महाराष्ट्र-एमपी की तरह बिहार में भी महिलाएं लगाएंगी NDA की नैया पार, नीतीश सरकार की राह में कौन बन रहा रोड़ा?
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में अब ‘आधी आबादी’ बनेगी निर्णायक शक्ति. महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की तरह एनडीए ने महिला वोटरों को लुभाने के लिए नई योजनाएं शुरू की हैं. नीतीश सरकार द्वारा महिलाओं के खातों में ₹10,000 भेजे जाने से सियासी बहस तेज है. वहीं प्रशांत किशोर की एंट्री ने मुकाबले को और दिलचस्प बना दिया है. क्या महिला योजनाएं एनडीए की नैया पार लगाएँगी?
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का दूसरा चरण 11 नवंबर को होने जा रहा है. पहले चरण की वोटिंग के बाद अब सारा फोकस उन सीटों पर है जहां महिला मतदाताओं की संख्या निर्णायक है. चुनावी नारे, वादे और घोषणाएं अब इस ‘आधी आबादी’ के इर्द-गिर्द घूमने लगी हैं. हर राजनीतिक दल की रणनीति में महिलाएं अब सिर्फ मतदाता नहीं, बल्कि निर्णायक शक्ति बन चुकी हैं.
नीतीश कुमार के शासन में महिला सशक्तिकरण की कई योजनाओं ने राजनीतिक आधार बनाया है, वहीं अब एनडीए और महागठबंधन दोनों ही नए वादों के साथ महिलाओं के भरोसे को जीतने की कोशिश कर रहे हैं. महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के चुनावी अनुभवों ने साबित किया है कि महिला योजनाएं सीधे तौर पर वोट बैंक पर असर डालती हैं. ऐसे में बिहार का यह चुनाव महिलाओं के रुख पर टिका हुआ दिखाई दे रहा है.
महाराष्ट्र मॉडल से प्रेरित रणनीति
2024 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में एनडीए ने महिला केंद्रित ‘लाडकी बहन योजना’ को हथियार बनाया था. इस स्कीम के चलते वहां एनडीए को रिकॉर्ड वोट शेयर मिला. विधानसभा चुनाव से कुछ हफ्ते पहले शुरू की गई इस योजना ने गठबंधन को 49.3% वोट शेयर तक पहुंचा दिया. परिणामस्वरूप, उन्हें 200 से अधिक सीटें मिलीं जो एक स्पष्ट संदेश था कि महिला मतदाता अगर संतुष्ट हों, तो पूरा समीकरण पलट सकता है.
मध्य प्रदेश की ‘लाडली बहना’ योजना ने बदला खेल
2023 के मध्य प्रदेश चुनावों में भी महिला वोटरों ने सत्ता की दिशा तय की. भाजपा सरकार की ‘लाडली बहना योजना’, जिसके तहत महिलाओं को हर महीने ₹1250 दिए गए, ने पार्टी को अप्रत्याशित लाभ दिलाया. भाजपा का वोट शेयर 41.1% से बढ़कर 50.2% हो गया और पार्टी को 230 में से 163 सीटें मिलीं. यह योजना न सिर्फ आर्थिक राहत बनी, बल्कि इसने जातिगत और क्षेत्रीय समीकरणों से ऊपर उठकर महिला मतदाताओं में सीधा भरोसा पैदा किया.
बिहार में चुनौती ज्यादा कठिन
बिहार में हालात कुछ अलग हैं. यहां महिला वोटरों का प्रभाव तो बड़ा है, लेकिन समीकरण जटिल हैं. हाल ही में नीतीश सरकार ने महिलाओं के खातों में ₹10,000 की राशि भेजी, जिसके बाद विपक्ष ने इसे “वोट खरीदने” की कोशिश बताया. हालांकि इस कदम से एनडीए को कुछ हद तक राहत मिल सकती है, लेकिन 2020 के विधानसभा नतीजों की तरह मामूली अंतर (सिर्फ 3.3 लाख वोट) इसे और चुनौतीपूर्ण बना रहा है.
पीके बने नीतीश की राह का रोड़ा
राजनीतिक रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर की एंट्री ने मुकाबले को और रोचक बना दिया है. उनकी ‘जन सुराज पार्टी’ अगर एनडीए के वोट बैंक में सिर्फ 5% की सेंध भी लगाती है, तो खेल पलट सकता है. एक अनुमान के मुताबिक, अगर महागठबंधन 40% और एनडीए 34% वोटों पर ठहरता है, तो महज 6% का अंतर एनडीए को सत्ता से बाहर कर सकता है.
महिलाएं तय करेंगी नतीजे की दिशा
बिहार की 50% से अधिक मतदाता महिलाएं हैं. 2010 के बाद से उन्होंने हर चुनाव में पुरुषों से अधिक मतदान किया है. इसलिए सभी दलों की कोशिश अब यह है कि वे महिलाओं को सीधे लाभ पहुंचाने वाली योजनाओं के जरिए भावनात्मक जुड़ाव बनाएं. एनडीए की उम्मीद इस बात पर टिकी है कि मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की तरह बिहार में भी “कैश ट्रांसफर मॉडल” से वोट प्रतिशत में 6–9% तक की बढ़त मिल सकती है.
क्या महिला योजनाएं एनडीए को बचा पाएंगी?
चुनावी विश्लेषकों का मानना है कि अगर महिला योजनाओं से एनडीए को 6% वोट शेयर की बढ़त मिलती है, तो मुकाबला बराबरी का हो सकता है. वहीं अगर यह बढ़त 9% तक पहुंचती है, तो एनडीए को फिर से सत्ता में आने का रास्ता खुल सकता है. दूसरी ओर, महागठबंधन महिला मतदाताओं को सामाजिक सुरक्षा और महंगाई के मुद्दे से साधने की रणनीति पर काम कर रहा है.
असली फैसला अब ‘आधी आबादी’ करेगी
बिहार के चुनावी परिदृश्य में यह साफ है कि इस बार न तो जाति और न ही क्षेत्र, बल्कि महिलाएं चुनाव का परिणाम तय करेंगी. जिस दल ने महिलाओं का विश्वास जीता, वही पटना की सत्ता की चाबी हासिल करेगा. महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की तरह अगर बिहार में भी महिला वोटरों ने किसी एक पक्ष की ओर झुकाव दिखाया तो यह चुनाव इतिहास में सबसे निर्णायक साबित हो सकता है.





