लालू-नीतीश पर ठीकरा क्यों? असली ‘जातिवादी राजनीति’ के गॉडफादर कोई और हैं, नाम सुनकर चौंक जाएंगे
Caste Politics In Bihar: बिहार के बाहर के लोगों में अमूमन यह राय है कि बिहार में जातिवादी राजनीति लालू और नीतीश की देन है, लेकिन ऐसा नहीं है. हकीकत यह है कि जानकारी के अभाव में लोग ऐसा मानते हैं. बिहार में जातिवादी आंदोलन और राजनीति की शुरुआत अंग्रेजों के शासनकाल में ही तूल पकड़ लिया था. जनेऊ आंदोलन शुरू हुआ और उसके बाद राम मनोहर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर की मुहिम ने इसे गति दी, जिसे लालू यादव और नीतीश कुमार के दौर में और ज्यादा मजबूती मिली.

History Of Caste Politics In Bihar: बिहार के बाहर रहने वाले लोगों में यह धारणा है कि यहां पर जातिवाद की शुरुआत लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की देन है. जाहिर है, यह सच नहीं है, लेकिन इतना जरूर है कि तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार के दबाव में केंद्र को बिहार में जातिगत जनगणना के लिए कराने के लिए मजबूर होना पड़ा. उससे पहले से राहुल गांधी देश भर में जातिगत जनगणना कराने की मांग कर रहे थे. इसके बावजूद बिहार जातिगत जनगणना कराने वाला पहला राज्य बना. इसी के साथ जातिवादी राजनीति का ठप्पा लालू यादव की तरह तेजस्वी यादव पर भी लग गया.
नवंबर 2025 में बिहार में चुनाव होने हैं. माना जा रहा है इस बार फिर लोग जाति देखकर ही वोट डालेंगे. ऐसे में सभी के लिए यह जानना जरूरी है कि 1920 के दशक के जनेऊ आंदोलन और फिर त्रिवेणी संघ व अन्य सियासी अभियानों से इसे गति कैसे मिली? किस तरह जनेऊ आंदोलन और उसके बाद राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण और कर्पूरी ठाकुर जैसे समाजवादी नेताओं की विस्तारवादी राजनीति से होते हुए लालू प्रसाद यादव अब तेजस्वी यादव के सियासी करियर से हिस्सा बन गया?
जिम्मेदार कौन?
दरअसल, बिहार में 2023 में संपन्न जातिगत जनगणना ने लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव और सीएम नीतीश कुमार के गठजोड़ का परिणाम है. ऐसा इसलिए कि उस सयम तेजस्वी बिहार के डिप्टी सीएम थे और उन्होंने जातिवादी जनगणना को लेकर सियासी मुहिम छेड़ दी थी. उनके इस मांग का साथ समर्थन सीएम नीतीश कुमार और कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने भी किया था. तीनों प्रमुख दलों के दबाव में केंद्र सरकार बिहार में जातिवादी जनगणना के लिए तैयार हुई थी. इसके बावजूद अहम सवाल यह है कि जातिवाद के लिए क्या यही लोग जिम्मेदार हैं, तो इसका जवाब ना में है.
वैसे जब भी अंग्रेजी मीडिया और सोशल मीडिया पर में इसकी चर्चा होती है तो यह लालू प्रसाद यादव की राजनीति से जुड़ जाता है. इसके उलट, राकेश अंकित द्वारा लिखित "बिहार में जाति की राजनीति: ऐतिहासिक सातत्य" नामक शोधपत्र में राज्य में जाति की राजनीति के इतिहास को 1920 के जनेऊ आंदोलन तक ले जाता है, "जिसके दौरान यादवों और अन्य निचली जातियों ने ब्राह्मणवादी धागा पहनकर खुद को श्रेष्ठ घोषित करना शुरू कर दिया था. उस समय इसको लेकर यादव, कुर्मी और कोइरी जातियों और सवर्ण जातियों के बीच हिंसक झड़पें हुईं थी.
राकेश अंकित के शोध पेपर के अनुसार हाल के दशकों में बिहार में जातिवादी राजनीति लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार इर्द गिर्द केंद्रित हो गया. इसी तरह विकास कुमार झा की पुस्तक 'सत्ता के सूत्रधार और बिहार: राजनीति का अपमान' और प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत की बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम में भी बिहार में दलित आंदोलन 1912-2000 और बही धार त्रिवेणी संघ की: बिहार में सामाजिक न्याय का पहला संघर्ष का जिक्र है.
जातिवाद का इतिहास
साल 1920 के दशक के जनेऊ आंदोलन को इस मामले में पहला मील का पत्थर माना जाता है. इस आंदोलन का परिणाम यह हुआ कि यादवों ने बिहार में सबसे अधिक संख्या में धन और जमीन हासिल करने के बाद खुद को श्रेष्ठ घोषित करना शुरू कर दिया था. यादवों के साथ कुर्मियों और कोइरियों ने भी वही किया. इसके बाद बिहार में मोमिन आंदोलन भी उभरा, जिसने सैयदों, शेखों और पठानों के प्रभुत्व को चुनौती दी थी. बिहार में इन आंदोलनों ने सवर्ण वर्ग के प्रभुत्व वाले राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन और कृषक समुदायों और पिछड़ी जातियों के सामाजिक आंदोलन के बीच टकराव को भी बढ़ावा दिया था.
किसान सभा, यादव महासभा, मोमिन कॉन्फ्रेंस और त्रिवेणी संघ जैसी संस्थाओं से जातिवादी आंदोलनों से भी बिहार में जातिवाद को ताकत मिली. 1933 में स्थापित त्रिवेणी संघ को पिछड़ों के लिए उनकी विभिन्न जाति-आधारित किंवदंतियों और मिथकों से एक व्यापक राजनीतिक विचारधारा को संगठित करने और विकसित करने की दिशा में पहला कदम और उच्च जातियों के वर्चस्व के प्रति कांग्रेस की उदासीनता के विरोध में स्वतंत्र राजनीतिक दबाव बनाने और एक स्वायत्त राजनीतिक दल बनाने का पहला प्रयास माना जाता है.
40 फीसदी सीटों पर सवर्णों का कब्जा
राकेश अंकित के शोध पत्र के अनुसार 1934 और 1946 के बीच 'निचली' जातियों का एक भी व्यक्ति बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी का सदस्य नहीं था. 1952 से 1962 तक ब्राह्मणों, राजपूतों, भूमिहारों और कायस्थों ने 40% से अधिक कांग्रेस विधानसभा सीटों पर कब्जा था. उस समय तक सवर्णों ने अनुसूचित जातियों और मुसलमानों आबादी का इस्तेमाल 'वोट-बैंक' के रूप में किया. 1950 के बिहार भूमि सुधार अधिनियम ने कब्जाधारी काश्तकारों के बीच से एक "नए वर्ग" का निर्माण किया, जिसने पारंपरिक जातिवादी ढांचों को प्रभावित किया और नई जातिगत गठबंधनों को बढ़ावा दिया.
राम मनोहर लोहिया नहीं रहे पीछे
1948 में कांग्रेस से अलग होकर समाजवादियों ने अपना राजनीतिक आधार स्थापित करने के लिए "पिछड़ी जाति के कृषक समूहों" को निशाना बनाने का फैसला किया. इस अभियान का नेतृत्व करने वाले राम मनोहर लोहिया ने किया था. उन्होंने नारा दिया था, 'पिछड़ा पावे सौ में साठ' (पिछड़ों दलितों को 60% लाभ) समाजवादियों ने बंधी गांठ (समाजवादियों ने प्रतिज्ञा ली है). जिसे बाद में कर्पूरी ठाकुर ने लोकप्रिय बनाया. कुल मिलाकर बिहार में साठ से अस्सी का दशक पूरी तरह से जाति पर केंद्रित रहा.
इस बीच 1967 में बिहार में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी. सियासी बदलाव की वजह से कांग्रेस के अनुसूचित जाति के सांसदों की संख्या पहली बार आरक्षित सीटों के आधे से अधिक (45 में से 23) तक कम हो गई. शेष 13 सीटें समाजवादियों और कम्युनिस्टों के पास चली गईं. दो साल के अंदर बिहार में महामाया प्रसाद सिन्हा और कर्पूरी ठाकुर की नेतृत्व वाली गिर गई. बी.पी. उसके बाद मंडल संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी पिछड़े वर्ग से मुख्यमंत्री बनने वाले पहले व्यक्ति बन गए. मंडल भी ज्यादा दिनों तक टिकी नहीं पाए. उनके बाद पी. शास्त्री कांग्रेस के अनुसूचित जाति से मुख्यमंत्री बनने वाले पहले व्यक्ति बने. लेकिन कोई सरकार चला नहीं पाया. परिणाम स्वरूप मध्यावधि चुनाव हुआ.
जेपी आंदोलन नया मोड़
सियासी उथल पुथल के बीच ग्रामीण क्षेत्रों और पिछड़ी जातियों के छात्रों की संख्या में इजाफा हुआ. पिछड़ों के बीच अगड़ों (यादव, कुर्मी, कोइरी) का उदय हुआ. जातिवादी राजनीति में निर्णायक मोड़ 1974 का जेपी (जयप्रकाश नारायण) आंदोलन से आया. उसी आंदोलन का परिणाम था कि बिहार इंदिरा गांधी के शासन के विरुद्ध सबसे बड़े राष्ट्रव्यापी छात्र आंदोलन का रणक्षेत्र बन गया. नेतृत्व बिहार छात्र संघर्ष समिति कर रही थी, जो शहरी मध्यम वर्ग में कांग्रेस के प्रति लोकप्रिय अलगाव से प्रेरित था और जिसे जनसंघ तथा संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के छात्र मोर्चा का समर्थन प्राप्त था.
नीतीश ने भी लिया जाति का सहारा
इसके बावजूद अस्सी के दशक के दौरान कांग्रेस ने 'उच्च' जाति के मुख्यमंत्री बनाना जारी रखा. तीन ब्राह्मण और दो ठाकुर सीएम बने. 1985 से 1990 के बीच कांग्रेस ने चार सीएम बदल दिए. 1990 में विधानसभा चुनाव के बाद लालू प्रसाद यादव ने सीएम का पद संभाला. उसके बाद 15 वर्षों वो सत्ता पर काबिज रहे. लालू प्रसाद यादव के उत्थान और पतन के नीतीश कुमार सीएम बने, जो 20 साल से सीएम बने हुए हैं. इस दौरान नीतीश कुमार ने विकास, आरक्षण और अब फिर जातिवादी राजनीति सत्ता पर पकड़ बनाए रखने के लिए सहारा लिया है. उनका यह दांव किसके पक्ष में जाएगा यह तो विधानसभा चुनाव परिणाम आने पर ही पता चलेगा.