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Talaq: क्या है तलाक ए हसन? सुप्रीम कोर्ट क्यों हुआ सख्त और यह तलाक ए बिद्दत से कैसे अलग

Talaq E Hasan: मुस्लिम समाज में चार तरह के तलाक प्रचलन में है. तलाक ए बिद्दत पर रोक है. तलाक ए हसन की प्रक्रिया और प्रासंगिकता पर सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाए हैं. अदालत का कहना है कि एक सभ्य समाज में यह स्वीकार कैसे हो सकता है. जानें तलाक के तौर तरीकों के बारे में सब कुछ.

Talaq: क्या है तलाक ए हसन? सुप्रीम कोर्ट क्यों हुआ सख्त और यह तलाक ए बिद्दत से कैसे अलग
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Talaq E Hasan In Practice: मुस्लिम विवाह-विच्छेद की पारंपरिक प्रणालियों में तलाक-ए-हसन और तलाक-ए-बिद्दत (Triple Talaq) सबसे ज्यादा चर्चा में रहते हैं. जहां तलाक-ए-बिद्दत को सुप्रीम कोर्ट पहले ही अवैध घोषित कर चुका है, वहीं तलाक-ए-हसन को एक वैध, चरणबद्ध और सोच-विचार वाली प्रक्रिया माना जाता है. हालांकि, हाल ही में एक याचिका सुनते हुए सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-हसन की प्रक्रिया पर कुछ अहम सवाल उठाए हैं. आइए समझते हैं, यह दोनों तरीके क्या हैं, दोनों में आपस में क्या अंतर है और सुप्रीम कोर्ट क्यों चिंतित है. कितने तरह के तलाक प्रचलन में हैं.

तलाक-ए-हसन क्या है?

तलाक-ए-हसन (Talaq-e-Hasan) सुन्नी मुस्लिम पर्सनल लॉ में मान्य तलाक की प्रक्रिया है. इसमें पति एक बार तलाक कहता है. एक माह की ‘इद्दत’ अवधि के बाद दोबारा तलाक कहता है. तीसरे महीने में तीसरी बार तलाक घोषित करता है. तीन बार की यह प्रक्रिया कम से कम 90 दिनों में पूरी होती है. हर चरण पर सुलह का मौका दिया जाता है. बीच में अगर पति-पत्नी साथ रहना चाहे, तो तलाक प्रक्रिया रद्द हो जाती है.

यानी यह तलाक एकदम से नहीं, सोच-विचार कर समय लेकर तलाक देने का प्रावधान. इसमें महिला को भी खुला (Khula) का अधिकार उपलब्ध है. तलाक-ए-बिद्दत (Triple Talaq) क्या है?

इसमें तीन महीनों के दौरान अगर पति-पत्नी आपसी सहमति से फिर से एक साथ रहना चाहें, तो उनकी शादी खत्म नहीं मानी जाएगी और उन्हें दोबारा निकाह करने की जरूरत नहीं पड़ेगी, लेकिन अगर तीसरी बार तलाक हो गया, तो शादी पूरी तरह टूट जाती है. यह तरीका कई सालों से आलोचना का विषय रहा है. कई याचिकाओं में कहा गया है कि यह प्रथा महिलाओं के अधिकारों के खिलाफ है.

तलाक-ए-बिद्दत

तलाक-ए-बिद्दत या तीन तलाक वह तरीका था जिसमें पति एक ही बार में या एक ही बैठक में 'तलाक, तलाक, तलाक' बोलकर तुरंत तलाक दे देता था. यह तरीका सामने बोलकर, फोन पर या लिखकर मैसेज के जरिए. इसमें सुधार या सुलह का कोई मौका नहीं होता. तलाक तुरंत प्रभाव से हो जाता था. महिला का अधिकार लगभग समाप्त सा हो जाता था.

कानूनी स्थिति

सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में तलाक-ए-बिद्दत को असंवैधानिक घोषित किया था. 2019 में Triple Talaq को कानूनी अपराध बना दिया गया.

तलाक-ए-अहसान क्या होता है?

यह तलाक देने का तरीका सबसे कम पसंद किया जाता है- इसमें पति को एक ही बार तलाक कहना होता है, वह भी ऐसे समय जब पत्नी का मासिक धर्म न चल रहा हो. इस तरीका में भी तलाक एकतरफा होता है और पति के कहने से ही लागू माना जाता है.

तलाक ए खुला क्या है?

इस्लाम में तलाक का एक और तरीका है जिसे खुला कहते हैं. इसमें तलाक पति नहीं, बल्कि पत्नी खुद लेती है. खुला लेने के लिए पत्नी को अक्सर पति को कुछ चीजें (जैसे मेहर या दी गई संपत्ति का हिस्सा) वापस करनी पड़ती है. सबसे जरूरी बात खुला के लिए दोनों की सहमति जरूरी होती है.

तलाक-ए-हसन और तलाक-ए-बिद्दत में अंतर

तलाक-ए-हसन में तीन महीने में तीन बार तलाक और तलाक-ए-बिद्दत एक बार में तीन बार तलाक. तलाक बिद्दत में सुलह का मौका नहीं मिलता है. तलाक ए बिद्दत विवाद हो गया था. हालांकि, अब तलाक ए हसन पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि यह धार्मिक प्रथा 21 सदी के अनुकूल नहीं है. सभ्य समाज में ऐसा नहीं होना चाहिए.

तलाक ए हसन को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कई सवाल उठाए हैं. इनमें

1. क्या यह प्रक्रिया एक तरफा है? कोर्ट ने पूछा कि क्या इसमें पति को अधिक अधिकार मिल जाते हैं? क्या पत्नी के हितों की पर्याप्त सुरक्षा नहीं है?

2. क्या तलाक देने के कारणों का लिखित रूप में होना जरूरी है? कोर्ट ने जानना चाहा कि क्या पति बिना किसी ठोस कारण के तलाक-ए-हसन शुरू कर सकता है?

3. क्या यह संविधान के ‘समानता के अधिकार’ का उल्लंघन है? Article 14 और 21 के तहत महिला को सुरक्षा मिलनी चाहिए.

4. क्या महिलाएं भी बराबर अधिकार का प्रयोग कर पाती हैं? कोर्ट ने यह भी पूछा - क्या खुला को पति के तलाक की तरह व्यापक माना जाता है?

5. क्या तलाक-ए-हसन का दुरुपयोग संभव है? कोर्ट ने कहा कि समय-आधारित तलाक होने पर भी एकतरफा समस्याएं बढ़ सकता है.

तलाक ए हसन ऐतिहासिक आधार

  • यह पैगंबर के जमाने से चली आ रही सुन्नी मुस्लिम परंपरा. कई इस्लामी देशों में आज भी मान्य, पर कुछ ने इसमें सुधार किए.
  • महिलाओं के अधिकार समूह इसे सुधार योग्य बताते हैं. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इसे धार्मिक प्रक्रिया कहता है.

कोर्ट की भूमिका

Triple Talaq के बाद अदालतें तलाक के पारंपरिक तरीकों की वैधता को संवैधानिक मानकों से परख रही हैं. क्या इसमें आगे और सुधार संभव है? विशेषज्ञ मानते हैं कि मुस्लिम तलाक प्रणाली को 'gender-neutral' और न्यायपूर्ण बनाने की जरूरत है.

सभ्य समाज ऐसी प्रथा को मंजूरी दे सकता है?

दरअसल, आठ साल पहले तलाक पर वैधानिक रोक के बाद से तलाक ए हसन चर्चा में है. इसी को लेकर एक वाद सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. इसी पर 19 नवंबर को मुसलमानों के एक हिस्से में प्रचलित तलाक हसन की प्रक्रिया पर सवाल उठाए हैं. अब शीर्ष अदालत ने पूछा है, 'क्या कोई सभ्य समाज ऐसी प्रथा को मंजूरी दे सकता है?'

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सूर्यकांत की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ ने कहा, 'यह कैसी प्रथा है? 2025 में आप इसेस कैसे बढ़ावा दे रहे हैं? हम चाहे जो भी धार्मिक परंपरा मानें, क्या महिलाओं की गरिमा इसी तरह सुरक्षित रहेगी? क्या किसी सभ्य समाज में ऐसी प्रक्रिया को स्वीकार किया जा सकता है?

तलाक ए हसन को चुनौती नहीं दे सकते - अनवर हुसैन

मुस्लिम परंपरा के जानकार सैयद अनवर हुसैन का कहना है कि तलाक ए हसन गाइडेड बाय कुरान है. इसे आप अदालत में चुनौती नहीं दे सकते. इसमें तीन बार में तीन तलाक देना होता है. पहले तलाक के एक महीना का समय निर्धारित है. अगर दोनों फिर से राजी हो गए तो बिना निकाह किए रह सकते हैं.

इस प्रक्रिया के तहत दूसरे महीने में दूसरा तलाक देना होता है. अगर दूसरा तलाक दे दिया और तीसरे तलाक से पहले दोनों एक साथ रहने के लिए राजी हो जाते हैं तो उन्हें फिर से निकाह करना होगा. दूसरे तलाक के बाद भी एक साथ रहने को राजी नहीं हुए और तीसरा तलाक हो गया तो मर्द उससे निकाह भी नहीं कर सकता.

यह पुरुषों के लिए एक तरह से सजा है. सजा इस मायने में कि आपने चाहे जो सोचकर या स्थिति में तलाक दिया हो, लेकिन आपने तीन तलाक देने का दुस्साहस किया तो आप फिर से उसी महिला के साथ नहीं रह सकते, जिसे आपने तलाक दिया है.

बिना रजामंदी के तलाक शर्मनाक - मजकूर आलम

लेखक और इन मामलों के जानकार मजकूर आलम का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने तलाक ए हसन पर सवाल नहीं उठाए हैं. सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि एक वकील पति की रजामंदी के बगैर कैसे तलाक ए हसन के तहत पत्नी को छोड़ने के लिए अदालत में केस फाइल कर सकता है. दरअसल, सुनवाई के समय यह जस्टिस सूर्यकांत ये यह पाया कि वकील ने जो याचिका पति की तरह से अदालत में पेश किया है, उस पर उसके हस्ताक्षर नहीं है.

इस बात पर गौर फरमाते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि हस्ताक्षर के बगैर पति की रजामंदी या उसकी मंशा पता कैसे चलेगा? यह मामला विवाद हो सकता है. ऐसे में इसे तलाक नहीं माना जा सकता है. तलाक की अर्जी पर पति के सिग्नेचर होने चाहिए. मजकूर आलम का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट सही कह रहा है. एक सभ्य समाज में बिना सिग्नेचर के कैसे कोई तलाक दे सकता है या उसकी प्रक्रिया अदालत में शुरू कर सकता है. वकील ने याचिका पर पति से सिग्नेचर नहीं करवाए.

हालांकि, मुस्लिम समाज में अभी तक ऐसा होता आया है. अब ऐसा नहीं हो सकता. अगर ऐसा कोई करता है तो यह मुस्लिम समाज के लिए शर्मनाक है. सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि तलाक ए हसन पर सवाल नहीं है. अदालत का कहना है कि इस प्रथा समय के हिसाब से जो बदलाव हो जाना चाहिए, वो नहीं हुआ है, जिसकी जरूरत है.

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