पहले कन्हैया तय कर लें, उन्हें कांग्रेस में क्या बनना है? रेवंत रेड्डी, सुप्रिया श्रीनेत या पवन खेड़ा
कांग्रेस के स्टार चेहरे बन चुके कन्हैया कुमार को लेकर सवाल उठने लगे हैं कि आखिर वे पार्टी में क्या बनना चाहते हैं? एक संगठनात्मक नेता जैसे रेवंत रेड्डी या फिर टीवी डिबेट्स में पार्टी लाइन का बचाव करने वाले प्रवक्ता जैसे सुप्रिया श्रीनेत और पवन खेड़ा? पहले उन्हें राजनीति में दिशा तय करने की जरूरत है.

बिहार विधानसभा चुनाव के अब तीन महीने शेष हैं. उत्तर पूर्व दिल्ली से चुनाव हारने के बाद कन्हैया कुमार अब बिहार चुनाव सक्रिय हैं, लेकिन प्रदेश इकाई को कन्हैया कुमार मंजूर नहीं है. उनको को लेकर सवाल उठने लगे हैं. पहले वो ये स्पष्ट कर लें कि कांग्रेस में खुद को किस भूमिका में काम करना चाहते हैं. वह एक संगठनात्मक नेता जैसे रेवंत रेड्डी बनना चाहते हैं या फिर टीवी डिबेट्स में पार्टी लाइन का बचाव करने वाले प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत और पवन खेड़ा?
वह जब जैसा चाहें, वहीं करने लग जाएं, वैसा नहीं हो सकता? उन्हें खुद के लिए सियासी भविष्य की दिशा तय करनी होगी. इस बात की चर्चा को बल उस समय मिला जब 9 जुलाई को बिहार बंद की अगुआई करने कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी पटना पहुंचे थे, उस दौरान गाड़ी पर चढ़ने को लेकर जो उनकी किरकिरी हुई है, उसके बाद उनकी स्थिति और खराब हो गई है.
TISS के पूर्व प्रोफेसर ने बताया- कन्हैया की समस्या क्या है?
इस मसले पर जब बीबीसी ने टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS)में प्रोफेसर रहे और बिहार की राजनीति पर गहरी नजर रखने वाले पुष्पेंद्र से बातचीत की तो उन्होंने कहा, 'सबसे पहले कन्हैया को यह तय करना होगा कि उन्हें बिहार की राजनीति करनी है तो बिहार में पूरा समय देना होगा. ऐसे में कन्हैया को तय करना होगा कि उन्हें कांग्रेस में सुप्रिया श्रीनेत, पवन खेड़ा और जयराम रमेश बनना है कि रेवंत रेड्डी. अगर सुप्रिया श्रीनेत और पवन खेड़ा बनना है तो उनके लिए यह सफर बहुत आसान है. अगर मास लीडर बनना है तो उन्हें जमीन पर संघर्ष करना होगा न कि राहुल गांधी से करीबी होने का औरा लेकर अहंकार में रहना होगा.'
पुष्पेंद्र कुमार के मुताबिक, 'कन्हैया कुमार कांग्रेस की स्टेट यूनिट में वह तभी स्वीकार्य होंगे जब कांग्रेस की जड़ों को सींचने के लिए जमीन पर मेहनत करेंगे. आरजेडी भी उन्हें तभी स्वीकार करेगी, जब लगेगा कि कन्हैया सवर्ण जातियों के वोट गठबंधन के पक्ष में लामबंद कर सकते हैं.
टिस के पूर्व प्रोफेसर पुष्पेंद्र कहते हैं, ''मुझे अब नहीं लगता है कि तेजस्वी में कन्हैया को लेकर कोई असुरक्षा की भावना है. पहले रही होगी लेकिन अब तेजस्वी उन असुरक्षाओं से पार हो गए हैं. तेजस्वी ज़मीन पर संघर्ष कर रहे हैं लेकिन कन्हैया बिहार में रणदीप सूरजेवाला की तरह आते हैं. कन्हैया जातीय पहचान को हवा नहीं देते हैं लेकिन उन्हें सवर्णों वाली सोच और आचरण से बाहर आना होगा. मैंने उन्हें सीपीआई के ऑफिस में एक बार देखा था. उनका तेवर तब भी किसी भी स्तर पर सीपीआई वाला नहीं था."
कन्हैया के मसले मुन्ना तिवारी का बोलने से इनकार
इस बारे में बिहार कांग्रेस के तेजतर्रार विधायक मुन्ना तिवारी से स्टेट मिरर के प्रतिनिधि की यह पूछे जाने पर कि उन्होंने कन्हैया कुमार को पार्टी के नेता आखिर स्वीकार क्यों नहीं कर रहे हैं, इस पर उन्होंने कुछ भी बोलने से इनकार किया. उन्होंने कहा कि इस मसले पर प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता ही अधिकृत बयान दे सकते हैं. जबकि यही मुन्ना तिवारी हमेशा से कहते आए हैं कि बिहार में युवा नेतृत्व को बढ़ावा मिल रहा है और अब उसी की चलेगी.
अब समझ में आया तारिक अनवर की बातों का मतलब
हाल ही में पार्टी के चुनावी कार्यक्रमों को लेकर स्टेट मिरर से प्रतिनिधि से बातचीत में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता तारिक अनवर ने कहा था, 'मुझे तो किसी कार्यक्रम की सूचना नहीं है. वर्तमान संदर्भों में उनकी बयानों को देखा जाए तो साफ है कि बिहार कांग्रेस नेताओं के तालमेल का अभाव है. पार्टी के नेता दो गुटों में विभाजित हैं. एक गुट वरिष्ठ नेताओं का है जो आरजेडी से बेहतर तालमेल का पैरोकारी है, तो दूसरा युवा नेताओं को गुट है, जो अपने तरीके से चुनाव लड़ना चाहता है. संभवत: उसी गुटबाजी का परिणाम है कि राहुल गांधी के साथ गाड़े पर कौन होंगे, इसकी सूचना न तो कन्हैया कुमार को मिली न ही पप्पू यादव को. जबकि पार्टी की परंपरा है कि जब भी कोई बड़ा कार्यक्रम होता है तो मंच पर बैठने वाले नेताओं को पहले ही बता दिया जाता है.
यह चर्चा इसलिए अहम है कि बिहार में कांग्रेस आखिरी बार 1985 के चुनाव जीतकर सत्ता में आई थी. उसके बाद से प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी भी नहीं रह पाई. आज कांग्रेस का बिहार में अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है. वह राष्ट्रीय जनता दल की पिछलग्गू पार्टी मात्र भर है. पिछले कई दशकों से कांग्रेस बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) की जूनियर सहयोगी के तौर पर काम कर रही है. बिहार में कांग्रेस कई दशकों से लोकप्रिय नेतृत्व के संकट से भी जूझ रही है. उसे एक ऐसे नेता की जरूरत है जो पार्टी की सत्ता में वापसी करा सके न कि ऐसे नेताओं की जो पार्टी प्रमुख से मंच शेयर करने के लिए परेशान दिखे.