तो क्या इस बार जाति के नाम पर नहीं डलेंगे वोट! बांग्लादेशी घुसपैठ, SIR, चुनाव आयोग... हावी हुए कौन-कौन से नए मुद्दे?
बिहार चुनाव 2025 से पहले राजनीति का फोकस जाति समीकरण से हटकर चुनाव आयोग की निष्पक्षता, SIR विवाद और बांग्लादेशी घुसपैठ पर आ गया है. राहुल गांधी और तेजस्वी यादव ने आयोग पर वार किया, तो नीतीश कुमार और मोदी-शाह ने राष्ट्रवाद और फ्रीबीज का दांव खेला. क्या यह बिहार की सियासत का नया चेहरा है?

बिहार विधानसभा चुनाव से पहले राजनीतिक हवा में बड़ा बदलाव महसूस किया जा रहा है. दशकों से जातिगत समीकरणों पर चलने वाली बिहार की राजनीति इस बार अलग मोड़ पर है. राज्य के दो बड़े गठबंधन एनडीए और महागठबंधन ने मैदान में उतरकर एक-दूसरे पर सियासी हमले शुरू कर दिए हैं, लेकिन इस बार चर्चा का केंद्र जाति नहीं बल्कि चुनाव आयोग की कथित धांधली, SIR (Special Intensive Revision) और बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा है. यह बदलाव बिहार की चुनावी संस्कृति में एक अहम संकेत हो सकता है.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने चुनाव आयोग और भाजपा पर खुला आरोप लगाया है कि दोनों के बीच मिलीभगत हो रही है और वोट चोरी की साजिश रची जा रही है. इसी मुद्दे को पकड़ते हुए आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने भी SIR और चुनावी धांधली को अपने एजेंडे में सबसे ऊपर रखा है. उन्होंने बिहार बंद का आह्वान किया, यहां तक कि चुनाव बहिष्कार की धमकी भी दी. अब मामला इतना गरम है कि तेजस्वी और चुनाव आयोग आमने-सामने आ गए हैं. राहुल गांधी ने भी ऐलान कर दिया है कि 17 अगस्त से शुरू होने वाली उनकी बिहार यात्रा में यह मुद्दा लगातार उठेगा.
फ्रीबीज और राष्ट्रवाद का तड़का
दूसरी ओर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक के बाद एक फ्रीबीज का ऐलान कर रहे हैं. अलग-अलग वर्गों को खुश करने के लिए लोक कल्याणकारी योजनाओं पर जोर दिया जा रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार दौरे में विकास योजनाओं का उद्घाटन कर रहे हैं, जबकि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने SIR को लेकर राहुल और तेजस्वी पर पलटवार करते हुए कहा कि बांग्लादेशी घुसपैठियों को वोट देने का हक नहीं होना चाहिए. उन्होंने इसे युवाओं की बेरोजगारी और सुरक्षा से जोड़ते हुए राष्ट्रवाद का पिच तैयार किया.
जाति समीकरण से मुद्दा माइग्रेट
इस चुनावी मौसम की सबसे बड़ी खासियत यह है कि जातिगत गणित और ‘अगड़ा-पिछड़ा’ जैसे पारंपरिक मुद्दे मुख्य विमर्श से बाहर होते दिख रहे हैं. इस बार SIR, चुनाव आयोग की निष्पक्षता, और बांग्लादेशी घुसपैठ जैसे मुद्दे केंद्र में हैं. आम तौर पर ये मुद्दे पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा और झारखंड जैसे सीमावर्ती राज्यों में प्रमुख रहते हैं, लेकिन अब बिहार में भी इन पर जोर-शोर से बहस हो रही है.
मतदाताओं का बदलता मूड
क्या इसका मतलब यह है कि बिहार के मतदाता जातिगत सीमाओं से बाहर निकलने को तैयार हो रहे हैं? एक वर्ग ऐसा जरूर बन रहा है जो केवल जाति के आधार पर वोट देने के बजाय, प्रदर्शन और ईमानदारी को प्राथमिकता देना चाहता है. भले ही यह बदलाव अभी व्यापक स्तर पर नहीं दिखेगा, लेकिन यह राजनीतिक दलों को उम्मीदवार चयन और मुद्दों को पेश करने में ज्यादा सतर्क कर सकता है.
नीतीश के शासनकाल में जाति समीकरण में सेंध
राजनीतिक विश्लेषक ओमप्रकाश अश्क बताते हैं कि नीतीश कुमार ने बीते 20 सालों में जाति आधारित राजनीति में सेंध लगाई है. उदाहरण के तौर पर, कुर्मी और कोइरी की आबादी 11-12% होने के बावजूद उन्हें 16-23% वोट मिलते हैं, जो लव-कुश समीकरण से आगे बढ़कर अन्य जातियों की भी हिस्सेदारी दिखाता है. इसी तरह, आरजेडी का एमवाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण भी वोट प्रतिशत में अपेक्षित परिणाम नहीं दे रहा.
पसमांदा मुसलमान और महादलित पॉकेट
नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ गठबंधन के कारण मुस्लिम वोटों में गिरावट देखी, लेकिन पसमांदा मुसलमानों का समर्थन हासिल करने में वे सफल रहे. साथ ही, उन्होंने दलितों और महादलितों के लिए अलग राजनीतिक पॉकेट तैयार किया. यह रणनीति उन्हें जातिगत राजनीति के पारंपरिक ढांचे से बाहर ले गई.
महागठबंधन का फिर जाति की ओर झुकाव
इसके विपरीत, महागठबंधन और खासकर लालू प्रसाद यादव का कुनबा, बिहार की राजनीति को फिर से जातिगत ध्रुवीकरण की ओर मोड़ने की कोशिश कर रहा है. मंडल कमीशन के दौर की तरह सामाजिक न्याय के नाम पर जाति की राजनीति को हवा दी जा रही है. हालांकि, अबकी बार सियासी परिदृश्य पहले जैसा नहीं है.
प्रशांत किशोर का ‘क्लीन पॉलिटिक्स’ मॉडल
राजनीति में प्रशांत किशोर की एंट्री ने भी इस बदलाव को हवा दी है. वे जाति से ऊपर उठकर शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और पलायन जैसे मुद्दों पर बात कर रहे हैं. भाजपा, जदयू और आरजेडी पर ठहराव और विकास की कमी के आरोप लगाकर वे नई पीढ़ी को आकर्षित कर रहे हैं. उनकी रणनीति से चुनावी एजेंडा में हलचल जरूर मची है.
नतीजों पर असर या सिर्फ चर्चा?
विश्लेषकों का मानना है कि प्रशांत किशोर का असर चुनाव नतीजों में कितना दिखेगा, यह कहना मुश्किल है. लेकिन इतना तय है कि उन्होंने बिहार की सियासत में ठहरे पानी में पत्थर जरूर डाला है. अब चुनावी वादों से ज्यादा घोषणाओं और मुद्दों का मुकाबला हो रहा है, और जाति की बजाय प्रशासनिक और राष्ट्रीय मुद्दे केंद्र में आ रहे हैं.