काज़ीरंगा के गैंडों पर भूखे मरने का खतरा, 318 वर्ग किमी इलाके से घास हो गई गायब, साइंटिस्ट ने बताया सॉल्यूशन
काज़ीरंगा राष्ट्रीय उद्यान के एक महत्वपूर्ण अध्ययन में पता चला है कि पिछले 110 सालों में यहां के लगभग 318 वर्ग किलोमीटर घास के मैदान गायब हो गए हैं, जो लगभग कोलकाता शहर के आकार के बराबर है. इस घास की कमी से काज़ीरंगा के एक सींग वाले भारतीय गैंडों को भूख मरने का खतरा मंडरा रहा है, क्योंकि उनका मुख्य भोजन इस घास पर आधारित है.

कभी उत्तर-पूर्व भारत की सबसे जीवंत और विस्तृत घासभूमियों के लिए मशहूर काज़ीरंगा टाइगर रिज़र्व अब एक खतरनाक बदलाव के दौर से गुजर रहा है. यह बदलाव सतह पर सुंदर दिखाई देता है क्योंकि जंगल बढ़ रहे हैं, लेकिन इसकी कीमत काज़ीरंगा की आत्माउसके घास के मैदानों को चुकानी पड़ रही है.
देहरादून स्थित वाइल्डलाइफ़ इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया के एक नए स्टडी ने यह चौंकाने वाला खुलासा किया है कि 1913 से 2023 के बीच काज़ीरंगा की घासभूमियां 318.3 वर्ग किलोमीटर तक सिकुड़ गई हैं. यह नुकसान कोलकाता के पूरे क्षेत्रफल के बराबर या मुंबई के आधे आकार के बराबर है.
खंगाला गया 110 सालों का डाटा खंगाला
इस बदलाव को समझने के लिए वाइल्डलाइफ़ इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया के शोधकर्ताओं ने 110 सालों का डाटा खंगाला. उन्होंने ऐतिहासिक टोपोग्राफिक मानचित्र, यूनेस्को की विश्व धरोहर रिकॉर्डिंग,सैटेलाइट फोटो और 1980 से 2022 तक के जलवायु डेटा का विश्लेषण किया. इसे WII के 18वें वार्षिक अनुसंधान सम्मेलन में प्रस्तुत किया गया. अध्ययन में सामने आया कि:
- 1913 में जंगल का क्षेत्र: 0.6 वर्ग किमी
- 2023 में जंगल का क्षेत्र: 229.2 वर्ग किमी
- घासभूमि: लगातार घटती रही
- जलाशय: 2013 तक बढ़े लेकिन पिछले दशक में घटने लगे
बढ़ते जंगल: वरदान नहीं, पर्यावरणीय चेतावनी
पहली नजर में पेड़ों का बढ़ना सकारात्मक लगता है. लेकिन काज़ीरंगा जैसे बाढ़क्षेत्र आधारित पारिस्थितिक तंत्र में घासभूमि सबसे महत्वपूर्ण कड़ी होती है. यहीं से काज़ीरंगा की असली कहानी शुरू होती है, जंगल बढ़े, लेकिन जीवन सिमट गया. घासभूमि में सबसे पहले चरने वाले शाकाहारी जानवर आते हैं. मगर जब ये क्षेत्र आक्रामक विदेशी पौधों (Invasive Species) से भरने लगे, तो खाद्य शृंखला बिगड़ने लगी. घास कम होने लगी, और उसकी जगह Mikania micrantha, Chromolaena odorata जैसे पौधों ने ले ली.
क्यों जरूरी हैं काज़ीरंगा के घास के मैदान?
काज़ीरंगा सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया की जैव विविधता की धरोहर है. यहां दुनिया की सबसे बड़ी एक-सींग वाले गैंडे (Indian Rhino) की आबादी रहती है. साथ ही यह हाथियों, बारहसिंगा (Swamp Deer), जंगली भैंस (Wild Water Buffalo), सांभर और असंख्य पक्षियों का घर है. गैंडा खुले घास के मैदानों में चरना पसंद करता है. चाहे वह झुंड में रहे या अकेला, उसे निरंतर भोजन के लिए घासभूमि की जरूरत होती है. अगर घास नहीं रहेगी, तो गैंडा भी नहीं रहेगा. इसी तरह जंगली जलभैंसा (Bubalus arnee) की मूल नस्ल अब सिर्फ काज़ीरंगा और मध्य भारत के कुछ हिस्सों में ही बची है. यह प्रजाति पूरी तरह घास पर निर्भर है. घासभूमि कमजोर हुई, तो सबसे पहले इनका अस्तित्व खतरे में पड़ेगा.
जलवायु परिवर्तन ने बदली काज़ीरंगा की तस्वीर
शोध में यह भी सामने आया कि काज़ीरंगा की जलवायु भी बदल रही है. जैसे अधिकतम तापमान: 37.5°C से घटकर 36°C, न्यूनतम तापमान: 6°C से बढ़कर 8°C (रातें हुई गर्म), आर्द्रता और वर्षा: दोनों बढ़ी, मिट्टी में नमी की बढ़ोतरी हुई है. इन बदलावों ने भूगोल और नदी प्रवाह की प्रकृति को बदला. ब्रह्मपुत्र की धारा खिसकती रही, और नई जगहों पर गाद जमा होने से घासभूमि धीरे-धीरे पेड़ों और झाड़ियों में बदल गई.
वैज्ञानिकों की चेतावनी और सुझाव
शोध टीम ने कुछ ठोस समाधान सुझाए हैं. इनमें आक्रामक प्रजाति की सफाई अभियान तेज हो, घासभूमि पुनर्जीवन योजना बनाई जाए, बाढ़ के प्राकृतिक प्रवाह को बहाल किया जाए, वैज्ञानिक प्रबंधन से वन-घास संतुलन कायम रखा जाए और जलवायु आधारित संरक्षण नीति लागू होना शामिल है.
सिर्फ जंगल रह जाएगा काजीरंगा
काज़ीरंगा सिर्फ एक टाइगर रिज़र्व नहीं, यह भारत की प्रकृति की आत्मा है. यहां जंगल बढ़ गए हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि प्रकृति खुश है. असली संकट यह है कि घासभूमि घट रही है, और यह वो खामोश त्रासदी है जिसे अभी दुनिया ने समझा नहीं है. अगर घासभूमि नहीं बची, तो काज़ीरंगा सिर्फ पेड़ों का जंगल बनकर रह जाएगा, जहां होगा सन्नाटा, न गैंडों की पदचाप, न हिरणों की दौड़, न पक्षियों की पुकार.