‘खिलेगा तो देखेंगे’...कौन थे मशहूर साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल? जानिए उनके चर्चित कहानियों के नाम
हिंदी साहित्य के बेहद संवेदनशील और अनोखी भाषा शैली के लेखक विनोद कुमार शुक्ल अपनी सादगी, जादुई यथार्थवाद और आम जीवन को कविता बना देने वाली लेखनी के लिए जाने जाते थे. ‘खिलेगा तो देखेंगे’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘पेड़ पर कमरा’ और ‘महाविद्यालय’ जैसी कहानियों के जरिए उन्होंने साधारण मनुष्य के संघर्ष, अकेलेपन और उम्मीदों को शब्द दिए. उनकी रचनाएं कम शब्दों में गहरी बात कहती हैं, जिसने उन्हें हिंदी साहित्य का एक अलग और अमर स्वर बना दिया.
हिंदी साहित्य की धरती पर एक ऐसा सन्नाटा पसरा है, जिसे शब्दों में बांध पाना आसान नह.'वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह…” लिखने वाला वह आदमी सचमुच चला गया. कवि, कथाकार, विचार और संवेदना को बेहद साधारण शब्दों में असाधारण बना देने वाले विनोद कुमार शुक्ल अब इस दुनिया में नहीं रहे. 88 वर्ष की उम्र में रायपुर के एम्स में उन्होंने अंतिम सांस ली. अस्पताल ने उनके निधन की पुष्टि की. कुछ दिनों से वे अस्वस्थ थे, लेकिन यह खबर साहित्य जगत के लिए किसी वाक्य के बीच अचानक लगे पूर्णविराम जैसी है.
स्टेट मिरर अब WhatsApp पर भी, सब्सक्राइब करने के लिए क्लिक करें
विडंबना देखिए- जिस लेखक ने जीवन भर पुरस्कारों और शोर से दूरी बनाए रखी, उसी के नाम पर पिछले महीने ही हिंदी के सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार (2024) की घोषणा हुई थी. सम्मान मिलने से पहले ही सम्मान का पात्र चला गया. उनके जाने से ऐसा लगा जैसे कोई कह रहा हो- 'सब कुछ होना बचा रहेगा…”और सच में, बहुत कुछ अब अधूरा रह गया.
'मुझे बहुत लिखना था…'-एक वाक्य, पूरा जीवन
ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा के बाद जब उनसे प्रतिक्रिया मांगी गई, तो उन्होंने वही कहा जो सिर्फ वही कह सकते थे- “मुझे बहुत लिखना था, लेकिन मैं बहुत कम लिख पाया.” इस एक पंक्ति में उनका पूरा व्यक्तित्व सिमट आता है. वे बहुत देखते थे, बहुत सुनते थे, बहुत महसूस करते थे. लेकिन लिखते उतना ही थे, जितना ज़रूरी हो. न एक शब्द ज़्यादा, न एक भाव कम. उनकी विनम्रता उनके लेखन की तरह ही गहरी और शांत थी.
कौन थे साहित्य जगत के शायर विनोद शुक्ला?
1 जनवरी 1937 को छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में जन्मे विनोद कुमार शुक्ल ने लगभग नौ दशकों का जीवन जिया, लेकिन उनका लेखन किसी भारी-भरकम विचारधारा का बोझ नहीं ढोता था. उनकी दुनिया में एक कमरा, एक खिड़की, थोड़ी सी धूप, और दीवार से लगी घास, सब कुछ बोलने लगता था. वे न तीखे राजनीतिक लेख लिखते थे, न मंचों पर गरजते थे. लेकिन उनकी चुप्पी में भी पक्ष था. हमेशा साधारण आदमी के साथ.
कविता- जहां विचार गरम कोट पहन लेता है
1971 में आया उनका पहला कविता संग्रह ‘लगभग जय हिन्द’—और यहीं से हिंदी कविता की भाषा थोड़ी बदल गई. उनकी कविताओं के नाम ही कविता बन जाते थे. वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह. सब कुछ होना बचा रहेगा. आकाश धरती को खटखटाता है. उनकी कविता शोर नहीं करती थी, वह धीरे से भीतर उतर जाती थी. बिल्कुल जीवन की तरह.
कथा साहित्य में ‘नौकर की कमीज’ और आम आदमी
1979 में आया उपन्यास ‘नौकर की कमीज़’- हिंदी उपन्यास के इतिहास में एक मोड़. यह कहानी किसी क्रांति की नहीं थी, बल्कि उस आदमी की थी जो रोज़ जीता है, रोज़ हारता है, और फिर भी अगली सुबह उठ जाता है. इस उपन्यास पर मणि कौल ने यादगार फिल्म बनाई, जिसने शुक्ल जी की संवेदना को सिनेमा की भाषा दी. कहानियां, जहां दीवार में भी खिड़की होती है, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’, ‘हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़’- ये सिर्फ किताबें नहीं, छोटे-छोटे संसार हैं.
उनकी कहानियों में गरीबी भी सुंदर लगती है, क्योंकि वह झूठी नहीं होती. यही उनका जादुई यथार्थवाद (Magical Realism) था—जहां जीवन अपनी पूरी सच्चाई के साथ कविता बन जाता है. विनोद कुमार शुक्ल सिर्फ हिंदी के नहीं रहे. उनकी रचनाएं अंग्रेज़ी, जर्मन, इटैलियन समेत कई भाषाओं में अनूदित हुईं. उन्हें मिला-
- साहित्य अकादमी पुरस्कार (1999)
- PEN/Nabokov Award (2023)
- और अंततः ज्ञानपीठ पुरस्कार (2024)
दुनिया ने उन्हें “हिंदी का महान जीवित लेखक” कहा- लेकिन वे खुद बस लेखक बने रहना चाहते थे. चला गया लेखक, रह गया आकाश जो धरती को खटखटाता है. विनोद कुमार शुक्ल का जाना किसी एक व्यक्ति का जाना नहीं है. यह उस भाषा का जाना है, जो बहुत धीरे बोलती थी. उस संवेदना का जाना है, जो चीखती नहीं थी. उनकी किताबें कह रही हैं- 'सब कुछ होना बचा रहेगाऔर सच है… वे चले गए हैं, लेकिन विचार की तरह- आज भी हमारे साथ हैं.





