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क्या भारत में कुछ भी अच्छा नहीं होता, विदेश जाते ही आपको क्या हो जाता है राहुल गांधी?

लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी के विदेशों में दिए गए बयानों पर सवाल उठाते हुए एक जागरूक भारतीय नागरिक ने खुला पत्र लिखा है. पत्र में बर्लिन, बोस्टन, लंदन, ब्रसेल्स, अमेरिका और एशिया में राहुल गांधी द्वारा भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं, चुनाव आयोग, जांच एजेंसियों और सरकार पर की गई टिप्पणियों का विस्तार से उल्लेख है. साथ ही, चुनावी हार, वोट चोरी के आरोप, कांग्रेस की रणनीति और नेतृत्व संकट पर भी गंभीर सवाल खड़े किए गए हैं. यह पत्र राष्ट्रहित, लोकतंत्र और विपक्ष की जिम्मेदारी पर केंद्रित है.

क्या भारत में कुछ भी अच्छा नहीं होता, विदेश जाते ही आपको क्या हो जाता है राहुल गांधी?
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नवनीत कुमार
By: नवनीत कुमार

Published on: 23 Dec 2025 2:53 PM

भारत में कुछ भी अच्छा नहीं होता है. लेकिन जब आप सरकार में रहते हैं तो हर तरफ आपको फील गुड का अहसास होता है. अब आप कहेंगे कि ऐसा क्यों कह रहे हैं. अरे भैया ये हम नहीं कह रहे. ऐसा लोकसभा में विपक्ष के नेता और हम सबके प्यारे राहुल गांधी को लगता है.

प्रिय राहुल गांधी जी,

आपने हाल ही में जर्मनी की राजधानी बर्लिन में प्रतिष्ठित Hertie School के एक कार्यक्रम में कहा कि भारत की संस्थागत व्यवस्था पर “पूरी तरह हमला” हो रहा है, कि ED और CBI जैसी एजेंसियां अब स्वतंत्र नहीं रहीं और सत्तारूढ़ दल के राजनीतिक हथियार बन चुकी हैं. आपने यह भी कहा कि भारत के संस्थानों पर “होलसेल कैप्चर” हो चुका है और यह एक “फुल-स्केल असॉल्ट” है. यह बयान केवल सरकार की आलोचना नहीं था, बल्कि सीधे-सीधे भारत की संवैधानिक आत्मा पर प्रश्नचिह्न लगाने जैसा था.

सवाल यह है कि विदेश जाकर आपको अपने देश में क्‍या तमाम बुराइयां ही नजर आती हैं, कभी कोई अच्‍छाई नहीं दिखती? क्‍या देश में आपकी विरोधी पार्टी की सरकार है तो यहां सब बुरा ही हो रहा है? और क्‍या आपको लगता है कि जब तक आपकी या आपकी पार्टी की सत्ता में वापसी नहीं हो जाती, तब तक देश का भला हो ही नहीं सकता. विदेश जाकर जैसी बातें आप करते हैं, उससे तो यही मालूम पड़ता है.

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अब मेरी भाषा पढ़ कर शायद आप मुझे 'भक्‍त' भी घोषित कर दें, लेकिन ऐसा नहीं है राहुल भईया. हूं तो मैं आम हिंदुस्‍तानी ही जिसे विलायत में अपने देश की बुराई सुनकर हर हिंदुस्‍तानी की तरह ही तकलीफ होती है.

यह पत्र किसी व्यक्तिगत विरोध, कटुता या राजनीतिक द्वेष से नहीं, बल्कि एक जागरूक भारतीय नागरिक की उस पीड़ा से लिखा जा रहा है, जो देश के लोकतंत्र, राजनीति और विपक्ष की भूमिका को लेकर गंभीर चिंता में है. आप आज देश की सबसे पुरानी पार्टी के सबसे प्रमुख चेहरे हैं, लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं और स्वाभाविक रूप से आपसे देश को बहुत अपेक्षाएं हैं. लेकिन दुर्भाग्य से, बीते कुछ वर्षों में आपके आचरण, वक्तव्यों और रणनीतियों ने इन अपेक्षाओं को बार-बार ठेस पहुंचाई है. खासकर तब, जब आप देश से बाहर जाकर भारत के लोकतंत्र, संस्थाओं और व्यवस्थाओं पर सवाल उठाते हैं.

आपका यह कहना कि कांग्रेस ने कभी संस्थाओं को अपनी जागीर नहीं समझा, अपने आप में एक बड़ा दावा है. 2004 से 2014 तक जब UPA सरकार सत्ता में थी, तब भी CBI को “पिंजरे का तोता” कहा गया, तब भी राजनीतिक विरोधियों पर जांच एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोप लगे. तब भी ED और CBI के मामलों में चयनात्मक कार्रवाई के सवाल उठे. फर्क सिर्फ इतना है कि तब सत्ता में आप थे और आज विपक्ष में हैं. क्या संस्थाएं तभी निष्पक्ष होती हैं जब नतीजे आपके पक्ष में हों?

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यह पहली बार नहीं है जब आपने विदेश जाकर भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल उठाए हों. अप्रैल 2025 में बोस्टन में आपने भारतीय समुदाय के सामने चुनाव आयोग को “कंप्रोमाइज्ड” बताया और कहा कि उसके सिस्टम में “कुछ बहुत गलत” है. आपने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव का उदाहरण देते हुए दावा किया कि दो घंटे में 65 लाख वोट जुड़ना “फिजिकली इंपॉसिबल” है. लेकिन आपने कभी यह स्पष्ट नहीं किया कि यदि चुनाव आयोग इतना ही संदिग्ध है, तो उसी आयोग द्वारा कराए गए चुनावों से आपकी पार्टी को मिली जीतें वैध कैसे हो जाती हैं?

2024 के लोकसभा चुनाव के बाद अमेरिका के नेशनल प्रेस क्लब में आपने कहा कि भारत में लोकतंत्र पिछले दस वर्षों से “ब्रोकेन” था और अब “लड़ रहा है”. यह बयान अपने आप में देश की जनता के फैसले पर सवाल उठाने जैसा था. क्या 2014 और 2019 में देशवासियों ने वोट नहीं डाले थे? क्या उन चुनावों में बनी सरकारें लोकतांत्रिक नहीं थीं? और अगर लोकतंत्र टूट चुका था, तो फिर उन्हीं प्रक्रियाओं के जरिए आप आज विपक्ष के नेता कैसे बने?

सितंबर 2023 में ब्रसेल्स में आपने यूरोपीय संघ के मंच से कहा कि भारत में “फुल-स्केल असॉल्ट” हो रहा है, कि संस्थाएं निष्पक्ष नहीं रहीं और देश में भेदभाव व हिंसा बढ़ रही है. इससे पहले मई 2022 में लंदन में “Ideas for India” सम्मेलन में आपने कहा कि भारत की संस्थाएं “परजीवी” बन गई हैं और “डीप स्टेट” देश को चबा रहा है. आपने भारत की तुलना पाकिस्तान जैसे अस्थिर लोकतंत्र से कर दी. क्या आपको नहीं लगता कि ऐसे बयान भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को नुकसान पहुंचाते हैं और उन ताकतों को बल देते हैं, जो भारत को कमजोर दिखाना चाहती हैं?

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अगस्त 2018 में यूके और जर्मनी में आपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को “देशभक्त नहीं” बताया. मार्च 2018 में मलेशिया में आपने नोटबंदी जैसे बड़े आर्थिक फैसले को “कूड़ेदान में फेंकने” की बात कही. सिंगापुर में आपने कहा कि भारत में “डर और नफरत” का माहौल है. बहरीन में आपने बेरोजगारी और नफरत फैलाने के आरोप लगाए. अमेरिका के बर्कले विश्वविद्यालय में आपने कहा कि सरकार सिर्फ टॉप 100 कंपनियों के लिए काम कर रही है और “अहिंसा” खतरे में है. एक के बाद एक, अलग-अलग देशों में दिए गए ये बयान एक पैटर्न दिखाते हैं - भारत की आंतरिक राजनीति को वैश्विक मंच पर ले जाना.

राहुल जी, सवाल यह नहीं है कि सरकार की आलोचना होनी चाहिए या नहीं. आलोचना लोकतंत्र की आत्मा है. सवाल यह है कि आलोचना कहां, कैसे और किस भाषा में हो. जब आप विदेश में जाकर कहते हैं कि भारत में फ्री स्पीच खत्म हो गई है, तो क्या यह विडंबना नहीं कि आप यह सब खुलकर कह पा रहे हैं? संसद से लेकर सड़कों तक, प्रेस कॉन्फ्रेंस से लेकर सोशल मीडिया तक, आपने हर मंच का इस्तेमाल किया है. फिर यह कहना कि देश में बोलने की आज़ादी नहीं है, खुद आपके अनुभव से मेल नहीं खाता.

हाल ही में बिहार विधानसभा चुनाव में आपकी पार्टी केवल 6 सीटों पर सिमट गई. चुनाव से पहले आपने SIR और वोट चोरी का मुद्दा जोर-शोर से उठाया, लेकिन नतीजों ने इस नैरेटिव को ही आपके खिलाफ मोड़ दिया. हार के बाद वही पुरानी बात - संविधान खतरे में है, वोट चोरी हो गए. राहुल जी, एक नेता हार से सीखता है, रणनीति बदलता है, संगठन मजबूत करता है. लेकिन आपकी हर हार एक नई बहानेबाज़ी में बदल जाती है.

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आप कहते हैं कि आप सीख रहे हैं, लड़ रहे हैं. लेकिन सच यह है कि कांग्रेस आज भी दिशाहीन दिखती है. 2014 से पहले की कांग्रेस और आज की कांग्रेस में जमीन-आसमान का फर्क है. आप अकेले चुनाव लड़ने में सक्षम नहीं रहे, इसलिए आपको महागठबंधन का सहारा लेना पड़ा. यह कोई बुराई नहीं है, लेकिन इसके बावजूद भी यदि पार्टी बार-बार हार रही है, तो आत्ममंथन जरूरी है.

कांग्रेस कोई पारिवारिक जागीर नहीं है और देश की जनता किसी एक खानदान की स्थायी समर्थक नहीं. नेहरू-इंदिरा की विरासत ने कभी पार्टी को दिशा दी थी, लेकिन आज वही विरासत बोझ बनती दिख रही है. बहुत दुख के साथ कहना पड़ता है कि संगठन, नेतृत्व और रणनीति - तीनों मोर्चों पर आपकी भूमिका सवालों के घेरे में है. शायद राजनीति आपके DNA में नहीं है, या शायद आप राजनीति को उस गंभीरता से नहीं लेते, जिसकी देश को जरूरत है.

यह पत्र आपको नीचा दिखाने के लिए नहीं है. इसका उद्देश्य आपको आईना दिखाना है. आपके पास अभी भी समय है - अपने बयान बदलने का, अपनी रणनीति बदलने का, देश के भीतर रहकर लड़ने का. अगर आप सच में लोकतंत्र और संविधान की रक्षा करना चाहते हैं, तो पहले उन संस्थाओं पर भरोसा करना सीखिए, जिनकी बदौलत आप आज इस मुकाम पर हैं. या फिर, अगर आपको लगता है कि आप यह जिम्मेदारी नहीं निभा पा रहे, तो पार्टी को ऐसे हाथों में सौंप दीजिए, जो उसे संभाल सकें.

देश को नेता चाहिए, दर्शक नहीं. समय किसी का इंतजार नहीं करता. न आपका, न कांग्रेस का. फैसला आपको करना है.

आपका शुभचिंतक,

एक जागरूक भारतीय नागरिक

राहुल गांधी
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