोच के नेता हैं. चूंकि कन्हैया कुमार शिक्षित और युवा नेता है, इसलिए आरजेडी नेताओं को लगता है कि अगर कन्हैया बिहार की राजनीति में जमीन पर सक्रिय हुए तो तेजस्वी यादव रेस में काफी पिछड़ जाएंगे.
दोनों के बीच बहस की वजह
जहां तक हर चुनाव से पहले दोनों को लेकर यह बहस की - क्या कन्हैया तेजस्वी को चुनौती दे सकते हैं? इस सवाल के पीछे सिर्फ 'कौन बड़ा नेता' वाली जिज्ञासा नहीं बल्कि यह भी चिंता होती है कि बिहार में महागठबंधन की राजनीति किस दिशा में जा रही है. तेजस्वी की ताकत है उनका जमीनी जनाधार है. खासकर यादव-मुस्लिम समीकरण और पिछड़े वर्ग के मतदाताओं का समर्थन उन्हें हासिल है. उन्होंने पिछले चुनाव में लालू यादव का जेल रहने पर भी 75 सीटें जीतकर खुद को बड़ा नेता साबित किया था.
कांग्रेस नेता कन्हैया की ताकत है उनका बौद्धिक करिश्मा, भाषण शैली और कांग्रेस नेतृत्व का सपोर्ट है. कन्हैया की यही ताकत उन्हें बिहार में तेजस्वी का विकल्प बनाता है, खासकर बिहार के शहरी युवाओं के बीच.
कन्हैया से आरजेडी नेताओं को क्यों है परेशानी?
कांग्रेस के कन्हैया कुमार से आरजेडी नेताओं को मुश्किल तब होती है जब यह सवाल उठने लगता है कि अगर दोनों एक ही मंच पर होंगे, तो नेतृत्व कौन करेगा? तेजस्वी जनाधार वाले नेता हैं, लेकिन कांग्रेस के कुछ वर्गों को लगता है कि कन्हैया लंबी रेस का घोड़ा हैं. वह भविष्य में तेजस्वी को रिप्लेस कर सकते हैं.
साइलेंट प्रतियोगी हैं कन्हैया
यही वजह है कि कन्हैया की उपस्थिति मात्र से महागठबंधन में शामिल दो प्रमुख पार्टियों के बीच ‘साइलेंट प्रतिस्पर्धा’ शुरू हो जाती है, जो कई बार भी मीडिया की सुर्खियों में है. पटना में चुनाव सुधार को लेकर जारी एसआईआर के विरोध में आरजेडी के लोगों ने इसकी वजह से कन्हैया कुमार को मंच पर राहुल गांधी से मिलने से रोक दिया और धक्का मारकर वापस कर दिया. हालांकि, ये घटना पप्पू यादव के साथ भी हुई.
कास्ट फैक्टर भी अहम
बिहार में जातीय समीकरण भी अहम है. तेजस्वी यादव ‘यादव’ वोट बैंक को लेकर मजबूत हैं. जबकि कन्हैया भूमिहार समुदाय से आते हैं, जो परंपरागत रूप से बीजेपी का सपोर्टर है, लेकिन कांग्रेस को लगता है कि कन्हैया जैसे चेहरे से वो इस वर्ग में सेंध लगा सकती है. हालांकि, अभी तक कन्हैया को कांग्रेस ने बिहार में कोई बड़ा चुनावी चेहरा नहीं बनाया है, लेकिन मीडिया और सोशल मीडिया पर उन्हें तेजस्वी का "बौद्धिक विकल्प" बताने वालों की कमी नहीं है.
जनता को युवा नेतृत्व की तलाश
दोनों के बीच एक और वजह यह भी है कि बिहार की जनता को युवा नेतृत्व की तलाश है. जब भी दो युवा चेहरे सामने आते हैं, जनता दोनों के बीच तुलना करने लग जाते हैं. यही वजह है कि तेजस्वी बनाम कन्हैया की बहस हर चुनाव से पहले हवा में तैरने लगती है.
पीके ने कन्हैया का लिया पक्ष
इस बीच जन सुराज के प्रमुख प्रशांत किशोर ने कन्हैया कुमार को प्रभावशाली नेता बताकर इस बहस को और तेज कर दिया है. उन्होंने कहा कि वह प्रतिभावान नेता हैं. आरजेडी नहीं चाहती कि कांग्रेस में ऐसे प्रभावशाली बिहार में नेता सक्रिय रहें. कन्हैया कुमार जैसे नेताओं से आरजेडी को डर लगता है, क्योंकि वह उसके नेतृत्व को चुनौती दे सकते हैं. कांग्रेस के नेता रहे संजय निरुपम ने भी कहा कि आरजेडी ने कन्हैया कुमार की इज्जत सरेआम उतरवा दी. यह सब आरजेडी के दबाव में हुआ. जेडीयू प्रवक्ता राजीव रंजन मानते हैं कि पप्पू यादव और कन्हैया कुमार राहुल गांधी को बहुत पसंद हैं, लेकिन तेजस्वी यादव को नापसंद हैं.
लोकसभा चुनाव के दौरान भी दिखी थी तल्खी
तेजस्वी यादव और आरजेडी के नेतृत्व की कन्हैया को लेकर तल्खी पहले भी दिख चुकी है. लोकसभा चुनाव 2019 के में लेफ्ट ने कन्हैया कुमार को बेगूसराय सीट से गिरिराज सिंह के खिलाफ चुनाव मैदान में उतारा था. तब गठबंधन के बावजूद आरजेडी ने अपना उम्मीदवार उतार दिया था. 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस कन्हैया के लिए बेगूसराय सीट चाहती थी, लेकिन मिली नहीं. मजबूरन कांग्रेस को उन्हें उत्तर पूर्वी दिल्ली सीट से कन्हैया को उतारना पड़ा. आरजेडी की इस जिद की वजह से हर बार कन्हैया चुनाव हारते आए हैं. कन्हैया कुमार ने हाल ही में बिहार में 'पलायन रोको, नौकरी दो' पदयात्रा से भी तेजस्वी और उनकी पार्टी असहज नजर आई थी.