INSIDE STORY: ताकि नेता-मंत्री बेनकाब न हों! 50 साल से दबा है ललित नारायण मिश्र हत्याकांड का सच, CBI-पुलिस सबने ‘मुजरिम’ बचाए
रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र की 1975 में हुई हत्या आज भी रहस्य बनी हुई है. वरिष्ठ पत्रकार मुकेश बालयोगी के अनुसार, यह राजनीतिक साजिश थी जिसमें कई बड़े नेताओं का हाथ था. पटना भेजने, मेडिकल लापरवाही, और CBI की कमजोर जांच, सब एक सुनियोजित षड्यंत्र की ओर इशारा करते हैं. असली दोषी आज भी बेनकाब नहीं हुए क्योंकि सच सामने आता तो कई ताकतवर चेहरे नंगे हो जाते. यह हत्याकांड अब भी भारत की राजनीति का सबसे दबा हुआ राज़ है.

सन् 1975 यानी अब से करीब 50 साल पहले यह वही साल था, जिस साल तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता का सिंहासन बचाने की मैली मंशा के फेर में फंसकर देश को 'आपातकाल' के तंदूर में खुशी-खुशी झोंक दिया था. यह अलग बात है कि उस आपातकाल ने ही इंदिरा गांधी को दुनिया में कहीं मुंह भी दिखाने के काबिल नहीं छोड़ा. यह वह मनहूस साल भी था जब इंदिरा गांधी यानी कांग्रेस पार्टी के विचारों से भिन्नता रखने वाले और उस वक्त देश के रेलमंत्री रहे ललित नारायण मिश्र को बिहार में बम-धमाके में कत्ल कर डाला गया था. तारीख थी 2 जनवरी 1975.
मतलब भारत की राजनीति के गलियारों में विकट उथल-पुथल वाला साल. विशेष तौर पर कांग्रेस और इंदिरा गांधी के लिए तो साल 1975 सबसे ज्यादा 'मनहूस' साबित हुआ. मगर उतना मनहूस या काला नहीं जितना कि उस वक्त भारत के रेलमंत्री रहे ललित नारायण मिश्र के लिए साल 1975 मनहूस साबित हुआ. उन्हें तो राजनीतिक-विद्वेषिता का शिकार होकर अपनी जान ही गंवा डालनी पड़ी. यह वही साल था जब इंदिरा गांधी और उनके नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी, विरोधियों के वजन के नीचे दबी पड़ी रहकर, देश और केंद्र में अपनी हुकूमत और पार्टी के अस्तित्व को बचाने की आंतरिक कलह की आग में जल-झुलस रही थी.
2 जनवरी 1975 को यानी अब से 50 साल पहले तत्कालीन रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र जब बिहार के समस्तीपुर में नई रेल लाइन का उद्घाटन करने पहुंचे. तो वहां उन्हें बम-विस्फोट में बुरी तरह जख्मी कर दिया गया.
रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र कद्दावर नेता थे...
रेलमंत्री के साथ उस दिन मौजूद कुछ लोगों की मौके पर ही मौत हो गई. जबकि ललित नारायण मिश्र की मौत अगले दिन यानी 3 जनवरी 1975 को पटना मेडिकल कॉलेज में हो गई. स्टेट मिरर हिंदी के एडिटर क्राइम से विशेष बातचीत में बिहार, झारखंड-छत्तीसगढ़ के राजनीतिक गलियारों में और अपराध जगत पर पैनी नजर रखने वाले वरिष्ठ राजनीतिक-खोजी पत्रकार मुकेश बालयोगी कहते है, “ललित नारायण मिश्र बम-विस्फोट का शिकार होने के दौरान भारत के कद्दावर नेताओं में शुमार देश के रेलमंत्री थे. वे मिथिलावासियों के बदन में दौड़ने वाला खून थे. उस डरावनी कहिए या लोमहर्षक अकाल मौत ने मिथिलावासियों की जिंदगियों को लंबे समय के लिए जाम कर दिया या कहिए एक जगह पर ही रोक दिया था.”
मिथिला वालों के ‘ललित बाबू’ नेताओं के दुश्मन कैसे?
50 साल बाद भी देश के रेलमंत्री के कत्ल के षडयंत्र से परदा न हटा पाने की कहानियों पर बेबाक बात करते हुए मुकेश बालयोगी कहते हैं, “दरअसल सच्चाई यह है कि मिथिला वालों की जिंदगी से ललित बाबू यानी ललित नारायण मिश्र हत्याकांड का सच कभी खुल गया तो देश की कई सरकारें, हुक्मरान सफेदपोश नंगे हो जाएंगे. जो आज सत्ता के सिंहासनों पर बैठकर मलाई चाट रहे हैं. उनमें से कई जेलों में सड़ जाएंगे. लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ. क्योंकि 50 साल में जब ललित नारायण मिश्र हत्याकांड से इसीलिए परदा नहीं उठाया गया कि, देश के कई सफेदपोश-कद्दावर समझे जाने नेता, उस कांड में सूली चढ़ जाएंगे, तो फिर अब आज के नेता या हुकूमतें क्यों ललित नारायण मिश्र हत्याकांड का सच बाहर लाकर अपने गले में मरा हुआ सांप डाल कर अपनी मुसीबत बढाएं?”
हालात, चश्मदीद गवाह, सबूत चीखते रह गए
स्टेट मिरर हिंदी के एक सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार मुकेश बालयोगी कहते हैं, “नहीं ऐसा नहीं है कि ललित बाबू के कत्ल की पड़ताल में किसी भी नजर से गवाह, सबूतों की कमी रही हो. पहले तो उस मुकदमे की जांच की मिट्टी पलीद की बिहार पुलिस ने. बाकी जो रही सही कसर बची थी वह सीबीआई ने पूरी कर दी. जब और जिस कांड की जांच पुलिस और सीबीआई ही दफन करने पर उतर आए, और इन दोनों ही एजेंसियों के सिर पर षडयंत्रकारियों का वरदहस्त हो. तब फिर किसके सबूत-गवाह किसकी जांच और कैसा कानून किसे सजा और कौन मुलजिम? यह सब एक ही थैली में बांधकर उस थैली का मुंह बांधकर कहीं किसी अंधेरे कुएं में फेंक दिए जाते हैं. ऐसा नहीं है कि ललित नारायण मिश्र हत्याकांड के षडयंत्र का पर्दाफाश करने के लिए जांच एजेंसियों के पास कुछ था ही नहीं.
पुलिस-सीबीआई सब के हाथ बांध दिए गए!
पुलिस और सीबीआई तो गवाह और सबूतों की पोटलियां बांधे बैठी थीं. मगर जब राज्य और देश की हुकूमतें ही किसी रेलमंत्री का कत्ल करवाने पर उतारू हों, तो फिर कौन बचा सकता है? और कौन ललित नारायण हत्याकांड के अपराधियों-षडयंत्रकारियों को फांसी पर चढ़वाने की ईमानदार कोशिश करेगा? किसी को अपना दुश्मन निपटाने के बाद उसके कत्ल का जिम्मा लेने का शौक थोड़ा ही न होता है.” जब मुकदमे के जांच सीबीआई के हवाले कर दी गई तो सीबीआई जांच-रिपोर्ट तो स्पेशल कोर्ट में ही दाखिल होती है. माना कि नेताओं के दबाव में सीबीआई पुलिस ने कुछ नहीं किया. मगर सीबीआई कोर्ट में चार्जशीट साफ-सुथरी दाखिल करके, आरोपियों को कोर्ट से तो सजा करा ही सकती थी?
सीबीआई-पुलिस सब हुकूमतों से बंधे हैं?
सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार मुकेश बालयोगी कहते हैं, “देखिए सबकुछ हुक्मरानों और हुकूमतों की दृढ़-ईमानदार इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है. 1975 के दौर के कुछ नेताओं ने नहीं चाहा कि रेलमंत्री ललिल नारायण मिश्र हत्याकांड का सच कभी सामने आए तो नहीं आया. इसमें सीबीआई और कोर्ट कुछ नहीं कर सकती हैं. सबको अपनी अपनी नौकरी प्यारी है. जज और सीबीआई कोई आसमान से उतरी ताकतें नहीं है. यह भी तो हुकूमतों की बैसाखियों पर ही घिसटती या घिसटते हैं. सीबीआई या जज साहब की क्या मजाल जो हुकूमतों के खिलाफ चल सकें. इसका सबसे बड़ा नमूना तो पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ही थीं. जिन्होंने अपने हाथों से सत्ता के सिंहासन की बागडोर जाती देख क्या कुछ नहीं कर डाला.
राजनीति में सब संभव है...
दुनिया जानती है कि दिल्ली का सिंहासन को बचाने के लिए जून 1975 में इंदिरा गांधी ने किस तरह इलाहबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा को किस तरह खुलेआम पहले धमका कर उन्हें खरीदने तक की हर नाकाम कोशिश की. इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लालच में जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा को इलाहबाद हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट का जज बना दिए जाने का भी टुकड़ा डाला था. अब सोच लीजिए कि जब देश की इंदिरा गांधी जैसी आयरन लेडी समझी जाने वाली इंदिरा गांधी अपनी सत्ता-कुर्सी बचाने के लिए जज के पीछे तक हाथ धोकर पड़ सकती हैं. तो उन्हीं इंदिरा गांधी के वक्त में तो रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र का कत्ल हुआ. ऐसे में किसकी सीबीआई और किसके जज साहब, कोर्ट कचहरी और किसका कानून? कुर्सी पैसा-पावर सर्वोपरि है. ललित नारायण मिश्र जैसे राजनीति के कांटे तो अपनी कुर्सी बचाने के लिए कोई भी कैसे भी किसी भी हद तक जाकर राजनीतिक दुश्मन पलक झपकते निपटवा सकते हैं.”
ललित नारायण मिश्र हत्याकांड में सवाल
रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र हत्याकांड पर पैनी नजर रखने के अनुभव से पटना के वरिष्ठ पत्रकार मुकेश बालयोगी कहते हैं, “दरअसल मुझे तो लगता है कि ललित नारायण मिश्र हत्याकांड में देश की राजनीति की कई बड़ी हस्तियों का हाथ शामिल है. अगर इस केस की सही से जांच होती तो देश की राजनीति में तूफान आ जाता. यह लोमहर्षक हत्याकांड साजिश था, यह साबित करने के लिए कई सबूत हैं. मसलन, जब देश के रेलमंत्री रहते हुए 2 जनवरी 1975 को ललित नारायण मिश्र के ऊपर बम से हमला किया गया और वे उसमें बुरी तरह जख्मी हो गए तो घटनास्थल से उन्हें इलाज के लिए कई सौ किलोमीटर दूर पटना मेडिकल कॉलेज वो भी ट्रेन से क्यों भेजा गया?
बुरी तरह जख्मी ललित नारायण मिश्र को ले जा रही ट्रेन 12-14 घंटे में क्यों और कैसे पटना तक का सफर कर सकी...जबकि आम ट्रेन पटना का सफर 7-8 घंटे में पूरा कर लेती थीं. जिस ट्रेन में ललित नारायण मिश्रा गंभीर हालत में पटना के लिए भेजे गए उसमें डाक्टरों के नाम पर सिर्फ एक ही डॉक्टर क्यों था? वह भी बिना किसी त्वरित व जरूरी चैकित्सकीय सामान-सुविधा के.
एक बड़ी पार्टी के नेता नंगे हो जाएंगे
जब दिल्ली से जिस विमान से ललित नारायण मिश्र समस्तीपुर पहुंचे थे. वह हवाई जहाज वहां खड़ा हुआ भी था. तब फिर रेलमंत्री को समस्तीपुर से उसी हवाई जहाज से इलाज के लिए सीधे दिल्ली न ले जाकर, डग्गामार ट्रेन से 14 घंटे में घटनास्थल से पटना क्यों पहुंचाया गया? किसका इशारा था कि बुरी तरह जख्मी रेल मंत्री को ट्रेन से पटना मेडिकल कॉलेज ले जाया जाए? दिल्ली ले जाने की कोई जरूरत नहीं है. यह तमाम बातें चीख चीख कर इस बात की गवाही देने के लिए काफी हैं कि, रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र की हत्या सिर्फ हत्या भर नहीं थी. वो खतरनाक राजनीतिक षडयंत्र था. ऐसा सुनियोजित हत्याकांड जिसकी परतें अगर आज भी खुल जाएं तो, दिल्ली की कई दशक गद्दी संभाल चुकने के बाद, अब आज केंद्रीय राजनीति में दर-दर की ठोकरें खा रही पार्टी के बड़े बड़े और अब तो मर-खप चुके नेता नंगे हो जाएंगे.”
असली मुजरिम बचाने को 'नकली' पकड़ लिए!
“ऐसा नहीं है कि भारत के तत्कालीन रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र के हत्यारों को आसमान निगल गया या जमीन खा गई. उस कांड के कई साल बाद तक षडयंत्रकारी हमारे आपके और जांच एजेंसियों के सामने ही छिपे घूमते रहे. वक्त के साथ उनमें से अधिकांश अब तो मर-खप चुके होंगे. अब चूंकि उस सनसनीखेज हत्याकांड को 50 साल हो चुके हैं. ऐसे में जो इक्का-दुक्का जिंदा भी बचे होंगे, वह कहीं किसी कोने में पड़े बुढ़ापा काट कर जीवन की अंतिम की सांसें गिन रहे होंगे. हां, इतना जरूर है कि जांच के दौरान सीबीआई ने जितनी जल्दबाजी एक धार्मिक-सनातन संगठन के पदाधिकारियों कारिंदों को गिरफ्तार करके जेल में जबरिया ही फर्जी तरीके से ठूंसने की कोशिश ही नहीं की, बल्कि उन्हें जेल में ठूंस ही दिया था. जबकि वे सब बेकूसर थे.
उस हत्याकांड के खुलासे में कोई ईमानदार नहीं रहा!
अगर सीबीआई और उस वक्त की हुकूमतें ईमानदार होती, तो उसी वक्त ललित नारायण मिश्र जैसे बेहद सुलझी हुई छवि के कद्दावर नेता के असली मुजरिम सजा भोग रहे होते या सजा भोग कर अब तक 50 साल में मर-खप भी चुके होते. मगर असली मुजरिमों तक पहुंचने से पहले ही जांच एजेंसियों के तो पांवों में तो उस वक्त दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुकूमत ने बेड़ियां डाल रखी थीं. तब फिर सरकार की गुलाम जांच एजेंसियां भला कैसे कुछ कर सकती थीं? क्योंकि हर जांच एजेंसी के अफसर का माई-बाप तो हुकूमत ही होती है न.” ललित नारायण मिश्र हत्याकांड की कड़ी से कड़ी जोड़ते हुए बेबाकी से बयान करते हैं उस लोमहर्षक कांड को पत्रकारिता की नजर से हमेशा बेहद करीब से देखते रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार मुकेश बालयोगी.