विदेश नीति इवेंट मैनेजमेंट, PMO असली बॉस-मीडिया पर कंट्रोल... शशि थरूर की किताब में PM मोदी के खिलाफ क्या-क्या?
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर के हालिया बयान ने पार्टी में विवाद को जन्म दिया है, जिसमें उन्होंने 2016 में भारत की सर्जिकल स्ट्राइक को पहली बार नियंत्रण रेखा पार करने वाली कार्रवाई बताया. कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने थरूर की 2018 की किताब 'The Paradoxical Prime Minister' का हवाला देते हुए इस बयान को पार्टी की पुरानी नीतियों और उनके खुद के लिखे कथनों से विरोधाभासी बताया. थरूर ने कहा कि उनका बयान आतंकवादी हमलों के बाद की प्रतिक्रिया पर आधारित था, न कि पुराने सैन्य अभियानों पर... आइए जानते हैं कि थरूर की किताब में पीएम मोदी और उनकी नीतियों के बारे में क्या कहा गया है...

Shahsi Tharoor book The Paradoxical Prime Minister big things: कांग्रेस पार्टी में वरिष्ठ नेता शशि थरूर के खिलाफ आंतरिक विवाद गहरा गया है. थरूर ने हाल ही में पनामा में एक बयान में कहा था कि भारत ने पहली बार 2016 में आतंकवादी ठिकानों पर सर्जिकल स्ट्राइक के दौरान नियंत्रण रेखा (LoC) को पार किया था. इस बयान ने पार्टी के भीतर असहमति को जन्म दिया, क्योंकि कांग्रेस ने पहले भी कई बार ऐसी कार्रवाइयां की थीं. पार्टी प्रवक्ता पवन खेड़ा ने थरूर की 2018 में प्रकाशित किताब 'The Paradoxical Prime Minister' का हवाला देते हुए कहा कि थरूर ने अपनी किताब में भाजपा द्वारा 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक का चुनावी लाभ लेने को लेकर आलोचना की थी.
खेड़ा ने थरूर के बयान को उनकी अपनी किताब से विरोधाभासी बताया. इस पर थरूर ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि उनका बयान आतंकवादी हमलों के बाद की प्रतिक्रिया के संदर्भ में था, न कि पूर्व युद्धों या सैन्य अभियानों के बारे में... इस विवाद ने कांग्रेस पार्टी के भीतर मतभेदों को उजागर किया है.
विदेश दौरे पर हैं थरूर
बता दें कि थरूर इस समय पाकिस्तान को बेनकाब करने और ऑपरेशन सिंदूर के बारे में जानकारी देने के लिए विभिन्न देशों का दौरा कर रहे हैं. वे सात सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में से एक का नेतृत्व कर रहे हैं.
आइए, जानते हैं कि आखिर थरूर की किताब The Paradoxical Prime Minister में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी नीतियों के बारे में क्या लिखा है...
शशि थरूर की किताब 'The Paradoxical Prime Minister' में क्या लिखा गया है?
- शशि थरूर की किताब 'The Paradoxical Prime Minister' में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासनकाल की विस्तृत आलोचना प्रस्तुत की गई है. थरूर का तर्क है कि मोदी अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों की सेवाओं और क्षमताओं को अधिक महत्व नहीं देते, बल्कि कुछ भरोसेमंद नौकरशाहों के समूह के माध्यम से शासन करना पसंद करते हैं.
- किताब में यह भी उल्लेख है कि मोदी सरकार ने पूर्ववर्ती सरकार के व्यक्तिगत स्टाफ में कार्यरत सिविल सेवकों को नई सरकार में समान पदों पर सेवा करने से अयोग्य घोषित कर दिया, जिससे सिविल सेवा का राजनीतिकरण हुआ. इसके अतिरिक्त, मोदी सरकार ने अखिल भारतीय सेवाएं (आचरण) नियम, 1968 में संशोधन करके सिविल सेवकों के लिए राजनीतिक तटस्थता, पारदर्शिता और निष्पक्षता जैसे उच्च नैतिक मानकों को बनाए रखने के लिए नए उप-नियम जोड़े.
- हालांकि, थरूर का तर्क है कि इन नियमों के बावजूद, सरकार ने गुजरात से सात वरिष्ठ नौकरशाहों को प्रधानमंत्री कार्यालय में स्थानांतरित किया, जो मोदी के प्रति राजनीतिक प्रतिबद्धता दिखाते थे, जिससे इन नियमों की प्रभावशीलता पर प्रश्नचिह्न लगता है.
- थरूर का तर्क है कि मोदी एक विरोधाभासी नेता हैं, जो एक ओर उदारवादी विचारों की बात करते हैं, जैसे कि संविधान को 'पवित्र ग्रंथ' मानना और 'सबका साथ, सबका विकास' का नारा देना, जबकि दूसरी ओर वे उन असहिष्णु तत्वों का समर्थन करते हैं, जिन पर उनका राजनीतिक आधार निर्भर करता है.
- किताब में थरूर ने मोदी सरकार की नीतियों, विदेश नीति, और प्रशासनिक निर्णयों की आलोचना करते हुए तथ्यों और आंकड़ों के माध्यम से अपने तर्क प्रस्तुत किए हैं.
1- नरेंद्र मोदी की विदेश नीति
शशि थरूर, जो स्वयं एक पूर्व विदेश राज्य मंत्री और संयुक्त राष्ट्र के वरिष्ठ अधिकारी रह चुके हैं, नरेंद्र मोदी की विदेश नीति को 'आकर्षक लेकिन असंतुलित' बताते हैं. वह मानते हैं कि मोदी ने विदेश नीति को एक व्यक्तिकेंद्रित शो बना दिया है, जिसमें दिखावा ज्यादा और ठोस नतीजे कम हैं.
मुख्य बिंदु जो थरूर ने विदेश नीति को लेकर उठाए:
- व्यक्तिगत कूटनीति (Personal Diplomacy) का जोर: मोदी की विदेश यात्राएं अक्सर सुर्खियों में रहती हैं- चाहे वह अमेरिका में 'हाउडी मोदी' जैसे इवेंट हों या ऑस्ट्रेलिया, जापान और फ्रांस के साथ उनके संबंध... थरूर कहते हैं कि इन यात्राओं में दिखावे और इवेंट मैनेजमेंट पर ज़ोर ज्यादा था, लेकिन दीर्घकालिक रणनीतिक परिणामों की कमी रही.
- पाकिस्तान नीति में विरोधाभास: थरूर का कहना है कि पाकिस्तान को लेकर मोदी सरकार की नीति एकदम अनिश्चित रही- एक ओर अचानक नवाज शरीफ के जन्मदिन पर उनसे मिलने जाना, और दूसरी ओर सर्जिकल स्ट्राइक व बालाकोट एयरस्ट्राइक जैसे आक्रामक कदम... यह 'उलझी हुई नीति' रिश्तों में स्थायित्व नहीं ला सकी.
- चीन के साथ रणनीतिक असफलताएं: थरूर ने डोकलाम और लद्दाख में चीनी घुसपैठ की ओर इशारा करते हुए लिखा कि मोदी की 'झप्पी कूटनीति' (hug diplomacy) चीन के मामले में खामोश या नर्म रवैये में तब्दील हो गई. उन्होंने यह भी कहा कि 'वुहान समिट' जैसी पहलें सिर्फ दिखावटी रहीं, जबकि ज़मीन पर तनाव बरकरार रहा.
- पड़ोसी देशों के साथ संबंध: थरूर के अनुसार, मोदी का 'Neighbourhood First' सिद्धांत अच्छे इरादे के बावजूद धरातल पर नाकाम रहा. नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे देशों के साथ कई बार रिश्तों में खटास देखी गई. नेपाल के संविधान को लेकर भारत के हस्तक्षेप ने वहां भारत-विरोधी भावनाओं को जन्म दिया।
- मुस्लिम दुनिया में संबंध सुधारने की कोशिश: मोदी ने सऊदी अरब, यूएई और ईरान जैसे देशों से करीबी बढ़ाने की कोशिश की, और इसमें उन्हें कुछ हद तक सफलता मिली. थरूर मानते हैं कि यह कूटनीतिक प्रयास सकारात्मक थे, लेकिन घरेलू स्तर पर हो रही सांप्रदायिक घटनाओं ने इन प्रयासों की विश्वसनीयता को कमजोर किया.
थरूर का विश्लेषण यह बताता है कि मोदी की विदेश नीति प्रभावशाली मंचन (spectacle) पर आधारित रही, लेकिन उसमें स्थिरता, निरंतरता और रणनीतिक संतुलन की कमी है. उनका मानना है कि विदेश नीति को व्यक्ति-प्रधान की बजाय संस्थान-प्रधान होना चाहिए ताकि दीर्घकालिक हितों की रक्षा हो सके.
2- पीएम मोदी और नौकरशाही पर नियंत्रण
शशि थरूर की किताब The Paradoxical Prime Minister में 'पीएम मोदी और नौकरशाही पर नियंत्रण' विषय पर विस्तृत चर्चा की गई है. थरूर इस बात को प्रमुखता से उठाते हैं कि मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही नौकरशाही पर असामान्य रूप से केंद्रीय नियंत्रण स्थापित किया है, जो भारत की प्रशासनिक परंपरा से अलग है.
मुख्य बिंदु: नरेंद्र मोदी और नौकरशाही
- प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) का केंद्रीयकरण: थरूर बताते हैं कि मोदी सरकार में PMO सर्वशक्तिशाली हो गया है. सभी बड़े फैसले- चाहे वो आर्थिक हों, विदेश नीति से जुड़े हों, या आंतरिक सुरक्षा से- पीएमओ से ही लिए जाते हैं. मंत्रालयों और मंत्रियों की स्वतंत्रता बहुत सीमित कर दी गई है.
- मंत्रियों की भूमिका में कटौती: थरूर कहते हैं कि मंत्री सिर्फ 'प्रेजेंटेशन' देने वाले अधिकारी बन गए हैं. वे बताते हैं कि कई मंत्री यह मानते हैं कि फाइलों पर फैसला वे नहीं ले सकते, जब तक पीएमओ से संकेत न मिले. इस तरह, "नरेंद्र मोदी सरकार" वास्तव में "नरेंद्र मोदी की सरकार" बन गई है.
- नौकरशाहों पर निजी नियंत्रण: मोदी की कार्यशैली के अनुसार, उन्होंने भरोसेमंद नौकरशाहों को प्रमुख पदों पर बिठाया और सिस्टम को ऐसे लोगों से भरा जो उनकी नीतियों और सोच से पूरी तरह सहमत हों. थरूर के अनुसार, यह परंपरागत प्रशासनिक तटस्थता के खिलाफ है.
- नए भर्ती मॉडल और lateral entry: थरूर यह भी लिखते हैं कि मोदी सरकार ने lateral entry (निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों की भर्ती) को बढ़ावा दिया, जिससे पारंपरिक IAS लॉबी में असंतोष फैल गया. हालांकि कुछ लोग इसे सुधार मानते हैं, लेकिन थरूर इसे नौकरशाही की पारदर्शिता और जवाबदेही में कमी के रूप में देखते हैं.
- RTI और पारदर्शिता पर हमला: थरूर यह आलोचना करते हैं कि मोदी सरकार ने RTI (सूचना का अधिकार) जैसे पारदर्शिता के औजारों को कमजोर किया है, जिससे नौकरशाही पर जनहित में निगरानी रखना मुश्किल हो गया है.
थरूर के अनुसार, मोदी का नौकरशाही पर नियंत्रण कार्यक्षमता बढ़ाने के नाम पर केंद्रीकरण का उदाहरण है. इससे लोकतांत्रिक जवाबदेही में कमी आई है और मंत्रियों व अधिकारियों की निर्णय लेने की स्वायत्तता बाधित हुई है. वह इसे एक 'high command culture' की शुरुआत मानते हैं, जिसमें सब कुछ शीर्ष से नियंत्रित होता है.
3- नरेंद्र मोदी की कथनी और करनी के बीच है अंतर
शशि थरूर की किताब The Paradoxical Prime Minister में संवैधानिक मूल्यों और नरेंद्र मोदी की कथनी और करनी के बीच के अंतर को लेकर गहराई से विश्लेषण किया गया है. थरूर का दावा है कि नरेंद्र मोदी बाहरी तौर पर संविधान और लोकतंत्र की बात तो करते हैं, लेकिन उनके कार्यों और नीतियों में इन मूल्यों का पालन अक्सर नहीं दिखता.
मुख्य बिंदु: संवैधानिक मूल्य बनाम व्यवहार
- लोकतांत्रिक संस्थाओं का कमजोर होना: थरूर लिखते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में संसद, न्यायपालिका, चुनाव आयोग, और RTI जैसे संवैधानिक संस्थानों की स्वतंत्रता और गरिमा प्रभावित हुई है. संसद में बहस और विमर्श का महत्व घटा है, और अध्यादेशों तथा बहुमत के बल पर विधायी प्रक्रिया चलाई गई है.
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश: मोदी सरकार में मीडिया, छात्रों, लेखकों, और एक्टिविस्ट्स पर अप्रत्यक्ष दबाव या प्रतिशोधात्मक कार्रवाइयों की घटनाएं बढ़ीं. थरूर इसे संविधान में गारंटीकृत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ मानते हैं.
- अल्पसंख्यकों के अधिकार: थरूर का आरोप है कि सरकार की नीतियां और नेताओं की बयानबाज़ी अल्पसंख्यकों, खासकर मुस्लिमों के अधिकारों और सुरक्षा के प्रति संवेदनशील नहीं रही. यह धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल संवैधानिक मूल्य से दूरी का संकेत देता है.
- संविधान की शपथ बनाम व्यवहार: थरूर जोर देते हैं कि नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते समय संविधान के प्रति आस्था जताई थी, लेकिन उन्होंने कई मौकों पर ऐसे निर्णय लिए या ऐसे नेताओं को संरक्षण दिया जिन्होंने संविधान की भावना के विपरीत काम किया.
- 'सबका साथ, सबका विकास' बनाम जमीनी हकीकत: थरूर का मानना है कि 'सबका साथ, सबका विकास' जैसे नारे सिर्फ प्रचार तक सीमित रह गए, जबकि जमीन पर सामाजिक ध्रुवीकरण, असहिष्णुता और प्रशासनिक पक्षपात के आरोप लगातार लगे.
थरूर के अनुसार नरेंद्र मोदी की कथनी में संविधान, लोकतंत्र, और सबके लिए न्याय की बातें जरूर हैं, लेकिन उनकी करनी में इन मूल्यों से एक व्यवस्थित विचलन दिखाई देता है. यह विरोधाभास ही थरूर की किताब के शीर्षक "The Paradoxical Prime Minister" का मूल तर्क है.
4- गुजरात मॉडल और उसकी राष्ट्रीय राजनीति पर छाया
गुजरात मॉडल और उसकी राष्ट्रीय राजनीति पर छाया- यह The Paradoxical Prime Minister में शशि थरूर द्वारा विश्लेषित एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है. थरूर इस मॉडल को लेकर फैले मिथकों, प्रचार और इसकी सीमाओं पर विस्तार से चर्चा करते हैं, और यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि कैसे मोदी ने गुजरात के "विकास मॉडल" को राष्ट्रीय राजनीति का आधार बनाया, परंतु इसकी वास्तविकता और प्रभाव कहीं अधिक जटिल और विरोधाभासी रहे.
गुजरात मॉडल की विशेषताएं:
- तेज आर्थिक विकास की कहानी: मोदी ने गुजरात में हुए औद्योगिक विकास और निवेश को अपने नेतृत्व की बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश किया. 'वाइब्रेंट गुजरात समिट' और बड़े कॉर्पोरेट निवेशकों को आकर्षित करना, इस मॉडल की पहचान बनी. मोदी ने इसे राष्ट्रीय स्तर पर 'विकास पुरुष' की छवि के रूप में इस्तेमाल किया.
- बुनियादी सेवाओं में असमानता: थरूर के अनुसार, गुजरात का विकास असंतुलित था. ग्रामीण क्षेत्रों, अनुसूचित जातियों/जनजातियों, और अल्पसंख्यकों को लाभ अपेक्षाकृत कम मिला. शिक्षा, पोषण, और बाल मृत्यु दर जैसे सामाजिक संकेतकों में गुजरात अन्य राज्यों से पीछे था.
- प्रचार और ब्रांडिंग पर जोर: थरूर का कहना है कि गुजरात मॉडल की सफलता में हकीकत से ज्यादा प्रचार का हाथ था. इसे मीडिया और सरकारी मशीनरी की मदद से बड़े पैमाने पर 'बेचा गया', जबकि जमीनी स्तर पर इसकी व्यापकता और समावेशिता पर सवाल रहे.
- ध्रुवीकरण और शासन: गुजरात मॉडल केवल आर्थिक नहीं था- यह सामाजिक और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर भी आधारित था. थरूर का आरोप है कि 2002 के दंगों के बाद गुजरात में मुस्लिम समुदाय अलग-थलग पड़ गया और भय का वातावरण बना रहा, जिसे नजरअंदाज करते हुए 'विकास' की एकतरफा तस्वीर पेश की गई.
- राष्ट्रीय राजनीति में प्रभाव: 2014 में नरेंद्र मोदी ने गुजरात मॉडल को 'न्यू इंडिया' का खाका बताकर राष्ट्रीय चुनाव में उतारा. 'मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस' जैसे नारे इसी मॉडल से निकले. थरूर मानते हैं कि इसने नेतृत्व को केंद्रित और सत्ता को केंद्रीकृत बना दिया, जो भारतीय संघीय ढांचे के लिए चुनौतीपूर्ण है.
थरूर के अनुसार, गुजरात मॉडल ने मोदी को एक मजबूत प्रशासक की छवि दी, लेकिन इस मॉडल की अधूरी सामाजिक भागीदारी और प्रचारवादी प्रकृति ने लोकतांत्रिक मूल्यों को पीछे धकेला। जब इसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया गया, तो कई जगह लोकतांत्रिक संस्थाओं और संघीय संतुलन को क्षति पहुंची.
5- मोदी शासनकाल में मीडिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर टिप्पणी
- मीडिया की भूमिका: सरकार समर्थक प्रवृत्ति: नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मीडिया के एक बड़े हिस्से पर 'गोदी मीडिया' यानी सरकार समर्थक और आलोचना से परहेज करने वाली रिपोर्टिंग का आरोप लगता रहा है. थरूर लिखते हैं कि कैसे मीडिया को नियंत्रित करने का एक सुनियोजित प्रयास किया गया- बड़ी कॉरपोरेट संस्थाओं के माध्यम से चैनलों पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण, विज्ञापन का इस्तेमाल, और आलोचक पत्रकारों को हाशिए पर डालने की रणनीति अपनाई गई.
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर शिकंजा: सरकार के आलोचकों,चाहे वे लेखक हों, पत्रकार हों या सामाजिक कार्यकर्ता, के खिलाफ देशद्रोह, यूएपीए (UAPA) या मानहानि जैसे कठोर कानूनों का प्रयोग बढ़ा है। इससे एक भय का माहौल बना, जहां लोग खुलकर अपनी राय रखने में संकोच करने लगे. थरूर इसे 'डर की संस्कृति' कहते हैं, जो लोकतंत्र की आत्मा के विरुद्ध है.
- सोशल मीडिया का नियंत्रण और ट्रोल आर्मी: सरकार समर्थक ट्रोल्स द्वारा आलोचकों को निशाना बनाना आम हो गया है. फेक न्यूज, बदनाम करने वाले अभियान, और व्यक्तिगत हमलों के ज़रिये डिजिटल असहमति को दबाने की कोशिशें की जाती हैं. कुछ आलोचकों को जान से मारने की धमकी तक मिली है.
- सरकारी प्रेस तक सीमित पहुंच: प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पूरे कार्यकाल में एक भी फ्री-फॉर्म प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की, जो थरूर के अनुसार उत्तरदायित्व से बचने की रणनीति है. अधिकांश संवाद केवल स्क्रिप्टेड इंटरव्यू या सरकारी माध्यमों से ही हुए हैं, जिससे सवाल पूछने की स्वतंत्रता लगभग नदारद रही.
- अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की आलोचना: रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा जारी प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत की रैंकिंग लगातार गिरती रही है. 2023 में भारत 161वें स्थान पर पहुंच गया था. यह संकेत है कि स्वतंत्र पत्रकारिता पर दबाव सिर्फ आंतरिक नहीं, बल्कि वैश्विक दृष्टि से भी मान्यता प्राप्त मुद्दा है.
थरूर और अन्य विश्लेषकों का मानना है कि मोदी शासनकाल में मीडिया को नियंत्रित कर, असहमति को कमजोर करके और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर दबाव डालकर भारतीय लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को कमजोर किया गया है। यह लोकतांत्रिक व्यवस्था की नींव के लिए एक गंभीर चुनौती है.