पटना में 'बहार' है, गांवों में सब 'बेकार' है... बिहार चुनाव से पहले ज़मीनी हकीकत और जातीय समीकरण की पड़ताल
बिहार चुनाव से पहले ज़मीनी सच्चाई पटना और ग्रामीण इलाकों के बीच गहरी खाई दिखा रही है. राजधानी में विकास की चमक है, लेकिन गांव अब भी बेरोजगारी, अधूरे पुलों और भ्रष्टाचार से जूझ रहे हैं. नीतीश कुमार ‘सुशासन’ और महिलाओं पर केंद्रित नीतियों के सहारे एनडीए को साधने में जुटे हैं, जबकि तेजस्वी यादव जातीय राजनीति से ऊपर उठकर युवाओं और बेरोजगारी को मुद्दा बनाना चाहते हैं. लेकिन असली फैसला गैर-यादव ओबीसी और लाभार्थी वर्ग तय करेंगे.
Bihar Election 2025: बिहार की राजनीति एक बार फिर गर्म है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार अपनी 20 साल की विकास यात्रा और कानून-व्यवस्था की उपलब्धियों को जनता के सामने रख रही है. लेकिन जैसे ही आप पटना से बाहर निकलते हैं, यह ‘विकास गाथा’ कई जगहों पर अधूरी और असंतुलित नज़र आती है. राजधानी की चौड़ी सड़कें, चमचमाते फ्लाईओवर और चार लेन वाले हाईवे एक अलग बिहार दिखाते हैं, मगर यही तस्वीर मुज़फ्फरपुर, सीतामढ़ी, या दरभंगा पहुंचते ही धुंधली हो जाती है.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, पटना से बाहर का बिहार अभी भी ट्रैफिक जाम, जलजमाव और अधूरी परियोजनाओं से जूझ रहा है. सीतामढ़ी में मेहसौल ओवरब्रिज, जो शहर की जीवनरेखा माना जाता है, लगभग दो दशक पहले शुरू हुआ था, कई चुनाव बीत गए, पर पुल अब तक अधूरा है.
विकास का असमान नक्शा
राजधानी के इर्द-गिर्द आधुनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर ने बिहार को नई पहचान दी है. लेकिन ग्रामीण इलाकों में वही पुरानी कहानी दोहराई जा रही है - अधूरी योजनाएं, भ्रष्टाचार, अफसरशाही का शिकंजा और बेरोजगारी का गहराता संकट. सरकार की कई योजनाएं जैसे महिला रोजगार योजना और जीविका नेटवर्क तक रिश्वतखोरी से मुक्त नहीं हैं. महिलाओं को 10,000 रुपये की चुनाव-पूर्व आर्थिक सहायता देने की घोषणा भी संदेह के घेरे में है. कई लाभार्थियों ने आरोप लगाया है कि पैसे के वितरण में दलालों और स्थानीय अफसरों की भूमिका साफ़ दिखती है. पुरुष मतदाताओं के बीच शराबबंदी नीति के खिलाफ गुस्सा भी गहराता जा रहा है. शराबबंदी ने न तो शराब पीना रोका, न ही अपराध घटाया, बल्कि शराब माफिया को और ताकत दी है. गरीब और मज़दूर तबके के लोग बताते हैं कि अब शराब और महंगी हो गई है और पुलिस का दमन बढ़ गया है, जो रिश्वत लेकर मामले सुलझा देती है.
बिहार का ‘गुमशुदा कारखाना’ और पलायन की मजबूरी
हर बातचीत में एक शिकायत समान रूप से सुनाई देती है - “कारखाना कहां है?” रोज़गार का यह सवाल हर जाति और वर्ग के मतदाताओं को जोड़ता है. बिहार के युवा आज भी मजबूर हैं दिल्ली, मुंबई, पंजाब या सूरत जैसे राज्यों में जाकर मजदूरी या नौकरी करने के लिए. राज्य में औद्योगिक निवेश की कमी और निजी क्षेत्र की अनुपस्थिति नीतीश कुमार की सबसे बड़ी चुनौती बन गई है.
तेजस्वी यादव की चुनौती: जाति से ऊपर उठने की लड़ाई
अब सवाल यह है कि विपक्ष, विशेषकर राजद (RJD) के नेता तेजस्वी यादव, इन असंतोषों को कितनी राजनीतिक ताकत में बदल पाते हैं. तेजस्वी के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि क्या वह ‘जातीय घेरे’ से बाहर निकलकर व्यापक समर्थन जुटा पाएंगे? बिहार में जाति राजनीति की रीढ़ है. हर दल इसका इस्तेमाल करता है - कोई इसे सामाजिक न्याय की भाषा में पेश करता है, तो कोई सत्ता संतुलन के लिए. तेजस्वी को अब यह साबित करना होगा कि वह सिर्फ ‘यादव-मुस्लिम’ (M-Y) राजनीति के नेता नहीं हैं, बल्कि एक ऐसे नेता हैं जो बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और असमान विकास पर भी बात कर सकते हैं.
तेजस्वी बनाम नीतीश: मैदान से मोबाइल तक
राज्य में तीसरा चेहरा प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) का भी है, जिन्होंने जनसुराज अभियान शुरू किया है. लेकिन ज़मीनी स्तर पर उनकी पार्टी को अब तक “मोबाइल पर चलने वाली पार्टी” कहा जा रहा है - यानी सोशल मीडिया तक सीमित. सीतामढ़ी और मुज़फ्फरपुर में कई लोगों का कहना है कि “जनसुराज के उम्मीदवार अंतिम समय पर बदले गए, और जिन लोगों ने काम किया था, उन्हें टिकट नहीं मिला.” ऐसे में प्रशांत किशोर फिलहाल ‘विकल्प नहीं, प्रतीक’ बनकर रह गए हैं.
मुस्लिम और यादव वोटबैंक की सच्चाई
राजद का पारंपरिक वोटबैंक अभी भी यादवों के बीच मज़बूत है, लेकिन मुसलमानों में थोड़ी निराशा और खीझ दिखाई दे रही है. मुज़फ्फरपुर के जावेद आलम कहते हैं, “18 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले बिहार में राजद ने सिर्फ 18 टिकट दिए, जबकि यादवों को 50 से ज़्यादा सीटें दी गईं. हमारा वोट लिया गया, लेकिन हिस्सेदारी नहीं.” सीतामढ़ी के मेहसौल इलाके में मुस्लिम मतदाता वक्फ कानून (Waqf Amendment) से बेहद नाराज़ हैं. उनका कहना है कि केंद्र सरकार “मस्जिदों और संपत्तियों में दखल दे रही है” और नीतीश सरकार ने चुप्पी साध रखी है. कई मुस्लिम मतदाता कहते हैं, “हम मजबूरी में राजद को वोट देंगे, क्योंकि हमारा कोई और नेता नहीं है, लेकिन यह वोट मोहब्बत का नहीं, मजबूरी का वोट होगा.”
गैर-यादव पिछड़ी जातियां: असली गेमचेंजर
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस चुनाव का नतीजा तय करेंगे गैर-यादव ओबीसी, दलित और अतिपिछड़े वर्ग (EBCs). महागठबंधन ने मुकेश सहनी की वीआईपी पार्टी को साथ जोड़कर इन समुदायों में सेंध लगाने की कोशिश की है. वहीं, बीजेपी और जेडीयू की जोड़ी भी इन जातियों के बीच ‘लाभार्थी राजनीति’ के जरिए अपना प्रभाव बनाए रखने में जुटी है - जैसे महिला रोजगार योजना, बुजुर्ग पेंशन, और फ्री राशन योजना.
लालू का साया और ‘पुराने दिनों’ का डर
कई गैर-यादव समुदायों में अब भी यह धारणा है कि राजद के सत्ता में लौटने का मतलब “लालू युग” की वापसी है - यानी गुंडागर्दी, जातीय पक्षपात और अराजकता. सीतामढ़ी के पंकज शाह, जो साहू समुदाय से हैं, कहते हैं, “अगर यादव राज फिर आया तो वही पुराने दिन लौट आएंगे - बड़ी गाड़ियों में घूमेंगे, कानून नाम की चीज़ नहीं बचेगी.” ललन कुमार जोड़ते हैं, “हमें नौकरी चाहिए, न कि फ्री राशन. 10,000 रुपये बांटने से कुछ नहीं होगा. यूनिवर्सिटी और अस्पताल बनने चाहिए.” इस वर्ग का एक हिस्सा कहता है कि “भले ही हम राजद को वोट दें, वो हम पर भरोसा नहीं करेंगे.” यह बयान तेजस्वी के लिए एक संकेत है कि विश्वास जीतने का रास्ता अभी लंबा है.
शराबबंदी, पुलिस और भ्रष्टाचार का तिहरा जाल
मुज़फ्फरपुर के नवादा गांव में कुछ लोग बताते हैं कि पुलिस शराबबंदी के नाम पर गैरकानूनी वसूली करती है. गरीबों से 50,000 रुपये तक लेकर छोड़ा जाता है. हरिश्चंद्र साहनी कहते हैं, “गरीब जेल में सड़ते हैं और शराब माफिया बाहर मौज करते हैं.” पर जब वोट देने की बात आती है, तो वही लोग कहते हैं, “तेजस्वी आएंगे तो मुसलमानों का राज बढ़ जाएगा, इसलिए नीतीश को देंगे.” यह विरोधाभास दिखाता है कि जाति और धर्म की रेखाएं आज भी बिहार के मतदाता को बांधे हुए हैं.
महिला मतदाता: नीतीश की उम्मीद
महिलाओं के बीच नीतीश सरकार की पकड़ अभी भी काफ़ी मज़बूत मानी जा रही है. महिला मतदाताओं का कहना है कि महिला रोजगार योजना और पेंशन योजना जैसी स्कीमों से उन्हें सीधा लाभ मिला है. सीतामढ़ी की रंगीला देवी, जिनके पति शराबबंदी के तहत जेल गए थे, कहती हैं, “मेरे खाते में 10,000 रुपये आए, इसलिए मैं नीतीश को वोट दूंगी. लेकिन मेरे पति आरजेडी को देंगे.”
‘लाभार्थी राजनीति’ का असर
औराई के महादलित धोबी समुदाय के रामकिशन बैथा कहते हैं, “हम न भी दें, तो और लोग देंगे. महिलाओं को पैसे मिले हैं, बुजुर्गों को पेंशन बढ़ी है, इसलिए एनडीए जीतने लायक लगती है.” सरकार द्वारा पेंशन 400 से बढ़ाकर 1100 रुपये करने का असर गांवों में गहराई तक गया है. यही एनडीए की सबसे बड़ी ताकत है - लाभार्थी और राष्ट्रवाद का मेल.
एनडीए की बहुस्तरीय अपील
नीतीश-मोदी गठबंधन की अपील कई स्तरों पर काम करती है -
- मोदी का राष्ट्रवाद और हिंदुत्व
- नीतीश का सुशासन और महिलाओं पर केंद्रित नीतियां
- बीजेपी का ऊपरी जातियों पर मजबूत पकड़
- लाभार्थी वर्ग की संतुष्टि
ये तत्व मिलकर एनडीए को एक ऐसा राजनीतिक संतुलन देते हैं जो जातीय समीकरणों से परे जाकर वोटरों को जोड़ सकता है.
राजद का रास्ता: लालू की छाया से बाहर निकलना
तेजस्वी यादव के लिए सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या वे लालू प्रसाद यादव की विरासत से आगे बढ़कर अपनी राजनीतिक पहचान बना पाएंगे? उनके समर्थक उन्हें “रोज़गार और युवाओं की उम्मीद” के रूप में देखते हैं, लेकिन विरोधी अब भी उन्हें “लालू का वारिस” मानते हैं. राजद को सत्ता में लौटने के लिए अब सिर्फ M-Y समीकरण पर नहीं, बल्कि A से Z तक की सामाजिक एकता पर भरोसा करना होगा.
लंबा रास्ता, कठिन मंज़िल
पटना से सीतामढ़ी की सड़क पर चलने वाले हर गांव की अपनी कहानी है. कहीं अधूरी पुलिया, कहीं भ्रष्ट अफसर, कहीं टूटी उम्मीदें. राजद के लिए यह चुनाव लालू युग की छाया से निकलकर नई पीढ़ी के भरोसे की परीक्षा है. वहीं, नीतीश कुमार के लिए यह 20 साल की उपलब्धियों को बचाने और ‘थकान’ के आरोपों को झूठा साबित करने की जंग है. अंततः बिहार का मतदाता फिर उसी पुराने सवाल पर लौटता है - “विकास किसका, लाभ किसका?” और इसी सवाल का जवाब तय करेगा कि पटना से बाहर का बिहार, किस दिशा में कदम बढ़ाएगा.





